पुस्तक समीक्षा:‘समय के साथ‘

रमणिका गुप्ता हमारे समय की महत्वपूर्ण लेखिका है। वे अपने राजनीतिक जीवन से ही समाज के तमाम मुद्दों पर बेबाकी से अपनी राय रखती आयी है और लड़ती आयी है। वे आज भी उसी जोश के साथ काम करती है। ‘समय के साथ‘ उनकी यह पुस्तक समय-समय पर लिखे लेखों का संग्रह है। इसमें कई तरह के लेख हैं जो कि लेखिका की पक्षधरता को स्पष्ट करते हैं। खासकर वे स्त्री मुद्दों को लेकर बहुत ही बेबाक रही है। समाज के तमाम रीति रिवाजों को चुनौती देते हुए यह लेखिका प्रतिवाद में विश्वास रखती हैं और निरंतर प्रतिवाद करती है। विकास की इस आंधी में वे लोग विस्थापित किये जा रहे हैं जो निहत्थे हैं। ऐसे में तमाम आदिवासी अपनी ही जमीन से विस्थापित किये जा रहे हैं। । रमणिकजी की यह किताब स्त्री, दलित, आदिवासियों के मुद्दों पर, और समसामयिक मुद्दों पर बहुत ही गहरे से बात करती है। जेंडर, क्लास और कास्ट जैसे हर मुद्दे पर यहां बात की गई है। भाषा की संरचना हो या समाज के मुहावरे या फिर कहावते या सामान्य भाषा मे कही जानेवाली बाते हो हर स्तर पर वे अपनी राय रखती है। विमर्श के दौर में हर विषय पर हर तरह से सोचा जा रहा है ऐसे में वे रीतिरिवाज तो सवालों के घेरे में आने ही है जो जड़ हो चुके हैं। इस किताब में ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहरे से विचार किया गया है।

भाषा का सवाल आज बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है। तमाम भारतीय भाषाओं पर संकट हैं उपर से इनमें संवाद का अभाव या फिर अंग्रेजी का वर्चस्व ऐसे में भाषाओं पर संकट तो स्वाभाविक ही है। बाजार के इस युग में अगर भाषाओं को नहीं बचाया गया तो भारतीयता पर सवाल तो खड़े होने ही है। इस बाबत हमें हिन्दी उर्दू विवाद को नहीं भूलना चाहिए। ऐसे में हर भाषा अपनी संवादधर्मिता के साथ दूसरी भाषा के पास जाए उसी में दोनों का विकास और अस्तित्व संभव है। अगर कोई भाषा मरती है तो पूरा समुदाय ही मरता है। वह पारसी भाषा के साथ देखा जा सकता है। इसलिए इस पर गंभीरता से विचार किया जाना जरूरी है। इसको लेकर किसी भी तरह की रूग्ण मानसिकता की जरूरत नहीं है। बाजार के इस दौर में यह देखनेवाली बात है कि बाजार अपने को हर जगह नियामक बनाता जा रहा है। वह समाज को हर चीज के लिए अपने पर निर्भर करता जा रहा है। ऐसे में समाज की मानसिकता तो वही होनी ही है। ऐसे में बाजार के साथ मुक्ति और वास्तविक मुक्ति क अंतर को पहचाने की जरूरत है।

 चली आ रही मानसिकता पर सवाल उठाना नया करना है या उसकी और कदम बढ़ाना है। वह समाज में किसी भी स्तर पर हो सकता है। गांधीजी बनाम बिरसा हो या फिर बाबासाब बनाम गांधीजी हो। इस देश की वर्ण व्यवस्था ने जो किया वह किसी से छिपा नहीं हैं। सब कुछ तो उसी का परिणाम है। ऐसे में उसको समाप्त कर एक समता मूलक समाज की बात करना ही नया करना है। आज हमारे तमाम संस्थानों में, लोगों की मानसिकता में वही जड़ता है , जिसको हम कहते कि हमने कानून बनाकर समाप्त कर दिया है। उन्हीं लोगों का वर्चस्व है जो किसी न किसी रूप में समाज में इस तरह की जड़ता को बनाए रखना चाहते हैं। जिसे नये तरह का जातिवाद कहा जा रहा है वह फिर पनप रहा है और राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए जिसको बढ़ावा दिया जा रहा है। उसको समझे बगेर इस समाज को समझने में भूल होनी है।

इस किताब में पिछले दशक की हर बहस को जगह दी। वह युद्ध हो या फिर आंतकवाद के नाम पर किये गए हमले और लाखो लाख लोगों की हत्या। उसको तर्कसंगत साबित करने के लिए अपनाये गए तमाम हतकंडे, प्रचारतंत्र और उसके बाद जो सच्चाईया आयी वह! वही काम अभी विकिलिक्स कर रही है। इराक युद्ध या अफगानिस्तान का युद्ध। हकीकत सामने हैं। संस्कृतियों के आपसी संवाद को संघर्ष बता कर वर्चस्व की संस्कृति को स्थापित करने का काम किया जा रहा है।  वह चाहे बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ना या फिर इराक में सभ्यता के प्राचीन अवशेष नष्ट करना। यह कौन सी सत्ताएं हैं जो समुदायों की हत्या कर अपने को कल्याणकारी सिद्ध करने पर तुली हैं। हर शोषणकारी सत्ता यही करती रही है। आज की सताएं उसे अलग तरह से कर रही है। माध्यम बदल गए हैं।बस।

इस किताब में रमणिका जी ने अपनी स्त्री अस्मिता को प्रखरता के साथ व्यक्त करते हुए उसके सरोकरो पर ध्यान केन्द्रित किया है। लेखिका समाज के साथ गहरे जुड़े रहने के कारण भी कहीं भी एकायामी नहीं रहती, वरन हर आयाम को व्यक्त करते हुए वह अपने को वहीं खड़ा पाती है जहां कि परिवर्तन की संभावना है। ऐसे में इतना कहा जा सकता कि जितनी प्रखरता के साथ लेखिका अपने विचारों को व्यक्त करती है वह उनकी प्रतिवाद की पक्षधरता को प्रकट करता है।    

शब्दसृष्टि प्रकाशन दिल्ली सं 2010 
मूल्य-225
कालु लाल कुलमी  09595614315

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