(यह कहानी लोकप्रिय पत्रिका 'कथादेश' के नवम्बर,2011 अंक में छपी है,हम यहाँ कैलाश वानखेड़े जी से किए निवेदन पर मिली इस कहानी को पाठक हित में यहाँ फिर से साभार छाप रहे हैं-सम्पादक )
कल
शाम दुकान में ग्राहक को दो चांटे, तीन
मुक्के मारने के बाद रातभर सो न सका. लगातार चुभते रहे
उसके शब्द. लगता था डी.जे. साउण्ड से उन शब्दों को पूरे शहर को सुनाया जा रहा
हो. ग्राहक ने प्रकाश से कहा था, ''डेरे से उठकर शहर में बस जाने से समझता
क्या है तू खुद को ? चोरी
से जी नहीं भरता तो दलाली करते हो,
स्साले खुद की बेटी, औरत
की. मुह चलाता है .. चल ये पहिया सीधा कर, कल
मेरे बेटे के पैसे रख लिये .. काम नहीं किया .आदत बदलो ..आदत ...'' और फिर सुनते सुनते उस पर
हाथ उठ गया था प्रकाश का.
रात के जाने से पहले ही उठ गया बिस्तर
से. इग्नू की किताबे उलटने –पलटने के बाद यशवंत लायब्रेरी से लाए कहानी संग्रह में से
कोई कहानी पढ़ नहीं पाया .घर
काटने को दौडने लगा तो दुकान की तरफ दौड़
लगाई.साईकिल पर सवार होकर. लोग दुकान उठा कर
लाते है घर में, तब भी उन्हें घर मे सुकून नहीं मिलता. प्रकाश घर ले जाता है दुकान मे और चैन पाता है. दुकान का गोदरेज वाला ताला जिसकी दो स्टील की लंबी टांगों को चाबी डालकर अलग करता है फिर पायताने पर उन टांगों
को ताले मे डाल देता है. शटर को दम लगाकर उठाता है. खटखटाती हुई उपर जाकर गोल हो जाती है चद्दर. सिकुड जाता है कोई कीडा एक स्पर्श से वैसे ही. इस दुकान मे पैरो तले आने के लिए धकेला हुआ ''सुधा
टाईम्स'', सुधी पाठकों की सुधी सोच के नारे के साथ
पसरा हुआ, धकेला हुआ और अब हाथ में है, उसे सेठ
की टेबल पर रखकर कोने मे पडे झाडू को उठाता है. झाडने पर कचरा नहीं
निकलता है, क्योकि रात को झाडू लग चुकी होती है. कचरा झाडू के नीचे कोने मे रखा जाता है. रात को नहीं फेंकते
कचरा. लक्ष्मी चली न जाए के डर से. एक हाथ मे झाडू दूसरे मे सुधा टाईम्स उठाकर वापस कोने की तरफ
आकर झाडू रख देता है. सुधा टाईम्स के तयशुदा ग्राहक हैं जो
अखबार के मालिक - संपादक - स्वत्वाधिकारी पिता के जमाने से है. पिता के मरने के बाद बेटा उसे स्वर्गीय शब्द से सुशोभित कर पूरा पेज साल मे दो बार देता
है, जन्म मृत्यु दिन को. जबकि बाकी दिन नगर
गांव के हो चुके स्वर्गीय की जन्मतिथि पुण्यतिथि,
किशोर और बच्चों के बर्थ-डे, इधर उधर और न जाने किधर किधर के चुनाव
जीतने के बाद, मनोनयन करने के,
प्रतिनिधि नियुक्त किये जाने वालों के, फोटो बधाईयों के साथ
भरे पडे रहते है. टीवी, फ्रीज़, मोटर
साईकल के विज्ञापनों पर न चाहते हुए नज़र डालते हुए समाचार ढूँढने लगता है किस कोने मे है ? दुकानों मकानों के
सुधी पाठक ढूँढते है अपना और परिचितों, प्रतिद्वंदियों
के नाम, फोटो ...... समाचार, जिस क्षेत्र और जाति की खबर जिसके वे होते है. किसमे किस किस ने शिरकत की, किसका फोटो समाचार
के बीच आया और बीच वाला पन्ना जिसमे शीला की जवानी, मुन्नी
की बदनामी के नाम से इसके उसके ''पोज़'' होते है, जिनका नाम मालूम नहीं लेकिन ''बदन''
देखते हैं लोग. फिर वह शर्लिन चोपड़ा हो, पूनम पाण्डेय, याना
गुप्ता या माधुरी दीक्षित. उन ब्लैक एंड
व्हाइट तस्वीरों के पास शहर
में कन्या भ्रूण हत्या पर कार्यशाला में डाक्यूमेंटरी का प्रदर्शन की प्रेस विज्ञप्ति छपी
है. शाम 6 बजे. उस पन्ने के बीच मे दिखी कविता. सुधा टाईम्स में नहीं छपती कविता. छप गई. जो एक बडी घटना हो गई, इस
दशक की प्रकाश के लिए.
हताश भरे दिन की शुरूआत में कुल जमा आठ लाईनों की कविता एक
सांस में पढ़ गया प्रकाश. कविता को कविता की तरह नहीं पढ़ा गया
फिर भी कविता से दर्द, पीड़ा, विवशता के बाद खडे
होने की ताकत आ गई. सूरज अभी नहीं आया लेकिन कविता आ
चुकी थी, जिसने गर्माहट दी. कविता के भीतर से पीड़ा और खडे होने का जज्बा, कई हज़ारों हज़ार पल को रोम रोम में महसूस किया .फिर पढ़ी कविता और प्रकाश को लगा कवयित्री
को बताया जाए कि यह पीड़ा मेरी भी है, उन लाखों लोगो की है जिन्हें
प्रताडित किया जाता है. प्रताडना देने वालों की श्रेष्ठता
ग्रंथि से इंसानों को क्यों प्रताडना झेलनी पडती है ? उस कवयित्री से जाकर पूछा जाए तो वह कोई रस्ता बता देगी कि
पहिये का बल निकल जाएगा कि चलने लगेगी ज़िदगी सुकून से. और राहत देने वाली
कवयित्री को बधाई तो दी जानी ही चाहिए. बधाई..... बधाई हो. हमारी आवाज़ ,
अपने ,हमारे दर्द को समझने वाली कवयित्री
बधाई हो.
फुटपाथ की इन्टरलॉक टाइल्स से कचरा
निकाल रहीं घुघंट वाली महिला पर नजर पड़ी, लाल रंग की साड़ी और हाथों में लगी मेंहन्दी बता रही है कि उसकी शादी कुछ दिनों पहले हुई है.झाडू से निकाली हुई धूल आसमान में छा गई, तो बाहर कदम न रख सका प्रकाश.
प्रकाश को जाना है उस कवयित्री के घर, देने बधाई. उड़ती
हुई धूल और खनकती हुई चूड़ियों के बावजूद उसके घर की तलाश कर दस्तक देना है. जब घंटी बजेगी और सुरमयी ध्वनि के बाद दरवाजा खुलेगा, तो क्या वही महिला होगी जिसने रची है कविता अपने मन से ? कविता...कविता सृजन करने वाली स्त्री नहीं खोलती दरवाजा.दरवाजे पर जो मिलेगा
वह पूछेगा,. '' यहाँ क्यों आया है ? घर बैठो .दुकान में जाओं.’’ तो प्रकाश क्या जवाब देंगा कि कविता की तारीफ करना चाहता हू
.यह कृतज्ञता है ? चंद पंक्तियों से भावुक हो गया है . है यह एक असरदार कविता ,जो
उसके जज्बात की पक्षधर है ,इसलिए आया हू .
’’तारीफ.............क्यों ?’’ वह दरवाजे के
भीतर से पूछेगा ,तब क्या जवाब होगा प्रकाश के पास .
’’...................................’’
’’किसकी.. उषा किरण की. क्यों ?’’अगला सवाल तत्काल दागा जाएगा. वही धूप में उसके वजूद को
भूलाते हुए .उस पुरूष को क्यों का
जवाब नहीं दे पायेगा प्रकाश ? क्यों?क्यों करना चाहता है प्रशंसा? क्यों
परपुरूष किसी अनदेखी स्त्री की तारीफ कर दें .इस तरह कोई तारीफ करता है किसी की .उसके घर जाकर ,उसी सुबह कविता पढकर . वह
पुरुष यह सोचने लग जाये कि उसने पिछली
बार किसकी तारीफ की थी मन से. बच्चे की ...... पत्नी की ..
पडौसी की .. सहकर्मी की ..राह चलते हुए किसी खिलते हुए फूल की ......
नौकर की .किसकी तारीफ की थी ? तारीफ करना, तारीफ
सुनना, सिखाया ही नहीं जाता
है, घृणा से भरी संस्कृति
में .क्यों न लगे नागवार
उस दरवाजे पर खडे़ पुरूष को. जिसने रची है कविता वह स्त्री युवा हो, तो
.. क्या पचा लेंगे उसके घर वाले प्रकाश की तारीफ को ? किस विशेषन से नवाजा जायेगा .पागल .. पुराना प्रेमी ..
शादी से पहले वाला या .प्रेम करने का जघन्य अपराध
किया होगा. यही फैसला होगा. प्रेम का.
वह कवयित्री प्रौढ़ हो तो .. तो क्या
उसने बताया होगा घरवालों को कि वह कविताऍ लिखती है .... छिप-छिपकर कभी रोटी पर तो कभी आग पर. लिखती है,
कभी कपड़ों के झाग पर और उड़ा देती है
आसमान में झाग के गोल-गोल
इंद्रधनुषी गुब्बारे
कि भरना चाहती है, सारे आकाश को वह
इंद्रधनुषी गुब्बारो से .इन गुब्बारे को
मिटते हुए पूछा जायेगा कि ओं कविता पढ़ने वाले, तू इतना फालतू है, काम धाम कुछ नही है . भले घर की औरत से मिलने
का बहाना तलाश करता है .
कवयित्री ने छिपाया होगा, कविता लिखने का काम ? ‘’ ये महारानी ,कविता लिखती है .परपुरूष को हो गई खबर और हमें पता तक
नहीं.’’ सास के तानों के बाद पति बोला तो उसके भीतर का पौरूष निकलेगा,
‘‘ मुझे ..... मुझे
बताया तक नहीं . मुझे... आज लिखा तो कल बोलेगी. किसी से मिलेगी तो खुलेगी.
खुली तो घर का भेद खोलेगी.’’
गुस्से
से उबलते हुए पौरूषधारी के पीछे दबी सहमी क्रन्तिकारी कविता खड़ी हो गई .प्रतिकार
और परिवर्तन की कविता की रचियता ‘मुझे ’ वाले से टकरा गई तो साबुत बच पायेगी वह .
''अरे अच्छी लगी कविता तो पढ़ ... दस बार
....हजार बार .... बोलता क्यों है रे .... क्यों बोलता है .... क्यों बोलना है कि अद्भुत लगी कविता.
कि कविता के भीतर चली आई मेरी सारी
पीड़ा.प्रतिरोध का बारूद बिखरा पड़ा है .चारों तरफ नजर आती है प्रताड़ना . कविता पढकर रोंगटे
खड़े होते है कि दिमाग को सुन्न कर, घर
से बाहर कदम रखने के लिए मजबूर करती है कविता.
सोचते सोचते पहली दफा प्रकाश ने यह किया कि कविता को ‘ताडी‘ से काटकर रख लिया. अक्टूबर के महिने की
अंतिम दिनों की ठंड, कड़ाके की ठंड में तब्दील हो गई, बरसात के सहयोग से. अखबार ने बताया कि दूर
जहान में राजनीतिक
मामलों को लेकर गर्मी बरकरार है, संसद
ठप पड़ी है. विपक्ष मांग पर अडा है और सत्ता दल ने इंकार किया.
फिर
पढी कविता. पढकर अपनी जेब में रख ली
कविता. हाथ में नई साईकिल का गजरा में
ताडिया कसने के बाद बेरींग में डालने के लिए मोती जैसे चमचमाते छर्रे ले लिये. छर्रों को एक हाथ से
दूसरे हाथ में एक-एक कर डालते रहा. चमकते
हुए छर्रों की तरह निश्छल बधाई देने के तरीके के
खयाल आ जा रहे है. प्रकाश को लगा कि दिमाग को झकझोर कर सारी पीड़ा को
मिटाकर नई उर्जा से भरने वाली कविता की रचयिता को सीने से लगाकर गर्मजोशी से बधाई
दी जाये.
कवयित्री
को सीने से लगाकर बधाई देना... इस मुल्क में? स्त्री को सीने से लगाने का हक पति या पिता को होता
है, फिर इसमें स्त्री की सहमति हो या न
हो. यह प्रेमी का 'हग' नहीं है .प्रकाश ने खारीज किया इस तरीके को और फिर लगा हाथ
जोड़कर कहे . हाथ जोडना ..? गले नहीं उतरा प्रकाश के. फिर लगा हाथ मिलाया जाये .हाथ मिलाकर स्त्री पुरुष
मिला नहीं करते . दूर से ही बात करते है .छू न ले स्त्री ,पुरुष के गर्म हाथ .छूना
मना है .अस्पृश्यता की जड़ में शूद्रों के साथ नारी खड़ी नजर आती है .ताडन की
अधिकारी .दूर रहो ..दूर...काम की मज़बूरी है वरना कर देते दूर , घर क्या गाँव से
भी.
प्रकाश को लगा कि उसका दिमाग ट्यूब की
तरह इतना गरम हो गया है कि कही फट ना जाये. सोचते सोचते लगा कि बेरींग में इन
छर्रों को इसी तरह बिना ग्रीस, आईल के ड़ाल दे तो न साईकिल ठीक से चलेगी और छर्रे
भी घिस जायेगे, टूट जायेगे. खयालों में इन बधाई वाले छर्रों के साथ यही हो रहा है
. क्या करे . किस तरह से दे बधाई ?
स्थगित किया उसने बोलना मिलना . स्थगित को स्थगित कर सोचने लगा इस कस्बाई मानसिकता में रचे बचे शहर में अखबार में सम्पादक
के नाम पत्र लिखे.इस ख्याल में फिर प्रकाश खो गया. कवयित्री बची नहीं. बची
तो बस एक स्त्री और एक पुरूष. तमाम पल इसमें बिते कि लिखने का असर क्या
होगा. डर गया प्रकाश...कोई अजनबी ,निरपराध क्यों मेरे लिए बदनाम
हो जाये. यह कि वह लिखने वाली किशोरी है, युवा हैं, प्रौढ या वृद्धा.कुछ नहीं
जानते हुए बस इतना जाना कि वह एक स्त्री है, एक कस्बे की है, उस
कस्बे की जिसके बारे में कस्वाई लोग कहते है कि गुमटी पर किसने किसके बारे में क्या कहा, यह चन्द क्षण में सामने आ जाता है. भले ही इस कस्बे में 3
जी सर्विस न हो . उस कस्बे के आत्ममुग्ध लोगों को गर्व होता है कि हर कोई जानता
है कि सामने वाला क्या है ? वह किससे क्यों मिलता है ? कितना अंतरंग है .......... जानते है, हरेक
की औकात. और प्रकाश को वह झाडू वाली नज़र नहीं आई.
नज़र आया मधुबन साडी सेंटर का बड़ा साइन बोर्ड .
प्रकाश की दुकान से पॉच दुकान छोड़कर है
मधुबन साड़ी सेंटर. साड़ी की दुकान. उसी दुकान के
मालिक के बारे में कहा जाता है, ‘समाजसेवी‘
है. कई संगठनों से जुडा हुआ है. भरे बाजार की
बेशकीमती जमीन पर उस दुकान को किस तरह खडा किया गया है.किस तरह साडी दुकान का मालिक अफसरों के
आगे पीछे घूमता
है.सज्जन हूँ , सामाजिक काम करता हूं.
हजार बार कहता है, उसकी हकीकत सब जानते है लेकिन बोलते नहीं.इस तरह बोलने का रिवाज नहीं है.
मार्केट की दूकानें अभी खुली नहीं लेकिन कविता की पीड़ा खुलकर प्रकाश के दिल दिमाग पर असर कर गई.कर रही है.
प्रकाश दूकान से बाजार में सडक किनारे इन्टर
लॉक टाइल्स पर खडा है, धूल
है ढेर सारी
दूकानों पर. धुंए से भरा है बाजार और मैले कुचैले कपडे़
पहन कर दुकान के
उपर की धूल साफ कर रहे बच्चें की तरफ देखता हैं. इतनी है इस साल ठंड कि बस... बताया था एक
टीवी वाले ने कि इस साल की ठंड, हडडी
तोड़ देगी.......
हड्डी तोड देगी भाई ये साल.
मधुबन साडी सेंटर का मालिक वह बूढ़ा जिसके कदम साइकिल बेचने वाली प्रकाश की दुकान में कदम रूकते है, हर रोज की तरह सेठ के आते ही. साईकिल की दूकान पर प्रकाश काम करता है और दूकान मालिक को
’’सेठ’’ कहता है, जैसे
दीगर लोग कहते है. सेठ और मालिक दो अलग दिशा से लगभग साथ आ गए.
