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युवा उपन्यासकार अशोक जमनानी www.ashokjamnani.com |
पत्थर
कुछ कहा जाए
उन पत्थरों के लिए
जो देवालयों में
बन गए ईश्वर
या हो गए पहाड़
पहाड़ों पर पड़े पड़े
जो सदियों से धंसे हैं
किलों और महलों में
जो विवश से फंसे हैं
अंतहीन मार्गो के संकुलों में
इमारतों की नींव से कलश तक
जो डूबे हैं अहंकार में
फुटपाथों पर पड़े हैं जो
किसी ठोकर के इंतज़ार में
कुछ कहा जाए
उन पत्थरों के लिए
जो बन गए आदिम हथियार
जो चक्कियों के पाट बन
कर रहे उपकार मगर बेगार
लेकिन क्या कहा जाए
उन पत्थरों के लिए
जो न जाने कैसे बन गए
तथाकथित् मनुष्य का
तथाकथित् हृदय !!!!!
जिस वक्त
हाथ तुम्हारा था
मेरे हाथ में
और मैं जानता था
कि आने वाले
किसी भी लम्हें में
तुम पूरी नज़र से
देखकर मेरी ओर
मुस्कराकर
आहिस्ता-आहिस्ता
खींच लोगे
हाथ अपना
उस वक्त
मैं पूरे जोर से
भींच लेना चाहता था
अपने हाथ में
हाथ तुम्हारा
पर मैंने अपने स्पर्श में
भर दी नर्मी इतनी
कि तुम महसूस कर सको
वो इज़ाज़त
जो तुम्हें खींच लेने दे
हाथ अपना
और तुम्हारे जाने के बाद
मैं ढूंढ सकूं अपने हाथ में
तुम्हारे हाथ की वो लकीर
जो शायद छूट गयी हो
मेरे हाथ में ...........
हाथ तुम्हारा था
मेरे हाथ में
और मैं जानता था
कि आने वाले
किसी भी लम्हें में
तुम पूरी नज़र से
देखकर मेरी ओर
मुस्कराकर
आहिस्ता-आहिस्ता
खींच लोगे
हाथ अपना
उस वक्त
मैं पूरे जोर से
भींच लेना चाहता था
अपने हाथ में
हाथ तुम्हारा
पर मैंने अपने स्पर्श में
भर दी नर्मी इतनी
कि तुम महसूस कर सको
वो इज़ाज़त
जो तुम्हें खींच लेने दे
हाथ अपना
और तुम्हारे जाने के बाद
मैं ढूंढ सकूं अपने हाथ में
तुम्हारे हाथ की वो लकीर
जो शायद छूट गयी हो
मेरे हाथ में ...........
अशोक जी की कविताओं को पढना एक अनुभव सा है.. पत्थरों के बारे में इतनी सुन्दर कविता पहले नहीं पढ़ी..
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