जैसे जैसे लोग इस
पृथ्वी पर
फैलते गए
उसी प्रकार
पृथ्वी के
साथ मानव
के संबंधों की बहुत
परिष्कृत व्यवस्था
बनती गयी.
विख्यात मानवजाति
विज्ञानी लेविन और चेबोक्सारोव के सुझाव अनुसार
इन व्यवस्थाओं
को जीवन-यापन या जीवन निर्वाह की
संस्कृति कहना
चाहिए. इसकी
परिभाषा उन्होंने
इस प्रकार दी है, “किसी ठोस प्राकृतिक
परस्थितियों में बसे जनगण के
सामाजिक-आर्थिक
विकास के निश्चित स्तर
पर उनके
जीवन निर्वाह
और संस्कृति
की जो
विशेषताएँ उस जनगण के लिए
लाक्षणिक होती
हैं, उन
विशेषताओं को ऐतिहासिक तौर पर अस्तित्व में आई
समग्रता के
जीवन-निर्वाह
की संस्कृति-प्रारूप कहा
जाता है. निश्चित भूगोलिक
परस्थितियों से जुड़े जीवन-यापन
सांस्कृतिक प्रारूपों की धारणा विज्ञान
के लिए
बहुत लाभप्रद
सिद्ध हुई
हैं. इसके
परिणामस्वरूप जनगण की संस्कृति
में समानताओं
और विभिन्नताओं
के अनेक
प्रश्नों के उत्तरों की खोज
संभव हुई.हैं.”
लेविन और चेबोक्सारोव इसी बात पर
जोर देते
हैं. उन्होंने
अपने प्रस्तावित रूपों को
मात्र जीवन-यापन प्रारूप
ही नहीं
बल्कि सांस्कृतिक जीवन-यापन प्रारूप
कहा है.
ऐसा कहना
अकारण नहीं
है. बात
यह है
कि जीवन-यापन संबंधी
कार्यकलापों की दिशा और भूगोलिक
परिवेश बहुत
हद तक
जनगण की भौतिक संस्कृति
की विशेषता
– पद्धतियों और आवासों के प्रारूप,
परिवहन साधन, भोजन और
गृह-गृहस्ती
का सामान,
वेशभूषा आदि
निर्धारित करते हैं. नवजाति विज्ञानिकों ने
विश्व में
कई दर्जन
जीवन-यापन
सांस्कृतिक प्रारूपों की गणना
की है.
इनकी सही
सही गिनती
बताना कठिन
है क्योंकि अलग-अलग विज्ञानी
अपने सिद्धांतों
के लिए
अलग-अलग
वर्गीकरण का
वैज्ञानिक आधार तैयार करते
हैं. इसलिए
भिन्न-भिन्न
प्रकार के
आंकडों की
प्रस्तुति होती है. लोग
कहाँ-कहाँ
नहीं रहते
? उत्तरी ध्रुव
प्रदेश में
और उष्ण कटिबद्ध में, तिब्बत
के पर्वतों
में और
एशिया , ऑस्ट्रेलिया
और अफ्रीका के रेगिस्तानों में!
संसार के
कोने-कोने
में लोग
बसे हुए
हैं. कडाके
की ठण्ड और झुलसा
देने वाली
गर्मी में
भी! खतरनाक
हिंसक जानवरों
के बावजूद वे हर जगह
रहने में
सफल हुए
हैं क्योंकि
वे वहां
की भूगोलिक
परस्थितियों के अनुरूप संस्कृति
या दूसरी
प्रकृति का
निर्माण करने
में सफल
हुए हैं.
एस्किमो लोगों के जीवन
को लें.
उनका जीवन
कितना
कठिन हैं. वहां ऐसा कुछ नहीं है कि
वहां बहुत
ज्यादा वनस्पति
हो या
उनके लिए
बहुत ज्यादा
वृक्षों या खाने-पीने
का चुनाव
करने की
सहूलियत हो.
उनका प्राकृतिक
क्षेत्र अनेक महीनों की सर्दी
और कई
महीने लंबी
रात – छः
महीनों की
रात और
कहीं-कहीं तो आठ से
दस महीनों
की भी
रात है.
चारों तरफ
बर्फ ही
बर्फ ! निसंदेह कनाडा के प्रसिद्ध नवजाति
विज्ञानी और
अनुसंधानकर्त्ता फारली मोइक का यह कहना दरुस्त है
कि उत्तरी
ध्रुव प्रदेश
बर्फ द्वारा
जमीं हुई
नदियों और हिमकवच से जकड़ी
हुई झीलों
का ही
नहीं बल्कि
सजीव नदियों
का भी
जगत है जहाँ गर्मियों में
नीला गगन
झांकता है,
जहाँ तटों
पर फूलों
का कालीन बिछता है और
जहाँ पर
हरी-भरी
विशाल चरागाहें
भी हैं.
उत्तर ध्रुव
प्रदेश एक विशाल भूखंड
है जहाँ
जबरदस्त गर्मी
भी होती
और भयानक
ठण्ड भी.
यहाँलोग शिकारी और
मछली पकड़ने
वाले बनकर
ही अपने
अस्तित्व को
बनाये रख
सकते थे.
उपरोक्त जानकारी
हासिल करने से हमारा
आशय क्या
है? हमें
बताया जाता
है कि मूलरूप से
हम शाकाहारी
हैं. हमें
फलां खुराक
खाने और
फलां खुराक
न खाने के सुझाव
दिए जाते
हैं. हमें
बताया जाता
है कि
फलां खुराक
ही हमारे लिए परमात्मा द्वारा
निर्धारित की गयी है. लेकिन
ऐसा कुछ
नहीं है.
जब तक मनुष्य स्वयं उत्पादन
की क्रिया
में शामिल
नहीं
हुआ तब तक उसे अपनी खुराक के लिए
उस इलाके
की परस्थितियों
और उपलब्धता
पर निर्भर
रहना पड़ता था.
उत्तरी ध्रुव के मूल
निवासी तरह-तरह के
मकान बनाते
थे. कुछ
जनजातियाँ उत्तरी अमेरिका के
तटों पर
तहखाने रुपी
मकान बनाते
थे. जमीन
में गढा खोदकर पत्थर की
दीवारें खड़ी
की जाती
थीं जो
जमीन से
थोडी ऊपर
की ओर
उभरी होती थीं. इन्हें
छत से
ढांप दिया
जाता था.
मकान के
अन्दर पहुँचने
के लिए गहरी सुरंगों से
होते हुए
जाया जा
सकता था.
इन सुरंगों
की दीवारें
भी पत्थरों की बनी
होती थीं
जिनके ऊपर
भी पत्थरों
के छत
होती थीं.
अलास्का में इस प्रकार
के मकानों
में पत्थर
के स्थान
पर लकड़ी
के तख्ते
इस्तेमाल किये जाते थे.
बहुत ही
संकरी सुरंग
द्वारा इसके
अंदर प्रवेश
किया जा
सकता था. ऐसा दुश्मनों
और जंगली
जानवरों से
बचाव हेतू
किया जाता
था. लेकिन
अगर न पत्थर हो
और न
ही लकड़ी,
तब क्या
किया जाये?
इस स्थिति
में लोग
मकान बनाने हेतू बर्फ
का प्रयोग
करते थे.
आज भी
ग्रीनलैंड के मैदानों में एस्किमों लोग अपने
प्रसिद्ध मकान
इग्लू बनाने
के लिए
बर्फ का
प्रयोग करते हैं. एस्किमों राज-मिस्त्रियों की
मुहारत हैरानकुन
है. बर्फ
की सीलियों को काटकर इस प्रकार
रखा जाता
है कि
एक गोल
गुबंद खडा
हो जाता
है. इन बर्फ की दीवारों
को मजबूत
करने के
लिए इस
गुबंद के
अन्दर एक
दिया जो
सील मछली की चर्बी
से जल
रहा होता
है, ले
जाया जाता
है. इसकी
गर्मी से
बर्फ की दीवारों की
अन्दर की
ओर की
कुछ बर्फ
पिघल जाती
है और
दीवारों से थोडा-थोडा पानी
सरकाना शुरू
हो जाता
है. इसके
बाद ठंडी
हवा को
अन्दर प्रवेश करने दिया
जाता है
जिससे यह
पानी जम
जाता है
और सीलियाँ
आपस में मजबूती से जुड़
जाती हैं
और इनके
बीच का
खालीपन ख़त्म
हो जाता
है. इसके पश्चात कुछ ही
घंटों और
दिनों में
इग्लू की
दीवारें बहुत
मजबूत हो
जाती हैं क्योंकि इनपर
बर्फ का
जमना जारी
रहता है.
इग्लू में
प्रवेश करने
का ढंग बहुत अजीब
है. यह
अकेला ऐसा
मकान है
जिसमें बर्फ
की ही
बनी हुई
लम्बी सुरंग द्वारा फर्श
से (दीवार
में दरवाजा
नहीं रखा
जाता) प्रवेश
किया जाता है.
संसार के दूसरे मकानों
के मुकाबले
इग्लू
को आरामदायक कतई नहीं कहा जा सकता. इसकी ऊंचाई
लगभग दो
मीटर और
व्यास तीन-चार मीटर
होता है.
इस थोडी सी जगह में
भी दो
परिवार रहते
हैं. अगर
चाहें तो
इग्लू को
बड़ा भी
बनाया जा सकता है.
अपनी सभाए
आयोजित करने
के लिए
एस्किमों लोग
बारह-बारह
मीटर व्यास के इग्लू
भी बनाते
हैं. वहां
मकान सामग्री
बर्फ है
जिसकी कोई
कमीं नहीं है. लेकिन
समस्या यह
है कि
मकान को
गरमाने के
लिए सील
की चर्बी
के दीये और मानवी
शरीर से
निकलने वाली
गर्मी की
आवश्यकता होती
है. इसलिए स्वाभाविक है कि
मकान जितना
छोटा होगा
उतना गर्म
भी आसानी
से होगा.
इसमें गर्मी में भी
रहा जा
सकता है.
यह सर्दी
से ही
नहीं गर्मी
से भी
बचाव करता है. वैसे तो
उत्तरी ध्रुव
प्रदेश में
गर्मी की
ऋतु बहुत
छोटी होती
है और गर्मीं की इस
ऋतू में
भी वहां
कोई विशेष
गर्मीं नहीं
होती. गर्मियों
में इग्लू में प्रवेश
करने के
लिए फर्श
के साथ
दीवार में
सुराख़ किया
जाता है. बर्फ की
दीवारें रोशनी
को अन्दर
जाने देती
हैं. इसमें
खिड़कियाँ भी रखी जा सकती
हैं. दीवारों
में सुराख़
किया जाता
है और
बर्फ की
पतली और पारदर्शक पर्त लगा
दी जाती
है. आमतौर
पर ऐसा
किया भी
जाता है.
ऐसा लगता है कि यूरोप
के मकानों
की बनवाट
के बारे
में जानकारी
होने के
पश्चात एस्किमों लोगों ने
इस प्रकार
की खिड़कियाँ
लगाने के
प्रयोग करने
शुरू कर
दिए थे. पहले
ऐसा नहीं
था.
सदियों पहले इग्लू
किस प्रकार
के रहे होंगे,
यह कोई
भी नहीं
बता सकता. इन मकानों की
आयु ज्यादा
लंबी नहीं
होती. इसलिए
इन मकानों
की खोज पुरातत्वविदों को निराश
ही करती
है. हाँ,
हम इतना
जरूर जानते
हैं कि इग्लू में बसने
वाले लोगों
की सभ्यता
के तत्त्व
मौजूद हैं.
यहाँ खिड़कियों में समुद्री
जीवों की
पारदर्शक अंतड़ियों
का प्रयोग
किया जाता था. घर के
अन्दर चारों
तरफ समूर
वाले जानवरों
की खालें
टंगी होती
थीं. परंतु यहाँ भी
ग्रीनलैंड की भांति सारा फर्नीचर
बर्फ का
ही होता
था जो चमड़े और समूर
से ढंका
होता था.
सारा फर्नीचर
बर्फ के
बेंचों के
रूप में होता था जिनपर
लोग बैठते,
खाना खाते
और आराम
करते थे.
वैसे औजारों
और हथियारों के लिए
इग्लू की
काख में
बर्फ की
छोटी-छोटी
कोठियां भी
बनाई जाती थीं. जमीन में
गढा खोदकर
उसमें खाने-पीने की
वस्तुएं भी
रखी जाती थीं. बेरन जलडमरू
के मध्य
तटों पर
रहनेवाले एलउत
लोग व्हेल
मछली की पसलियों को जमीन
में गाड़कर
और उनपर
सुखी घास
बिछाकर घर
बनाते थे.
बाद में व्हेल मछलियों
की हड्डियों
के स्थान
पर समुद्र
में आनेवाले
वृक्षों के तनों का
प्रयोग होने
लगा. ये
मकान ग्रीनलैंड
के इग्लू
मकानों से
कहीं अधिक बड़े होते
थे. इन
मकानों का
क्षेत्रफल सौ वर्ग मीटर से
भी अधिक
हो सकता था. पर
बड़े मकानों
में लोग
और भी
अधिक तंगी
का शिकार
होते थे.
इस प्रकार के मकानों
में लगभग
पचास परिवार
अपने-अपने
रहने का
हिस्सा टाट द्वारा बाँट लेते
थे.
उपरोक्त सभी कौमें उस
जीवन-यापन
सांस्कृतिक प्रारूप का उदाहरण हैं जिसमे प्राकृतिक संपत्ति
को मात्र
हस्तगत किया
जाता है.
यहाँ कोई
उत्पादन नहीं किया जाता.
यह भी
उस उपकरण
की प्रतिनिधि
है जिसको
समुद्री जीवों
के उत्तर ध्रुवीय शिकारी
कहा जाता
है. एस्किमों,
तिप्ता, एलउत
आदि का
शिकार बहुत विभिन्नता लिए
हुए नहीं
है. व्हेल,
सील, वालरस,
सफ़ेद रींछ
आदि का
ही शिकार किया जाता
है. इनका
शिकार आसानी
से किया
जा सकता
है क्योंकि
एक या दो प्रकार के
जीवों के
शिकार के
लिए बहुत
अधिक मुहारत
की आवश्यकता
नहीं पड़ती. पत्थर, हड्डी,
व्हेल के
बालों और
समुद्र में
बहकर आनेवाली
लकड़ी से कई तरह के
औजार – लड़ाई
के और
गृह-गृहस्ती
में काम
आनेवाले
– बनाये जाते थे. लकड़ी के
ढांचे और
खालों को
तानकर बनायीं
गयी इनकी
नावें हलकी
फुलकी होती थीं. व्हेल
के शिकार
के लिए
एक प्रदेश
से दूसरे
प्रदेश जाने
के लिए बनी इन नोकाओं
में एक
सौ से
भी अधिक
व्यक्ति बैठ
सकते थे.
उत्तर ध्रुवीय
निवासी लोगों के वस्त्र गर्म
और आरामदायक
होते थे. अन्तरिक्ष में जानेवाले
लोगों के
वस्त्र इन्हीं
लोगों के
वस्त्रों की नक़ल अनुसार बने
हुए हैं.
यूरोपीय लोगों
का कोट
पैंट भी
किसी हद
तक इन लोगों के वस्त्रों
के आधार
पर बनाया
गया है.
उत्तर ध्रुवीय
प्रदेश और शीतोष्ण और उष्ण
कटिबद्ध प्रदेश
, जहाँ-जहाँ
पर लोगों
ने ख़ास
किस्म का शिकार अपना लिया
– फंदे, जाल,
धनुष और
बर्छिया बना
ली और
बंजारे
शिकारी और कंदमूल इकठ्ठा
करनेवालों के स्थान पर लम्बे
समय के
लिए रहने
के लिए बस्तियों का निर्माण
कर लिया
गया – वे
वहां के
स्थाई निवासी
बन गए
और उन्होंने औजारों और
आहार के
भण्डारण के
तरीकों को
खोज निकला.
दूसरे शब्दों में, जहाँ
हस्तगतकरण पर आधारित जीवन पद्धति
ने उत्तम
रूप धारण
कर लिया वहां बहुविधि-भौतिक-आत्मिक
संस्कृति का
निर्माण हुआ
और जटिल संरचनाएं प्रकट हो
गयीं.
कई धार्मिक लोग
कहते हैं
कि जिसे
चोंच मिली
है उसे
चुगा भी
मिलेगा, परमात्मा पत्थरों में
भी कीडों
को देता
है, उबलते
पानी में
भी जीव मिलेगा. जबकि सभ्यता
और सस्कृति
का इतिहास
इससे उल्ट
खून-पसीने
से लबरेज है. हमारे बड़े-बूढेरे कंदमूल
इकठ्ठा करते
थे और
शिकार किया
करते थे.
हाथ में लाठियाँ लिए
वे वनों,
मैदानों, तपते
रेगिस्तानों में घूमते रहते थे. उन्हें खाए जा
सकने वाले
फलों, सब्जियों
और कन्दमूलों
की हजारों
किस्मों के गुण और
लक्षणों का
पता था.
अब हम
उनके नाम
और पहचान
से अनभिज्ञ
हैं.शिकारी अपने शिकार
की आदतों
के जानकर
थे.
२० सदी के एक
प्रसिद्द नरविज्ञानी
लुई स्विकी
अफ्रीकनों की परंपरागत शिकार विधियों का
निरक्षण करते
हुए इस
नतीजे पर
पहुंची कि
खरगोश को पकड़ना कोई मुश्किल
कार्य नहीं
है. हमारे
यहाँ भी
अगर हम
खरगोश पकड़ने वालों से बात
करें तो हमें पता चल
जाता है
कि दिन
के समय
खरगोश जिस रास्ते से होकर
गुजरता है,
उसी रास्ते
से ही
वापस आता
है. ख़रगोश
और अन्य जंगली जानवरों को
जिन्दा रहने
के लिए
भोजन बड़ी
मुश्किल से
प्राप्त होता है. उन्हें अपनी
उर्जा को
बचाकर रखना
होता है.
निश्चित मार्गो
पर चलकर
ही
वे ऐसा कर
सकते हैं.
शिकारियों को बस उनके रास्ते
में बैठना
या जाल
अथवा शिकंजा लगाना होता
है. लुई
स्विकी लिखती
हैं कि
खरगोश शिकारी
को देखते
ही दौड़ना शुरू कर
देता है.
खरगोश की
यह खासियत
है कि
मुड़ते समय
वह अपने कानों को पीछे
पीठ के
साथ सटा
लेता है.
शिकारी समझ
जाते हैं
कि यह
अब बाएं या दायें
मुडेगा. मान
लीजिये शिकारी
दायीं और
भाग रहा
है और
उसका अनुमान सही रहता
है तो
शिकार सीधा
उसकी झोली
में आ
गिरेगा. अगर
वह बायीं और भी मुडेगा
तो वह
पास की
किसी झाडी
में छुपेगा.
खरगोश यह
जानता है
कि उसकी चमडी का
रंग उसे
छुपाने में
मदद करेगा.
लेकिन मानव
की आँखे
तो सूक्ष्म से सूक्ष्म
चीज को
देखने के
योग्य है.
मानव बेशक
तेज नहीं
दौड़ सकता लेकिन बुद्धिमान
होने के
कारण उसे
जानवरों की
आदतों के
बारे में
पता है. मनुष्य के
शरीर का
गठन इस
प्रकार का
है कि
शिकार के
दौरान वह
बाखूबी अपने ज्ञान का
उपयोग कर
सकता है.
शिकार के समय प्राचीन
मानव ही
नहीं बल्कि आज के मनुष्य
भी बड़ी सहनशीलता का सबूत
देते हैं.
जैसे पानी
में कांटा
डालकर लम्बे
समय तक
मछली के फंसने का
इंतजार करना.
इसी प्रकार
शिकार करते
समय वे
अपने कुत्तों
के पीछे मीलों दूर
तक निकल
जाते हैं.
मैक्सिको के
तारामोरा इंडियन
हिरणों का तब तक पीछा
करते हैं
जबतक वे
थककर निढाल
नहीं हो
जाते. वे
दो-दो,
तीन-तीन दिनतक जानवरों का
पीछा करते
रहते हैं.
रास्ते के
हर छोटे
टुकड़े पर
हिरण मानव को आसानी
से पीछे
छोड़ देता
है. पर
मानव उसके
पैरों के
चिह्नों की खोज जारी रखता
है. खोज
बताती है
कि यह
मानव नहीं
बल्कि हिरण
ही होता
है जो मानव से
पहले थकता
है. अगर
शिकारी पशुओं
के रास्ते
जानता है
या उसे विश्वास है कि
पशु अपने
प्राणों की
रक्षा करते
हुए वक्र
रेखा में
दौड़ता जायेगा तो शिकारी
अपनी उर्जा
और ताकत
बचाते हुए
सीधा उसके
पास , अनुमानित स्थान पर पहुँच
जाता है.
शिकारी और कंदमूल
के संग्रहकर्त्ता उद्यमी
और जिज्ञासू
लोग थे. पशु-पक्षी और
वनस्पतियों के बारे, अपने चौगिरदे
और संसारव्यापी घटनाओं के बारे, हर
नई जानकारी
उनके ज्ञान
और अनुभव
को बढाती
रही. इस
काल के दौरान मानव प्रकृति
से उसकी
देन लेता
रहा और
साथ-साथ
प्रकृति की
नई-नई देनों को लेने
की तरकीब
सीखता गया.
शिकारी और
संग्रहकर्त्ता उन हालातों में जीने के
अनुकूल सिद्ध
हुए. वे
पृथ्वी के
बड़े भूभाग
पर बस
गए. ऐसा
उस समय से बहुत
पहले हुआ
जब उनके
पूर्वजों ने
धरती में
पहले बीजों
की बुआई की और अपने
मित्र और
सेवकों की
खोज की.
पर्वतों के
उस पार
क्या है?
अनजान झील, बड़ी नदी के
उस पार
क्या है? ये सदैव उनकी
जिज्ञासा का
केंद्र रही हैं. प्राचीन काल
से रहस्य
मानव को
भयभीत ही
नहीं करता
रहा बल्कि
आकर्षित भी करता रहा
है. और
मानव की
ज्ञान की
प्यास आज
भी शांत
नहीं हुई
है.
अज्ञात और अनजान
खतरों से
टक्कर
लेने वाले लोग हर युग
में
पैदा हुएहैं. परंतु इन
मतवाले लोगों
की खोजों
को बढाचढा
कर नहीं
देखना चाहिए.लोगों को नगरों,
पर्वतों, सागरों
नदियों से
पार लेजाने
वाली शक्ति
यात्रा का चाव नहीं
बल्कि उनकी
मजबूरी, उनकी
जरूरत थी.
यूरोप के
निवासी बर्फ नदियों के दक्षिणी
किनारे पर
रहने वाले
पशुओं का
शिकार करने
के लिए वैसे-वैसे ही
पीछे चलते
रहे जैसे-जैसे नदिया
पीछे उत्तर
की ओर
खिसकती गयी और जानवर पीछे
हटते गए.
वे अब
उन वनों
में नहीं
रह सकते
थे जहाँ पशु-पक्षियों की
संख्या कम
हो गयी
थी. उदाहरण
के लिए
सूखे के
कारण शिकार की संख्या में
कमी हो
गयी. अपने
इलाके में
आहार की
पूर्ति कम
हो गयी. लोगों का एक
दल अलग
होकर अपने
लिए एक
नया आवास
ढूँढने के
लिए निकल
पड़ा. या ऐसा हुआ
कि बस्ती
में कहीं
ओर से
कुछ नए
लोग आ
गए. उन्हें
भूख ने
अपने इलाके से खदेड़
दिया था.
उन्होंने यहाँ
इस नए
इलाके को
अपने लिए
ठीक समझा. उनकी संख्या
और ताकत
यहाँ के
मूल निवासियों
से अधिक
थी. इस
स्थिति में मूल निवासियों के
लिए मारे
जाने या
उस इलाके
को
छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं
था.
अमेरिकन इतिहासकार
बी. हार्पर ने ऑचएलैउत और
मैक्सिकन और
उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले
एक्सिमों लोगों
की जीवन
पद्धति का
तुलनात्मक अध्ययन किया है. तुले सभ्यता
के एक्सिमों
लोगों ने
चार सौ
वर्षों के
दौरान अलास्का
से ग्रीनलैंड तक पांच
हजार किलोमीटर
की दूरी
तय की.
प्रति वर्ष
साढे बारह किलोमीटर. इसके विपरीत
द्वीपों पर
बसने वाले
लोगों की
प्रवास की
गति कम थी. इस अंतर
के पीछे
क्या कारण
है? एलैउत लोग उपजाऊ भूमिपर
बसे हुए
होने के कारण लम्बे
समय तक
उसी स्थान
पर बसे
रहते थे
जबकि उस
स्थान पर
जहाँ ज्यादा भ्रमण प्रकट
होता है
उस बारे
में बी.
हार्पर लिखते
हैं कि
यह निरक्षण नई बस्तियों
के बसाए
जाने से
भी संबंधित
हो सकता
है. अमेरिकी इंडियनों के बूढेरों
ने महाद्वीपों
पर भू-स्थल के
रास्ते प्रवेश
किया. यह एक जीव-जंतु
रहित मरूस्थलीय
इलाका था.
वे इसे
जल्दी से
जल्दी पार
कर देना चाहते थे जबकि
इसके विपरीत
एलैउत लोगों
को रास्ते
में समृद्ध
समुद्रीय परिवेश मिला. इससे
नई दुनिया
की ओर
प्रस्थान करने
की उनकी
रफ्तार में
कमी आई.
कभी तेज तो
कभी धीमे,
कभी पैदल
तो कभी
तैरकर या
नावों की
मदद से,
अपनेसफ़र को जारी
रखते हुए,
मनुष्य दक्षिणी
ध्रुव के
अलावा संसार
के हर भू.भाग पर
पहुँच गया.
आदिम युग
के कंदमूल
इकठ्ठा करने
वाले और
शिकारी लोगों को कई
बार लंबे
समय तक
भूखा रहना
पड़ता था.
धीरे-धीरे
अपने अनुभव के द्वारा मानव
ने सीखा
कि जो
कुछ भी
सामने आता
है, उसे
खाना ठीक
नहीं है. बल्कि कुछ
विशेष पक्षियों
और मछलियों
का शिकार
ही ठीक
है. आज
से कई दस हजार वर्षों
पहले एशिया
और यूरोप
के मैदान
और कटेशिया
और उत्तरी अफ्रीका के निवासियों
की उदर-पूर्ति शिकार
द्वारा ही
होती थी.
क्रीमिया के पत्थर युग
से पूर्व
की अनेक
हड्डियों के
नमूने प्राप्त
हुए हैं.
इनकी गिनती से पता
चला कि
६८.५
प्रतिशत हड्डियाँ
जंगली गधों,
घोडों और
जैबरे आदि की थीं.
सौंची नगर
के नज़दीक
हुई खुदाई
और खोज
से पता
चलता है
कि कई दस हजार वर्षों
पूर्व जहाँ
बसने वाले
लोग विशेषकर
बैल का
मांस खाते
थे जबकि मध्य एशिया
के लोगों
का
प्रमुख आहार भैंसे का मांस
था.
एक लाख वर्ष पूर्व
विशेषीकरण और हथियारों के
विकास ने
लोगों की
शिकार करने की दक्षता
के लिए
बेहतर उपाय
निकालने में
मदद की.
शिकार करने
के कुछ दुखदायी नतीजे भी
निकले. प्राचीन
गुफाओं के
अध्ययन से
पता चलता
है कि वहां पर रहने
वाले जीवों
की कई
प्रजातियाँ बिलकुल विलुप्त हो गयी
क्योंकि अपने पेट की
आग भूझाने
के लिए
मानव इन्हें
पूरी तरह
से चट
कर गए. पुरातत्त्वविदों के अनुसार
५० व्यक्तियों
के एक
समूह को
६०० ग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति
के हिसाब
से एक
वर्ष के
लिए ११
टन मांस
की जरूरत पड़ती थी. मैन्मथन
के शिकार
के साथ
१०० वर्गकिलोमीटर
के क्षेत्र
में लगभग डेढ टन मांस
ही मिलता
था. इसका
अर्थ यह
हुआ कि
बच्चो समेत
एक ५०व्यक्तियों के समूह
को सात-आठ सौ
वर्ग किलोमीटर
तक के
शेत्र में
शिकार करना पड़ता था.
इस उदाहरण
से स्पष्ट
है कि
साढे पांच
हजार वर्गकिलोमीटर के विशाल भू-भाग पर
केवल तीस-पैंतीस हजार
लोग ही
गुजर-बसर
कर सकते
थे.आदिकाल में प्रकृति पर
मनुष्य की
निर्भरता आवश्यक
और स्वाभाविक
ही थी परन्तु आज के
युग में
प्रकृति संसाधनों
का अंधाधुन्द दोहन,
विशेषकर विकसित देशों द्वारा
इस पृथ्वी
को
विनाश की ओर धकेल रहा
है. अतः
हमें अत्यंत सावधान रहने
की जरूरत
है
शैलेन्द्र चौहान आलोचक और वरिष्ठ कवि है जिनका हाल ही में नया संस्मरणात्मक उपन्यास कथा रिपोर्ताज पाँव ज़मीन पर बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुआ है.उनके बारे में विस्तार से जानने के लियाना यहाँ क्लिक कारीगा. संपर्क ३४/242 प्रतापनगर,सेक्टर.3 जयपुर.303033 ;राजस्थान ई-मेल shailendrachauhan@hotmail.com, फोन 9419173960 |
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