‘‘आज किस ‘हिरों‘ को
कसोंगे ? ’’ हां हां करता है .साईकिल की दुकान
में बैठकर.साड़ी सेंटर का बूढ़ा मालिक .
‘‘हम तो रोड पर दौडने के लिए कसते है,
आप तो......वैसे भी हमारे यहाँ से जो भी साईकिल ले
जाता है वह हीरो ही होता है .
चाय बुलवाऊ ? ’’ सेठ
कहता है.
’’ये भी कोई पूछापाछी की बात है’’
मालिक के चेहरे पर
हँसी नहीं है.
‘‘नी सोचू कि आज पी के आया हो तो . ’’
’’वो तो यही आने के बाद जाती है अन्दर..
पेपर क्या कहता है...... दिखाना जरा.. अरे ये नहीं . सुधा को कौन पढ़ता है. वो ला एक्सप्रेस जैसा दौडता है और लड़ाने-भिडाने का
काम करता है. स्साला
ब्लैकमेलर है,
कल आया था बोला डिफेक्टिव साडियों को फ्रेश का नाम देते हो,
छाप दू खबर. स्साले को एक साडी देनी पडी . उसका पेपर पढते है सब .‘’ साड़ी सेंटर का मालिक फिर हंसा . नकली ,बनावटी हँसी ले आया
तत्काल .ग्राहकों के सामने हंसते हंसते आदत हो गई .
‘‘अपना काम चंगा तो काहे दी उसे साड़ी.’’
सेठ ने पूछा .
‘‘सब मालूम है रे तू भी जाने.छोड उसे साडी
पहनवा दी. वो आते है ना सज रही मेरी अम्मा सुनहरे कोठे पे वही समझ के दी.
पेपर देखा ? किस की मारी आज ?’’ वह अखबार पढ़ता रहा और बाते करता रहा.
बूढे मालिक की बाते सुनने की बजाय कविता में खो गया प्रकाश.
साड़ी सेंटर के मालिक की निगाह, फाड़े हुए सुधा टाइम्स में अटक
गई, ‘‘क्या पढ़ा ? ’’
उसने सेठ से पूछा.
‘‘इस पेपर में होता क्या है ? ’’सेठ बेफिक्री से
बोला .
‘‘फिर फाड़ा क्यों ? ’’ मालिक बोलते हुए
नहीं हंसा इस बार .
‘‘मैं क्यों फाडू ? इसे तो देखू तक नी......... जबरदस्ती
तीस रूपये महीने के ले जाता है,
बरसों से आ रहा है, तो धक रहा है ? ’’
‘‘मुझे सब मालूम है, यार रामायण मत सुना. क्यों
रे तूने फाड़ा है ? ’’प्रकाश से आँखे दिखाते हुए बोला मालिक .
प्रकाश सुबह से अपने औजारों
की सफाई कर रहा है. कविता में खोया हुआ कि हॉं कहे या ना... में अटक गया. ध्यान न देने का सोचा और अपना
काम करता रहा हमेशा की तरह. छर्रों में ग्रीस लगाकर बेरींग में ड़ालने के लिए रखता जा
रहा.
‘‘अरे मैं पूछता हूं तूने फाड़ा है ? ’’ मधुवन
साडी सेंटर का मालिक फिर बोला.
‘‘क्यों गला फाड़ रहा है ? अरे यार
इतनी सी बात है कि उसमें.. तू चाय पीने आया या उसकी जांच के लिए ’’ सेठ
ने कहा.
‘‘मजाक अच्छा नहीं लगता मेरेको,
दूसरों के सामने. ’’ तुनककर बोला मालिक .
‘‘दूसरा कोई नहीं है, क्यों मगजमारी कर रहा है, वैसे भी ठंड ज्यादा हो गई है . दिमाग तो जम नहीं गया तेरा .’’सेठ वातावरण को सामान्य बनाने के लिए बोला.
‘‘ठंड से दिमाग जमता है ? क्या बात कर रहा है, समझ ही नहीं रहा है तू . इस कागज को देखना है, बस देखना है. ’’
व्यग्रता, उग्रता के साथ मधुबन साड़ी सेंटर का मालिक कुंवर राजपालसिंह सिसौदिया हॉफते हुए कहता है तो लगता है कि आज
उसे मजाक
अच्छा नहीं लग रहा है.
सेठ ने प्रकाश को देखा और प्रकाश ने
बिना कुछ कहे, वह कागज का टुकड़ा जिसमें अखबारी गंध थी, जो रियायती दर का कागज था जिस पर काले
अक्षरों से कविता लिखी थी, कविता
के पीछे एक अधूरा समाचार था. दे दी मालिक को.
‘‘कब से चिल्ला रहा हू . समझ में नीं आ रही है . ’’ मालिक ने प्रकाश से गुस्से में कहा. प्रकाश की आँखे भी गुस्से से बड़ी हो गई
.जवाब न देकर उसने अपने इरादे जाहिर किये .
खामोशी तनाव लेकर दुकान में खड़ी हो गई.
दुकान से नई साइकिल जानी थी, उसे कसने की शुरूवात
प्रकाश ने की. इस समाचार का आखरी हिस्सा उस टुकड़े
पर था.खबर के मुताबिक बांछड़ा युवती को गर्ल्स कॉलेज में
मोबाईल की चोरी करते हुए पकड़ा गया.वह बांछड़ा युवती रोज कॉलेज में नकली छात्रा बनकर आती रही
और इसी ताक में रहती कि पर्स या मोबाईल की चोरी करे. उसकों कई दिनों से देखा जा रहा है,
हम उम्र होने के कारण किसी ने संदेह नहीं किया. कुछ
लड़कियों से उसने दोस्ती भी कर ली. कल चोरी करते वक्त उसे रंगे हाथों पकड़ा गया. उसके मां बाप को
थाने पर बिठाकर पूछताछ की जा रही है. चोरी के आरोप में लड़की को पुलिस हिरासत
में ले लिया है. पुलिस को सन्देह है कि वह देह व्यापार का रैकेट चलाती है. आज कोर्ट में पेश किया जायेगा. इस समाचार को पढने के बाद वह
बूढा, साडी सेंटर का मालिक
प्रकाश की ओर देखते हुए कहता है , ‘‘देखों
ये बांछड़िया अब कॉलेज में घुस आई है.’’ ‘‘गर्ल्स कॉलेज में घुस आई तो कौन सा
गुनाह कर दिया. ’’ सेठ कहता है.
‘‘अरे तुम नी समझो. भले घरों की लड़कियों से
दोस्ती कर उसे भी धंधे में डाल देती है ये. ’’ सर्वज्ञानी की तरह अंतिम निष्कर्ष दिया बूढ़े ने.
‘‘दूसरे शहरों में तो दूसरी जाति की ढेरों
मिलेगी.वहां पर भी ये जाकर उन्हें सिखाती है .धंधे में लाती है ? ’’मालिक के तर्क पर
हंसना चाह रहा है सेठ लेकिन सयंत रखा खुद को .
‘‘तू भी कही से कही ले जाता है, तू ही बता क्या कर रही थी ? ’’मालिक के शब्दों
में झुंझलाहट आ गई .सहमति के शब्द न सुनने
के कारण .
‘‘अरे देखने आई होगी कॉलेज, मां बाप पढ़ाना नहीं चाहते होंगे या परिस्थिति न
हो ऐसी . ’’
‘‘वाह रे जो बचपन से ही सब कुछ घर पर देखे
वो क्यों पढे़ ? मजे भी ले, पैसा भी ले. तो फिर कॉलेज किस लिए ? आखिर औरते चाहती क्या है... मजे ? ’’ मालिक हंसता है .प्रकाश
लकडी के पैकेट से घंटी निकालने लगता है.
‘‘गर्ल्स कॉलेज में मजे के लिए या मोबाईल, पर्स चोरी के लिए..? धंधा करके तो उससे ज्यादा कमा ही लेगी, भाई साहब. छोड यार ये बता मोबाईल किसका चोरी हुआ ? सेठ के सामने अपनी चलाने वाले मालिक का रंग फीका पड़ गया .बोलने के लिए बोला मालिक , ‘‘अब पुलिस ने पकड़ लिया तो पूछेगी . ’’
‘‘गर्ल्स कॉलेज में मजे के लिए या मोबाईल, पर्स चोरी के लिए..? धंधा करके तो उससे ज्यादा कमा ही लेगी, भाई साहब. छोड यार ये बता मोबाईल किसका चोरी हुआ ? सेठ के सामने अपनी चलाने वाले मालिक का रंग फीका पड़ गया .बोलने के लिए बोला मालिक , ