16 सितम्बर,2011 से लखनऊ में पुस्तक मेला शुरू हुआ। बस अब दो दिन बचा है। इस बार जब किताबों का अवलोकन कर रहा था तो पिछले साल पुस्तक मेले के दौरान लिखी कविता बरबस याद हो आई। अपनी इस कविता के साथ आपको भी हिस्सेदार बना रहा हूँ।
पुस्तक मेले मे
ज्ञान के इस संसार में
बहुत बौना
पढ लें चाहे जितना भी
वह होता है थोड़ा ही
कैसा है यह समुद्र ?
पार करना तो दूर
एक अंजुरी पानी भी
नहीं पी पाया अब तक
रह गया प्यासा का प्यासा
कुछ.कुछ ऐसा ही अहसास था
कहीं गहरे अंतर्मन में
घूमती मेरी इंद्रियां थीं
शब्द संवेदनाओं के तंतुओं को जोडती़
इधर ज्ञान
उधर विज्ञान
बच्चों के लिए अलग
बड़े.बड़े हरफों में
कुछ कार्टून पुस्तकें
कुछ सचित्र
ऐसी भी सामग्री
जो रोमांच से भर दे
मेरे साथ थी पत्नी
बेटा भी
किसी स्टॉल पर मैं अटकता
तो बेटा छिटक जाता
अपनी मन पसन्द की पुस्तकें खोजता
सी डी तलाशता
पत्नी खो जाती प्रेमचंद या शरतचंद में
तभी इस्मत चुगताई अपनेपन से झिझोड़ोती
दूर से देखती मन्नू और मैत्रेयी
बाट जोहती
दर्द बांटती तस्लीमा थी
कहती जोर जोर से
औरतों के लिए कोई देश नहीं होता
कौन गहरा है
दर्द का सागर
या शब्दों का सागर ?
कौशल किशोर,जन संस्कृति मंच,लखनऊ के संयोजक हैं.लखनऊ-कवि,लेखक के होने साथ ही जाने माने संस्कर्तिकर्मी हैं.
एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 08400208031, 09807519227
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