शीत की कंपाती
सुबह में
बैठ लें
आँगन में बिछी खाट पर
लेट लें
लें गुलाबी ठंड में गुनगुनी
धूप का
आनंद
आओ आसमान को बाहों में
समेट लें
पत्तों की चरमराहट
कि कोई
आया है
मन किसी
आवाज़ से
भरमाया है
दूर दूर तक नहीं कोई
परिंदा भी
शीत ने संसार को सूना
सूना बनाया
है
एकाकी भरम में
निस्तब्धता को लपेटलें आओ आसमान
को बाहों
में समेट
लें
कहीं दूर से
उठता धुआँ
कहे कि
कोई है
दूर दूर तक प्रकृति सुंदरता
सी सोयी
है
मन विचर
रहा है
संसार भर
के एकांत
में
ओस की
बूंदें ज्यों
सारी रात
रोयी है
पोंछे आंसूधरती के
सूरज गगन
में बैठ
के आओ
आसमान को
बाहों में
समेट लें
सारी सड़क सुनसान
सी सूनी
पड़ी है
राह में
गहरे धुंधकी
बड़ी चादर
खड़ी है
कुछ कहने
लगा
है बहती हवा का शोर
धरती सूरज
के बीचचल
रही आंखलड़ी
है
जीवन के सब
रंग प्रकृति
संग समेट
लें
आओ आसमान
को बाहों
में समेट
लें
बहुत सुंदर प्रकृति का वर्णन करती हुई रचना आभार , शायद इनकी स्वतंत्र वार्ता में अक्सर पढता रहता हूँ |
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