ज़िंदगी ये मेरी बहुत कम है पड़ गयी
उनको है भूलना तो ख़ुदा और उम्र दे
दर्द मेरे घर का आंगन भी है बिस्तर भी
मैं शहर में पूरी तरह बदनाम नहीं हूँ
कुछ कर गुजरना है ख़ुदा और उम्र दे
मेरी बातें सुनकर ही कुछ लोग रो दिए
कुछ दोस्त अभी बाकी ख़ुदा और उम्र दे
जो मेरे पास था वो सब दफ़्न कर चुका
कुछ ख्वाब अभी बाकी ख़ुदा और उम्र दे
कई आस्तीनों में अभी कुछ भी नहीं पलता
कुछ संाप ढूँढने है तो ख़ुदा और उम्र दे
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें