सच को अब हम सपाट लिखें
धुंधला रहे इस वितान को
यूं मिलके साफ़-साफ़ लिखें
दूर-दूर महल खड़े हैं सारे
ढेरों अवशेष पड़े हैं दूर-दूर
गर तुम हाथ बढ़ाओ ज़रा
कुछ तो आस-पास लिखें
आते हुए नवाएँ लोग सर
यहाँ जाते हुए लगाए धोग
लड़ालूम हो जाए खँडहर यूं
उघड़ा हुआ इतिहास लिखें
जड़विहीन बेलों-सी बातें क्यूं सींचें
जब तथ्यों की टहनी खुद बात करें
किले को जाती राहों पर आओ
अब कुछ बरगद,फूल-बहार लिखें
खूब रही खुले में पथरीली दौलत
क़ानून-कायदों का कुछ भान करें
कि मधुशाला बनती इमारतों में
फिर जौहर-शाकों के अंगार लिखें
दनदनाती बंदूकें-तोफें मिली अतीत में
सहती,डरती,दबती और बुझती ऐसी ही
ढहती हुई इमारतों के हित आओ
कुछ गीत-ग़ज़ल-मल्हार लिखें
रचना:-माणिक
अब कुछ बरगद,फूल-बहार लिखें
खूब रही खुले में पथरीली दौलत
क़ानून-कायदों का कुछ भान करें
कि मधुशाला बनती इमारतों में
फिर जौहर-शाकों के अंगार लिखें
दनदनाती बंदूकें-तोफें मिली अतीत में
सहती,डरती,दबती और बुझती ऐसी ही
ढहती हुई इमारतों के हित आओ
कुछ गीत-ग़ज़ल-मल्हार लिखें
रचना:-माणिक
मानिक भाई बेहद सुन्दर कविता.. किले पर आपकी कविता विरासत और धरोहर सी लगती है .. आपकी अन्य कविताओं से बिल्कुल अलग... किले में गीत और मल्हार लिखना नया विम्ब रच रहा है... अदभुद..
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
छायाचित्र काफी अच्छा है
जवाब देंहटाएंbahut sunder kavita..
जवाब देंहटाएंaapke shahar ka kila na jaane kitni kavitaon,kahaniyon ka prerak raha h..