"सुनो कवि! भावनाएँ नहीं है सोती
भावनाएँ खाद हैं केवल
जरा उनको दबा रखो
जरा सा और पकने दो
ताने और तचने दो।" (अज्ञेय; हरी घास पर क्षण भर)
यह सर्वविदित तथ्य है कि भाषा
संप्रेषण का सशक्त साधन है और सामाजिक धरोहर भी। भाषा ही वह चीज है जो
मनुष्य को जैविक जंतु से समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित
करती है। भाषा के संबंध में अज्ञेय की मान्यता है कि "मानवीय संस्कृति की
सबसे मूल्यवान उपलब्धि भाषा है और भाषा ही समाज जीवन का - मध्यवर्ती जीवन
का सबसे अधिक मूल्यवान उपकरण है। भाषा संपन्न मानव जीवन ही ‘मानवीय
मध्यवर्ती’ होता है। भाषा के आविष्कार में मानवीय अस्मिता का आविष्कार
होता है : उसकी सृष्टि होती है।" (अज्ञेय; सर्जना और संदर्भ; पृ.342)।
इतना ही नहीं उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि "‘मैं’ की पहचान भाषा के
साथ बँधी हुई है, तो स्वाभाविक है कि यथार्थ की पहचान भी भाषा के साथ बँधी
हुई है।" (अज्ञेय; आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.22)।
यहाँ अज्ञेय के भाषा चिंतन के
आलोक में उनकी काव्य भाषा पर दृष्टि केंद्रि करने का प्रयास किया जा रहा
है। आज के समय में कविता के परंपरागत लक्षण - जैसे तुक, लय, छंद और अलंकार
आदि धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे हैं, तो ऐसी स्थिति में कविता को समझने
के लिए काव्यभाषा ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण आधार बन जाती है। इतना ही नहीं
काव्यभाषा का विश्लेषण सिर्फ व्याकरणिक या सौंदर्यात्मक दृष्टि से करना
काफ़ी नहीं होगा, निश्चय ही इसके लिए दूसरी दृष्टि अपेक्षित है - पाठ
विश्लेषण की।
उल्लेखनीय है कि मानव जीवन में
सामान्य रूप से भाषा का प्रयोग कई स्तरों पर होता है। कुछ विद्वानों के
अनुसार बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में काफी अंतर है। पर ध्यान देने
की बात है कि बोलचाल की भाषा जीवंत है और किसी भी देश की साहित्यिक भाषा
में वहाँ के जन समुदाय की भाषा प्रायः पाई जाती है। यह इसलिए संभव है चूँकि
साहित्यकार अपने परिवेश से ही शब्दों का चयन करता है। इस दृष्टि से यह
कहा जा सकता है कि "साहित्यिक भाषा मूलतः बोलचाल की ही भाषा है जो विभिन्न
रचनाकारों की सृजन प्रक्रिया में समाहित होकार परिवर्तित होता है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; ‘काव्यभाषा का स्वरूप’; काव्य भाषा पर तीन निबंध; पृ.81)।
अज्ञेय के व्यक्तित्व में भारतीय
लोक जीवन और पश्चिम के बौद्धिक आभिजात्य का विलक्षण संतुलन है। उनकी
संवेदना का मूल स्रोत भारतीय जन जीवन में है। उनको यह पीड़ा सालती रही कि
उन्हें बोलीगत मुहावरे को आत्मसात करने का अवसर नहीं मिला अतः वे कहते हैं
कि "मुझे सभी कुछ मिला पर सब बेपेंदी का। शिक्षा मिली, पर उसकी नींव भाषा
नहीं मिली; आजादी मिली लेकिन उसकी नींव आत्मगौरव नहीं मिला; राष्ट्रीयता
मिली लेकिन उसकी नींव ऐतिहासिक पहचान नहीं मिली।" (अज्ञेय; अद्यतन; पृ.83)।
वे यह भी कहते हैं कि "एक तरह से मेरी भाषा में सीमा और विशेषता भी आप
पहचान सकते हैं। आरंभ से मेरी शिक्षा हिंदी में हुई - उस हिंदी में जिसका
मैं इस समय उपयोग कर रहा हूँ; जिसमें पुस्तकें लिखी जाती हैं।" (अज्ञेय; आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.19)।
इसके बावजूद अज्ञेय की काव्य भाषा पर दृष्टि केंद्रित करें तो यह स्पष्ट
होता है कि उनकी कविताओं में लोक भाषा की धरोहर समाहित है -
"मेरा भाव - यंत्र?
एक मचिया है सूखी घास - फूस की
उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान -
साध्य नहीं मुझ से, किसी से चाहे सधा हो।"
‘भाव - यंत्र’ के लिए अज्ञेय ने
‘सूखी घास - फूस की मचिया’ का बिंबात्मक प्रयोग किया है। यह उनकी काव्य
संवेदना के लोक उत्स की देन है।
यह संकेत किया जा चुका है कि
वस्तुतः काव्य भाषा का आधार बोलचाल की ही भाषा है। अज्ञेय की काव्य भाषा के
बारे में स्पष्ट करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि "अज्ञेय की
कविता की भाषा में ‘नॉन यू’ तत्व (निम्नवर्गीय जीवन से लिया गया शब्द समूह)
प्रधान रहा है। प्रतीकों, बिंबों, अभिप्रायों के चयन और सामान्य शब्द
प्रयोगों में उनकी दृष्टि अधिकतर लोक जीवन की ओर उन्मुख दीख पड़ते है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; काव्य भाषा का स्वरूप; काव्य भाषा पर तीन निबंध; पृ.83)। उदाहरण के लिए ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में ठाठ फ़की़री, घुड़का, झौंसी, कुलबुलाती, डाँगर जैसे प्रयोग देखे जा सकते हैं -
"अच्छी कुंठा रहित इकाई
साँचे - ढले समाज से
अच्छा
अपना ठाठ फ़की़री
मँगनी के सुख - साज से।" (अच्छा खंडित सत्य)
अज्ञेय की कविताओं में लोक कथाओं, लोक गीतों और मुहावरों का प्रभाव भी दिखाई देता है। जैसे -
"बाँगर में
राजाजी का बाग है
चारों ओर दीवार है,
बीच बाग में कुआँ है
बहुत बहुत गहरा।"
दबे पाँव आना, मुँह चिढ़ाना, झींकते रहना, गाल बजाना, आकाश फाड़ना जैसे मुहावरों का प्रयोग भी अज्ञेय की कविताओं में सम्मिलित हैं -
"फूल खिलते रहे चुपचाप
मँजरी आई
दबे पाँव सकुचाती,
तड़फड़ाते रहे, करते रोर
मुँह चिढ़ाते रहे वन की शांति को
अविराम अनगिन झींकते झींगुर
भिखारी सब
बजाते गाल बगलें
फाड़ते आकाश"
इसी तरह एक और उदाहरण देखें -
"सुनी सी साँझ एक
दबे पाँव मेरे कमरे में आई थी
मुझको भी वहाँ देख
थोड़ा सकुचाई थी।"
अज्ञेय की काव्य भाषा पर विचार
करते हुए रामदरश मिश्र ने कहा है कि "अज्ञेय की भाषा के कई रूप हैं। एक रूप
वह है जो जीवन की अनुभूतियों की सहजता के कारण सहज है, लोक शब्दों, लोक
प्रतीकों से युक्त है तथा सहज प्रवाहमय है। दूसरा रूप वह है जो असहज
प्रलंबित वाक्यों और विशेषण मालाओं से गुँफित तथा क्लिष्ट पदों से बोझिल
है।" (डॉ.मदन गुलाटी; अज्ञेय की काव्य चेतना और सर्जना के क्षण; पृ.51)। तत्सम शब्दों की माला के बीच बोलीगत प्रयोगों को बिठाकर भी अज्ञेय अनेक स्थलों पर भाषिक चमत्कार उत्पन्न करते हैं -
"तेरे दोलन की लोरी पर झूँमूँ मैं तन्मय -
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रांति पायँ।" (असाध्य वीणा)
किसी भी बात को, या विचार को
अभिव्यक्त करने के लिए उचित शब्दों का चयन करना आवश्यक है। अज्ञेय यह
मानते हैं कि कविता शब्दों में होती है और विचार भाषा में होता है। अतः वे
कहते हैं कि "मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है। ...
भाषा का मैं उपयोग करता हूँ। उपयोग करता हूँ लेखक के नाते, कवि के नाते और
एक साधारण सामाजिक मानव प्राणी के नाते, दूसरे सामाजिक मानव प्राणियों से
साधारण व्यवहार के लिए। इस प्रकार एक लेखक के नाते मैं कला सृजन के
माध्यमों में सबसे अधिक वेध्य माध्यम का उपयोग करता हूँ - ऐसे माध्यम का
जिसको निरंतर दूषित और संस्कारच्युत किया जाता रहता है। अथच उसका उपयोग मैं
ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि वह नए प्राणों से दीप्त हो उठे।" (अज्ञेय; आल-वाल’ पृ.10-11)।
इसीलिए वे अपनी अनुभूति को सामाजिक उपमानों के द्वारा व्यक्त करते हैं।
उन्होंने जीवन की नश्वरता, निस्सारता और क्षणभंगुरता को अभिव्यक्त करने
के लिए ‘काँच के प्याले’ का प्रयोग किया है -
"जीवन!
वह जगमग
एक काँच का प्याला था
जिसमें यह भरमाये हमने
भर रक्खा
तीखा भभके खिंचा उजाला था
कौंध उसी की से
तू फूट गया।"
यह उल्लेखनीय है कि काव्य भाषा का
केंद्रीय तत्व बिंब विधान है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार "कविता की
भाषा का केंद्रीय तत्व भावचित्रों अथवा बिंबों का विधान है। कवि परंपरा में
स्वीकृत भावचित्रों का प्रयोग अधिक नहीं करता; आवश्कता पड़ने पर सामान्य
से सामान्य शब्द को एक विशिष्ट अर्थ देता है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; काव्य भाषा का स्वरूप; काव्य भाषा पर तीन निबंध; पृ.85)|
अगर यह कहा जाए कि अज्ञेय के काव्य में नवगठित बिंबों का व्यापक प्रयोग है
तो यह अनुचित नहीं होगा। ‘औद्योगिक बस्ती’ शीर्षक कविता का एक अंश इस
संदर्भ में द्रष्टव्य है -
"बंधी लीक पर रेलें लादे माल
चिंहुकती और रँभाती अफराए डाँगर-सी
ठिलती चलती जाती हैं।
उद्यम की कड़ी-कड़ी में बंधते जाते मुक्तिकाम
मानव की आशाएँ ही पल-पल
उसको छ्लती
जाती हैं।" (औद्योगिक बस्ती)
यहाँ अज्ञेय ने लदी मालगाड़ी के
चित्र को ‘चिंहुकती और रँभाती अफराए डाँगर-सी ठिलती चलती’ के माध्यम से
बिंबित किया है। इससे यह चित्र स्पष्ट नज़र आता है कि ठेठ देहाती इलाके
में औद्योगिक बस्ती बसी हुई है। इतना ही नहीं, लदी मालगाड़ी के लिए ‘अफराए
डाँगर’ का जो दृश्य बिंब प्रयुक्त हुआ है इससे चित्र और भी स्पष्ट
होता है।
अज्ञेय की कविताओं में निजी
अनुभूतियाँ मुखरित हैं। अज्ञेय का अपने परिवेश से इतना ऐक्य है कि उनकी
कविताओं में वह अनायास ही झाँकता रहता है, आँख मिचौनी खेलता रहता है।
परिवेश की महत्ता को स्पष्ट करते हुए अज्ञेय ने स्वयं लिखा है कि "आज का
लेखक इस प्रकार अपने परिवेश से दबा है - जो कि वह स्वयं है और जितना ही
अच्छा लेखक है, उतना ही अधिक वह अपना परिवेश है।" (अज्ञेय; आल-वाल; पृ.21)। इस संदर्भ में अज्ञेय की कविता ‘बसंत गीत’ का एक अंश देखें -
"सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली
नीम के भी बौर में मिठास देख
हँस उठी है कचनार की कली!
टेसुओं की आरती सजा के
बन गई वधू वनस्थली।" (बसंत गीत)
अज्ञेय जैसे संवेदनशील कवि के लिए
मौन भी अभिव्यंजना का माध्यम है। उनकी मान्यता है कि मौन के द्वारा भी
संप्रेषण संभव है और काव्य रचना के लिए ढेर सारे शब्दों की जरूरत नहीं
होती। इसीलिए वे कहते हैं -
"मौन भी अभिव्यंजना है :
जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो।" (जितना तुम्हारा सच है)
इस संबंध में वे यह भी कहते हैं
कि "किसी भी समय की कविता को समझने के लिए - यह अत्यंत आवश्क है कि हम
जानें कि काव्य ‘अभिव्यक्ति’ से भी अधिक ‘संप्रेषण’ है, और संप्रेषण की
स्थितियों के संदर्भ में ही यह पड़ताल करें कि कविता क्या है। संप्रेषण की
स्थितियों को समझे बिना काव्य का मूल्यांकन तो दूर, सही अर्थ-ग्रहण भी
नहीं हो सकता - उसका कथ्य भी ठीक-ठीक नहीं पहचाना जा सकता।" (अज्ञेय; सर्जना के क्षण; भूमिका; कवि दृष्टि; पृ.11)। अज्ञेय की कविता ‘भोर’ को ही देख लें -
"भोर!
तुम!
आओ!
जीवन है।
आशी!" (भोर)
यह अपने आप में पूरी कविता है। इसमें भोर से संबंधित सारे उल्लास को अज्ञेय ने अन्-अभिव्यक्त छोड़ दिया है।
अज्ञेय की मान्यता है कि प्रत्येक
शब्द के अपने वाच्यार्थ के अतिरिक्त अलग अलग लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ
होते हैं जो संदर्भ सापेक्ष हुआ करते हैं। वे कहते हैं कि "शब्द अपने आप
में संपूर्ण या आत्यंतिक नहीं है; किसी शब्द का कोई स्वयंभूत अर्थ नहीं है।
अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है जिसमें अर्थ की प्रतीपत्ति की गई है।" (अज्ञेय; नई कविता : प्रयोग के आयाम; तीसरा सप्तक की भूमिका; कवि दृष्टि; पृ.83)। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘साँप’ के अंश का उदाहरण देखें -
"साँप
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगरों में बसना
भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछँ - उत्तर दोगे?
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ पाया?" (साँप)
यहाँ कवि ने नागरिक सभ्यता की
कृत्रिमता पर असंतोष व्यक्त किया है। इतना ही नहीं उनकी काव्य पंक्तियों
में सूक्तियाँ भी दृष्टिगत होती हैं -
"दुःख सबको माँजता है
और
चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने, किंतु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्त रखें।"
"किंतु हम हैं द्वीप। हम धरा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के ।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लावन होगा। ढहेंगे। सहेंगे बह जाएँगे।" (नदी के द्वीप)
स्मरीणय है कि अज्ञेय शब्द शिल्पी के साथ साथ रंगों और सौंदर्य के कवि भी हैं। उनकी कविताओं में विविध रंग छटाओं का समावेश है -
"भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल कनियाँ" (बावरा अहेरी)
"बिछली घास हो तुम
या शरद के साँझ के सूने गगन की पीठिका पर
दोलती कलगी अकेली
बाजरे की"
"साँझ हुई, सब ओर निशा ने फैलाया निज चीर
नभ से अंजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर"
"धूप
माँ की हँसी के प्रतिबिंब सी शिशु बदन पर
हुईं भासित"
"लाल
अंगारों से डह - डह इस
पंचमुख गुड़हल के फूल को
बाँधते रहे नीरव -" (पंचमुख गुड़हल)
अज्ञेय ने इलियट की भँति भाषा और
संवेदना के बदलाव को ही मुख्य रूप से कवि कर्म माना है। उन्होंने नए
उपमानों, बिंबों, प्रतीकों और भाषा के प्रयोग को अभिव्यक्ति के माध्यमों
के रूप में ही स्वीकार किया है। उनका मत है कि -
"ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों से कर गए कूच
कभी बासन अधिक घिसने से
मुलम्मा छूट जाता है।"
इसके अतिरिक्त उनकी काव्यभाषा
में ध्वन्यात्मकता का प्रयोग भी दृष्ट्व्य है। वे अर्थ की सघनता बढ़ाने
के लिए ध्वनियों का सटीक प्रयोग करते हैं। जैसे -
"चट - चट - चट कर सहसा तड़क गए हिमखंड
जमे सरसी के तल पर
लुढ़क - पुढ़क कर स्थिर...।"
"झींगुरों की लोरिया
सुला गई थी गाँव को
झोंपड़े हिंडौल - सी झुला रही है
धीमे धीमे
उजली न्यासी धूम डोरियाँ"
"चातक तापस तरु पर बैठ।
स्वाति बूँद में ध्यान रमाए,
स्वप्न तृप्ति का देखा करता
‘पी! पी! पी!’ की टेर लगाए;" (आज थका हिय हारिल मेरा)
अज्ञेय कविता में अर्थ की सघनता
के लिए शब्दों को और कभी कभी पंक्तियों को भी अलग अल्ग करके रखते हैं।
उनकी प्रसिद्ध कविता ‘जीवन मर्म’ का उदाहरण देखें -
"झ
र
ना
झरता पत्ता
हरी डाल से
अटक गया।"
अज्ञेय का कव्य सत्य उनकी भाषा की
बनावट और बुनावट पर चलता है। वे भाषा को परंपरा, संस्कृति और यथार्थ को
पहचानने का माध्यम स्वीकार करते हैं। उनकी कविता का क्षितिज अत्यंत व्याप्क
है। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है कि "काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत
में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है। सारे कवि-कर्म इसी परिभाषा से
निःसृत होते हैं। शब्द का ज्ञान - ज्ञान के अर्थवत्ता की सही पकड़ - ही
कृतिकार को कृति बनाती है। ध्वनि, लय, छंद आदि के सभी प्रश्न इसी में से
निकलते और इसी में विलय होते हैं।" (अज्ञेय; तार सप्तक; पुनश्च; पृ.301)।
अज्ञेय के पास शब्द और अर्थवत्ता की सही पकड़ है। जिस प्रकार चित्रकार
सीधी - तिरछी लकीरों के माध्यम से चित्र बनाता है उसी प्रकार वे थोड़े से
शब्दों और ध्वनियों से भी वांछित बिंब गढ़ लेते हैं, भाव चित्र बना लेते
हैं -
"मैं ने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर की झाग से -
रंगी गई क्षण - भर
ढलते सूरज की आग से।
- मुझको दीख गया :
हर आलोक - छुआ अपनापन
हे उन्मोचन
नश्वरता के दाग से।" (मैं ने देखा, एक बूँद)
"जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएँगे
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएँगे।"
अज्ञेय शब्दों के सफल चितेरे हैं।
मितकथन उनका अपना भी स्वभाव है और उनकी काव्य भाषा का भी। जैसा कि
रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है, "अज्ञेय की कविता की भाषा सहज, लोक प्रचलित
तथा परंपरागत शिल्प प्रविधि से विहीन है। और भाषा के इस क्रांतिकारी
प्रयोग से उन्होंने कविता को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; ‘काव्य भाषा का स्वरूप’; कावय भाषा पर तीन निबंध; पृ.85)।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि
अज्ञेय ऐसे भाषा चिंतक और भाषा सृजक के कवि हैं जिन्होंने इस स्थिति की ओर
संकेत किया है कि अच्छी भाषा लिखना अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धी है और
कविता की प्रमुख विशेषता उसकी भाषा प्रयोग विधि है। इसके लिए वे भाषा के
पार भी जाने को तत्पर दिखाई पड़ते हैं -
"मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन - सा, वन - सा अपने में बंद हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।" (छंद)
अंततः पंडित विद्यानिवास मिश्र
के शब्द में "अज्ञेय की कविता मुझे इसलिए प्रिय है कि वह जहाँ वक्तृता के
प्रभाव से या सफ़ाई के आग्रह से मुक्त है, शुद्ध कविता है। युग उसमें है,
पर व्यक्ति के माध्यम से; देश उसमें है, पर किसी आलोकित आकाश के माध्यम
से। दर्प उसमें है, ध्वंस या निर्माण का नहीं , अपनी किरण के दुलार का।
बिंबों का वैचित्र्य भी ऐसा है जो अपरिचित न होते हुए भी नए परिचय का रस
देता है, वही दीप, वही मुकुर, वही कोकनद, वही सागर, वही लहर, वही नैवेद्य,
वही आहुति अज्ञेय की कविता में नया प्राण पा जाते हैं।" (विद्यानिवास मिश्र; आज के लोकप्रिय हिंदी कवि -10; अज्ञेय; पृ.44)|
