सन् 2008 में हिन्दी के जिन लेखकों का देहांत हुआ उनमें डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय एक बहुत बड़ा नाम था किन्तु हिन्दी जगत में सबसे कम नोटिस उनके जाने को लेकर लिया गया। यह एक दुखद प्रसंग है कि जयपुर में ही उनके निधन पर एक अजीब सी उपेक्षा भरी उदासी बनी रही। जबकि डॉ. उपाध्याय जीवन भर वामपंथ की अलख जगाये रहे। इतना ही नहीं आन्दोलन के स्तर पर जो लोग उनसे आंतरिक रूप से जुड़े रहे तथा समय पडऩे पर उनका उपयोग भी करते रहे, उनमें भी उनके निधन पर कोई हरकत देखने को नहीं मिली। जो लोग उल्लेखनीय का प्रसाद बांटते रहते हैं और सड़े-गले नेताओं की शान में कसीदे काढ़ते रहते हैं वे भी, जबकि वे उपाध्याय जी के बहुत निकट रहे, उनके निधन पर चुप रहे। मेरे लिए डॉ. उपाध्याय का जाना बेहद पीड़ादायक था किन्तु लोगों के व्यवहार से मुझे बहुत अधिक तकलीफ हुई। वे मेरे औपचारिक रूप से गुरु रहे तथा जितने गहरे स्नेह और अपेक्षा के सम्बन्ध मेरे उनके बीच रहे शायद ही किसी के रहे हों। उनका मेरे प्रति असीम स्नेह था और मैं उनका बहुत सम्मान करता था। हम दोनों ही इस स्थिति से बहुत अच्छी तरह वाकिफ थे, किन्तु हमारे बीच एक विचित्र सा तनाव बना रहता था। इसका कारण मेरी उनसे अपेक्षाएं भी रहीं। मैं जब एम.ए. कर रहा था तो मैंने सुमित्रानंदन पंत पर उनकी पुस्तक पढ़ी थी। उस समय पंतजी पर जितनी पुस्तकें मुझे उपलब्ध हो सकीं, उनमें सबसे अच्छी पुस्तक मुझे उपाध्यायजी की लगी थी। यही मेरा उनसे प्रथम परिचय था।
जब से वह राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में आये तभी से मेरा उनका आत्मीय सम्पर्क बना रहा। निश्चय ही उपाध्यायजी परम्परागत छवि वाले गुरु नहीं थे और उन्होंने अपने व्यवहार में गुरुडम को कभी पाला भी नहीं। वे अपने विद्यार्थियों से बराबरी का संबंध रखते थे, उनसे बहस करते थे और अपने विरोध को आमंत्रित भी करते थे। जितनी शालीनता के साथ वे अपने विरोध को सहन करते थे बहुत कम लोग ऐसा कर सकते हैं। मेरा मानना रहा कि वे अद्भुत मेधा के आलोचक थे तथा जैसे नगेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी की एक त्रयी थी उसी तरह रामविलास शर्मा, नामवर सिंह की त्रयी में अगर तीसरा नाम किसी का हो सकता था तो वह उपाध्यायजी का ही था। पर ऐसा नहीं हो पाया। इसका एक कारण उनका अपना औघड़पन था-वे सबसे बराबरी के स्तर पर मिलते थे। अपने विरोध को सहर्ष स्वीकार करते थे। उनके 'यों बोला नाथ विश्वम्भर' शीर्षक कविता संग्रह पर गोष्ठी थी। स्व. प्रकाश श्रीवास्तव ने इस संग्रह की कविताओं में सार्त्र का सारा दर्शन खोज निकाला तो डॉ. वीरेन्द्र सिंह ने दिक्-काल और विज्ञान विषय अवधारणाओं के आलोक में संग्रह की कविताओं की आलोचना की। डॉ. राघव प्रकाश ने उनकी कविता को मुक्तिबोध से आगे की कविता बताया। गोष्ठी में मुझसे बोलने का आग्रह किया गया। बहुत संकोच के साथ मैंने कहा कि जब उपाध्याय जी की कविता में इतना सब कुछ है तो मेरे लिए खोजने को उसमें क्या बचता है। किन्तु हमें यह तो देखना ही चाहिए कि संग्रह की कविताओं में कविता कितनी है? यह सवाल मैंने उनकी उपस्थिति में रखा था। यह सवाल उनके विद्यार्थी ने गोष्ठी में रखा था। किन्तु उपाध्यायजी ने खड़े होकर कहा कि हमारे विद्यार्थी कितने मेधावी हैं और हमारी कविता के प्रति उनके मन में कितना सम्मान है, यह आपने भारद्वाजजी से सुन लिया। पर मुझे अपनी कविताओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। मैं हेतु की टिप्पणी को खारिज नहीं कर सकता। अगर उन्हें लगता है कि मेरी कविताओं में शब्दों की बहुलता है तो मुझे अपनी कविता को बार-बार पढऩा चाहिए। जाहिर है इतनी गम्भीर बात कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कह सकता। हिन्दी में तो लोगों को जरा-सा विरोध बर्दाश्त नहीं है। अजीब स्थिति तब बनी जब गोष्ठी के बाद अधिकांश लोगों ने मुझसे कहा कि तुमने बहुत सटीक बात कही। मैंने यही कहा कि तभी उपाध्यायजी ने मेरी बात पर ही टिप्पणी की। लेकिन उनके इस औघड़पन का न उनके विद्यार्थियों ने सम्मान किया न हिन्दी जगत ने। उनके चिंतन और लेखन की रेंज बहुत व्यापक की-नाथ सम्प्रदाय पर शोध कार्य, समकालीन माक्र्सवाद पर गहन चिंतन, भारतीय काव्य शास्त्र का मार्क्सवादी दृष्टि से मौलिक अध्ययन, आधुनिक कविता, कहानी, उपन्यास आदि विधाओं पर गहन अध्ययन, गोरखनाथ के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास, प्रगतिशील आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी जैसे अनेक विपरीत प्रत्यय उनसे जुड़े हुए थे जिनसे उनकी क्षमता और ऊर्जा का पता चलता था। वे अद्भुत वक्ता थे- इस सीमा तक कि श्रोता उनके वक्तत्व से घबरा उठें। पर अपनी बात को सहजता और निर्भीकता के साथ कहने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। मैं जिस कॉलेज में रहा मैंने उन्हें भाषण के लिए जरूर बुलवाया और वे अपने भाषण से मेरे लिए मुसीबत ही खड़ी करके गये जिसे वे स्वीकार भी करते थे। उन्होंने डॉ. रामविलास शर्मा के साथ 'समालोचना' के सम्पादन में सहयोग दिया था किन्तु उपाध्यायजी ने रामविलासजी की तरह योजनाबद्ध तरीके से लेखन नहीं किया तथापि डॉ. उपाध्याय का रचना संसार बहुत बड़ा है। कविता, उपन्यास, नाटक, गज़ल, आलोचना आदि अनेक विधाओं में उन्होंने पर्याप्त मात्रा में सृजन किया किन्तु मूलत: वे एक आलोचक थे और अगर उन्होंने इधर-उधर की विधाओं में न भटककर आलोचना में ही काम किया होता तो वे निश्चित रूप से रामविलास शर्मा, नामवरसिंह की त्रयी में आते।
मेरी उनसे अक्सर झड़प हो जाती थी और कई बार हम दोनों ही परस्पर रूठ जाते थे। एक दिन उन्होंने कह दिया, तुम काम-वाम तो करते नहीं बस हमें हड़काते रहते हो। मुझे लगता है तुम शोध कार्य नहीं कर सकते। मैंने कहा कि ठीक है आप चाहें तो विश्वविद्यालय को मेरा रजिस्ट्रेशन निरस्त करने के लिए लिख दें। काफी दिन हो गये। हम दोनों का मिलना नहीं हुआ। मेरे एक सहयोगी डॉ. रामगोपाल गोयल उन्हें कॉलेज में भाषण के लिए बुलाना चाहते थे। मैंने कहा कि इन्वाइट कर आओ। जब डॉ. गोयल उन्हें आमंत्रित करने गये तो उन्होंने पूछा कि क्या हेतु भी हमें बुलना चाह रहा है। वे भाषण देने नीमा का थाना आये तो पहले मेरे आवास पर आये और दरवाजे पर खड़े होकर बोले,-अगर तुम वादा करो कि अपना शोध कार्य जल्दी पूरा कर दोगे तो ही मैं घर में घुसूंगा वर्ना बिना भाषण दिये वापस चला जाऊँगा। मैंने हामी भरी तभी वे घर में घुसे और पत्नी से बड़े आत्मीय लहजे में बोले,-बहू, ये भारद्वाज हमारे साथ बहुत खुरपेंची करता है। इसे समझाया करो। और इसके बाद जैसे कुछ हुआ ही नहीं। शोध-प्रबंध टाइप हो रहा था, उसे सबमिट करने की तिथि नजदीक थी और उन्हें कई रोज के लिए बाहर जाना था। उन्होंने कार्यालय अधीक्षक दामोदर पारीक (वे ही थीसिस टाइप कर रहे थे) को बुलाकर कहा कि हमारे हर जरूरी कागज पर दस्तखत करा लो, थीसिस तिथि से पूर्व सबमिट हो जानी चाहिए। मैंने उनसे कहा कि आप कम से कम भूमिका तो पढ़ लें, तो हंसकर कहने लगे कि तुम क्या लिखना सीख रहे हो। मैंने भूमिका में उनके लिए जितना लिखा था उसे काटकर केवल एक दो वाक्य रहने दिये,- मेरे तुम्हारे संबंध इन प्रशंसाओं से कहीं ऊपर हैं। तुमने काम पूरा कर दिया मेरे लिए यह प्रसन्नता की बात है। यह थी उनकी औघड़ आत्मीयता। शायद यही उनके स्वभाव का स्थायी तत्व था।
राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी पाठ्यक्रम समिति के चुनाव होने को थे। उपाध्यायजी उसमें खड़े होना चाहते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम इस बार खड़े मत हो। मैंने कहा कि एक पद के लिए तो चुनाव है नहीं। पांच लोग चुने जाने हैं। यह भी तो सम्भव है कि हम दोनों चुनाव जीत जाएं। पर वे अपनी बात पर अड़े रहे। सभी मित्रों की राय थी कि मेरा चुनाव न लडऩा गलत रहेगा। संयोग से उपाध्यायजी चुनाव नहीं जीत सके और मैं चुनाव जीत गया। उन्होंने अपनी हार का कारण मुझे ही माना। हम लोग उनके घर बैठे थे-डॉ. जयसिंह नीरज भी साथ थे। वे भी चुनाव हार गये थे। पर उपाध्यायजी मेरे ऊपर बरस रहे थे कि तुमने मुझे हरवाया। नीरज ने भी उन्हें समझाया कि आप गलत सोचते हैं। अगर हेतु नहीं खड़े होते तो कहां जरूरी था कि आप जीत जाते। पर उपाध्यायजी मानने को तैयार नहीं हुए और क्रोध की वर्षा से मुझे आप्लावित करते रहे। मैंने कहा, ठीक है अब मैं आपके घर नहीं आऊँगा। वे तैश में बोले,-मत आना। हमारे पास कौन आने वालों की कमी है। हम किसी की परवा नहीं करते। मैं उठकर चल दिया और जब जीने से उतरने लगा तो अम्मा ने मेरे पास आकर कहा-लल्ला जे तो यों ई बकत रहत हैं, तुम आबी-जाबी बंद मत करियो। मैं चुपचाप चला आया था। लम्बे अरसे तक उनके आवास पर नहीं गया। मिलना तो अक्सर होता रहता था। उन्होंने कभी गुस्सा प्रकट नहीं किया। एक रोज मुझे वे नीरजजी के आवास पन पर मिल गये। बातें होती रहीं। चाय-वाय पीकर हम दोनों बाहर निकल आये। उपाध्यायजी का आवास पास ही था। उनके आवास के सामने हम लोग खड़े-खड़े बातें करते रहे। फिर नाले की पुलिया पर बैठ गये तो वे बोले,-ऊपर तो तुम चलोगे नहीं? -आपने कभी कहा है क्या?-तो चलो, उन्होंने उठकर मेरा हाथ पकड़ लिया और हम ऊपर चले गये। उन्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं रह गयी थी। फिर वही लिखने-पढऩे और आन्दोलन की बातें।
वे सब के साथ खुला व्यवहार रखते थे, पत्र लिखने में कभी कोताही वे नहीं बरतते थे। कोई भी पत्रिका उनके पास आती, वे अविलम्ब अपनी प्रतिक्रिया भेजते। वे निरंतर संवाद बनाये रखना चाहते थे। 1974-75 में जब उपाध्यायजी राजस्थान विवि, जयपुर में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे तो उनके संयोजन में एक दस दिवसीय सेमीनार हिन्दी आलोचना को केन्द्र में रखकर हुआ था। सेमीनार के लिए यूजीसी से पैसा मिला था। इस आयोजन की विशेषता यह थी कि इसमें देश भर के विद्वानों ने भागीदारी की थी। जैसे हिन्दी साहित्य का पूरा संसार इस कुम्भ में एकत्र हो गया था। खुलकर बहसें हुई थीं। एक रोज किसी मित्र ने शगूफा छोड़ दिया कि रोजाना खुफिया विभाग का आदमी गोष्ठी में आता है और किसने क्या कहा इसकी रिपोर्ट राज्य सरकार को देता है। तब आपातकाल था। मैंने देखा कि मंच से दहाडऩे वाले अच्छे-अच्छे वीरों की पोल खुल गयी थी। कई तो बीच में ही जाने को उद्यत हो गये थे, पर उपाध्यायजी ने निर्भीक होकर संवाद करने की मांग व्यक्त की थी और यह भी कहा था कि वे सरकार से लड़ सकते हैं। मुझे याद है कि उस गोष्ठी में अकेले विष्णुकांत शास्त्री थे जिन्होंने मंच से एक गोष्ठी में कहा था कि मैं आपातकाल का खुलकर विरोध करता हूँ यदि कोई इंटेलीजेंस का व्यक्ति हो तो मेरी भावना सरकार तक पहुंचा दे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस आयोजन ने उपाध्यायजी की क्षमताओं और परिस्थितियों को तो उजागर किया ही, उनके अकादमिक सरोकारों को भी रेखांकित किया। इतना बड़ा आयोजन जयपुर में न इससे पूर्व हुआ था न इसके बाद कभी हुआ।
उपाध्यायजी के व्यक्तित्व में विचित्र किस्म की विपरीतताओं का संघात था-उनमें वैदुष्य और व्यापक अध्ययन का आक्रांत करने वाला घटाटोप था तो बालसुलभ निश्छलता भी थी। ज्ञान के प्रति गहरी जिज्ञासा थी तो छोटी सी बात पर तुनक जाने की आदत भी थी। व्यवहार में एक असीम औदार्य था तो संकीर्ण व्यक्तिवाद भी था। कई बार लगता था कि वे सामंतवाद के पक्षधर हैं किन्तु मूलत: उनकी चेतना पर जनपक्षधरता का ही अधिकार था। वे अपनी धारणाओं के प्रति आग्रहशील तो थे पर इतने नहीं कि दूसरे की बात न मानें। वे विरोधी विचार वालों से भी संवाद करने में गुरेज नहीं करते थे। मेरी थीसिस सबमिट हो गयी। न मैंने पूछा न उन्होंने बताया कि परीक्षक-पैनल में कौन-कौन लोग हैं। लगभग तीन माह बाद उन्होंने मुझे डॉ. रघुवंश और डॉ. सी.एल. प्रभात की रिपोर्ट दीं। दोनों ही बहुत प्रशंसात्मक थीं। उपाध्यायजी बोले,-अब तुम्हें एक काम करना है। किसी तरह वाइवा में सी.एल. प्रभात को आमंत्रित कराओ। विवि की परम्परानुसार तो कम दूरी पर होने के कारण डॉ. रघुवंश को ही आमंत्रित किया जाएगा। पर मैं चाहता हूँ कि किसी तरह प्रभातजी को बुलवाओ। वे हमारे मित्र हैं आगरे के। हमें बराबर बम्बई बुलाते रहते हैं। हम कभी नहीं बुला पाते। यह काम तुम कर सकते हो। मैंने उनसे कहा कि मेरा ख्याल है आपका कहना ही काफी रहेगा। आप तो वीसी से भी कह सकते हैं। -नहीं मैं नहीं कहना चाहता। पर तुम जैसे भी हो प्रभातजी को बुलवाओ। डॉ. जनक शर्मा, जिन्होंने मुक्तिबोध पर शोध कार्य किया था, विवि में शोध विभाग में प्रभारी थीं। उनका शोधार्थियों को पूरा सहयोग मिलता था। मैंने उनसे जब यह बात बतायी तो उन्होंने ही कहा कि डॉक्ट साब वीसी से कहकर करवा सकते हैं। मैंने बताया कि वे नहीं कहना चाहते। मैंने डॉ. जनक शर्मा को सुझाया कि आप फाइल पर टिप्पणी बनायें कि डॉ. रघुवंश, कम दूरी पर होने के कारण, अनेक बार मौखिकी के लिए आ चुके हैं। इस बार डॉ. प्रभात, बम्बई को आमंत्रित कर लिया जाए। यह तरकीब काम कर गयी और डॉ. प्रभात का नाम टिक हो गया। इससे उपाध्यायजी को बहुत प्रसन्नता हुई। डॉ. प्रभात बहुत ही शालीन और मृदुल व्यक्ति थे। उपाध्यायजी ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया। विभाग में उनका भाषण भी कराया। डॉ. प्रभात भी जयपुर से बहुत प्रसन्न भाव से वापस गये। जब हमने प्रभात जी को विदा कर दिया तो उपाध्यायजी मुझसे बोले,-अच्छा हेतु, तुम्हारा काफी पैसा खर्च हो गया। लो हमारी तरफ से यह रख लो और उन्होंने कुछ नोट मेरी तरफ बढ़ाये। मुझे नहीं पता कि वे कितने थे पर मैंने कहा आप क्या मुझे इतना छोटा समझते हैं? -नहीं यार, ऐसा है कि प्रभातजी के आने से हमें बहुत अच्छा लगा है तुम व्यवस्था न करते तो शायद वे आ ही नहीं पाते। लो रख लो हमारे ही काम आ जाएंगे।-तो आप ही रखें इन्हें। प्रसंग वहीं समाप्त हो गया।
डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय का जाना हिन्दी समीक्षा के लिए बहुत भारी क्षति है। उनका सारा लेखन बिखरा हुआ है। उनकी ग्रंथावली छपे तो उनके कार्य का मूल्यांकन हो। और नहीं तो उनके समीक्षा ग्रंथों का संकलन तो निकले ही ताकि उनके समीक्षा-चिंतन की रेंज का पता चले। हिन्दी में अब किसी लेखक का महत्व उसके लेखन के कारण नहीं होता, यह जिम्मेदारी अब लेखक के परिवार पर आती जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। मुझे याद है कि 'वर्तमान साहित्य' के आलोचना पर तीन अंक प्रकाशित हुए थे। उनमें भी उपाध्यायजी को यथोचित स्थान नहीं मिला था। उनमें तो मुक्तिबोध तक की पूर्ण उपेक्षा की गयी थी।
ऐसे विकट समय में हम अपने पुरोधाओं की स्मृति को कैसे अक्षुण्ण बनाये रख सकते हैं, यह बहुत बड़ा सवाल हमारे सामने है। लगता है कि हिन्दी में ऐसी संस्कृति का अभी तक विकास नहीं हो पाया है कि पुरोधाओं को उनकी जगह स्थापित किया जा सके। खारिज करने को तो हम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तक को एक पंक्ति में खारिज कर सकते हैं किन्तु किसी के महत्व को स्वीकार कर उसका तटस्थ मूल्यांकन करना श्रमसाध्य कार्य तो है ही, उसके लिए बड़े मन की भी जरूरत है। हिन्दी आलोचना का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसने तात्कालिकता को सर्वोपरि माना है। या तो हमने भक्त तैयार किये हैं या निंदक। किसी भी लेखक के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के लिए दोनों ही घातक हैं। इसी क्रम में हमें डॉ. विश्वम्भरनाथ के समीक्षा कर्म का मूल्यांकन करना चाहिए।
हेतु भारद्वाज जी
ए-243, त्रिवेणी नगर,
गोपालपुरा बाइपास, जयपुर
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