![]() |
HB 200.00 |
इस कृति को लेकर कवि राजेश जोशी क्या बयानी करते हैं.
![]() |
राजेश जोशी जी |
वसंत सकरगाए का यह पहला कविता संग्रह है। पहले कविता संग्रह की तरह इसमें संशय भी है और उत्साह भी। बहुत कुछ कह डालने का उतावलापन भी है और बहुत कुछ कहने से अपने को रोक लेने का संकोच भी। एक नए कवि के पहले कविता संग्रह को पाठक हमेशा इस उम्मीद के साथ खोलता है कि वहाँ कहन का एक ताज़ा टटकापन ज़रूर होगा। अनुभवों में ताज़गी होगी। कुछ अक्सर अलक्षित रह जाने वाले हमारे आस-पास के दृश्य होंगे। जीवन की आपाधापी में ओझल हो गयी जीवन की नई सच्चाइयां होंगी। शिल्प में एक नई सी चमक होगी और भाषा में कुछ ऐसे शब्द होंगे जो हमारी भाषा का विस्तार करते हों। कहना न होगा कि वसंत सकरगाए की इन कविताओं में हमारे जीवन के अनेक चिरपरिचित दृश्यों, घटनाओं और अनुभवों में कुछ अदेखा रह जाने वाला, अक्सर अनकहा रह जाने वाला या कहें कि देखने-सुनने और कहे जाने से छूट जाने वाला कुछ है, जिसकी तरफ ये कविताएँ इंगित करना चाहती हैं। ये कविताएँ हमारे अनुभव में कुछ जोड़ती हैं। ये देखने में कुछ अलग से देखने को प्रस्तावित करती हैं। कई बार अचंभित करती हैं कि इस तरह तो हमने सोचा ही नहीं था। नर्मदा की पट्टी के अनेक शब्द और लोकानुभव की अनुगूँजें इन कविताओं में देखी सुनी जा सकती हैं।
वसंत का अनुभव संसार फकत मध्यवर्ग तक सीमित नहीं है। उसकी कविताओं में जीवन के अनेक संस्तर प्रकट होते हैं। उसमें हमारे जीवन के अँधेरे कोने-कुचाले हैं तो उसके धुले-उजले कोने भी हैं। जीवन की विद्रूपताएँ और विडम्बनाएँ हैं तो सुंदरता और विस्मित करने वाली आकस्मिकताएँ भी हैं। इन कविताओं में विषयों की विविधता का एक बहुरंगी लैण्डस्केप है। यह एक ऐसी कविता है जो हमारी विपुल और बहुरंगी सामाजिकता के अनेक पहलुओं को छूती है, टटोलती है और उनके ढके-छिपे रहस्यों को खोलती है। इन कविताओं की राजनीतिक दृष्टि उसकी सामाजिकता में ही विन्यस्त है। कहा जा सकता है कि उसकी सामाजिकता और उसकी राजनीति को एक-दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है। उसके अन्तस में कहीं बहुत गहरे में अपनी पुरानी संस्कारबद्ध नैतिकताओं के आग्रह मौजूद हैं लेकिन वह इन नैतिकताओं पर भी सवाल उठाती हैं, उनसे जूझती हंै और टकराती हंै। मुठभेड़ करती हैं। वह पुरानी नैतिकताओं के सहज स्वीकार की कविता नहीं है। उसमें सही को स्वीकार करने का विवेक है और अस्वीकार करने का साहस भी।
वसंत की ये कविताएँ वस्तुत: समाज की परिधि पर खड़े उस आखिरी आदमी के पक्ष में बोलने वाली कविताएँ हैं जो अपनी फटी हुई चड्डी को अपनी हथेलियों से ढाँपने की कोशिश कर रहा है। जिसके लिये भाषा नया धागा कातने को आमादा है और जिसके लिये कविता सूखी घास में सुई को ढूँढ रही है। वस्तुत: ये कविताएँ आकाश में नक्षत्र की तरह चमकने या टूटने की चाहत की कविताएँ नहीं हंै ये तो अपनी ही ज़मीन पर जुड़कर टूटने और टूट कर फिर जुडऩे की इच्छा से भरी कविताएँ हैं।
02 फरवरी ( वसंत पंचमी) 1960 को मध्यप्रदेश के निमाड जनपद की तहसील हरसूद में (जो अब जलमग्न हो चुका) जन्म। कविता के संस्कार अपनी जन्मभूमि से और परिष्कार सांस्कृतिक राजधानी तथा कर्मभूमि भोपाल में। साहित्य और पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय। वसुधा, साक्षात्कार, आकंठ, कला, समय, रंग, संवाद, वर्तमान साहित्य, कथन, कथादेश, अलाव आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। आकाशवाणी तथा कई साहित्य-प्रसंगों में शिरकत। सांस्कृतिक यात्राएं और रचनात्मक सक्रियता के लिए पुरस्कृत।

कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें