आज हम जन्मशती वर्ष पर सच्चिदानंद हीरानन्द वास्त्सायन ''अज्ञेय'' को उनकी एक कविता जो बहुत हद तक समसामयिक लगती है को पोस्ट कर याद कर उन्हें रहे हैं. उन्हें आज आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रयोगवादी आन्दोलन के जनक के रूप में जाना जाता है । अज्ञेयजी ने आधुनिक हिन्दी कविता के प्रयोगवाद नामक आन्दोलन को सन 1943 में ''तार -सप्तक'' नामक कविता संग्रह के प्रकाशन द्वारा जन्म दिया था । इसकी भूमिका मे अज्ञेयजी द्वारा लिखित विचार आज हिन्दी आलोचना का एक प्रमुख स्तम्भ माना जाता है ।
खोज में जब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले ।
कुछ नये कुछ पुराने मिले
कुछ अपने कुछ बिराने मिले
कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले
कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले
कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले
कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले ।
कुछ ने लुभाया
कुछ ने डराया
कुछ ने परचाया-
कुछ ने भरमाया-
सत्य तो बहुत मिले
खोज में जब निकल ही आया ।
कुछ पड़े मिले
कुछ खड़े मिले
कुछ झड़े मिले
कुछ सड़े मिले
कुछ निखरे कुछ बिखरे
कुछ धुँधले कुछ सुथरे
सब सत्य रहे
कहे, अनकह ।
खोज में जब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले
पर तुम
नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के तुम
मोम के तुम, पत्थर के तुम
तुम किसी देवता से नहीं निकले:
तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले
मेरे ही रक्त पर पले
अनुभव के दाह पर क्षण-क्षण उकसती
मेरी अशमित चिता पर
तुम मेरे ही साथ जले ।
तुम-
तुम्हें तो
भस्म हो
मैंने फिर अपनी भभूत में पाया
अंग रमाया
तभी तो पाया ।
खोज में जब निकल ही आया,
सत्य तो बहुत मिले-
एक ही पाया ।
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