यादों को ना मिटाना ये धूल पुरानी है
जमते जमते जैसे ये जिस्म हो गयी है
दस्तक यहां न देना दरवाजे हैं पुराने
ख़ामोशी जैसे इनकी तकदीर हो गयी है
कैसे मिलें किसी से सोए नहीं हैं कब से
ख़्वाबों की बस्तियां भी वीरान हो गयीं हैं
कुछ बोलने से पहले ये बात याद रखना
सच झूठ की मुझे अब पहचान हो गयी है
- अशोक जमनानी की बाकी की ग़ज़ल पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करिएगा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें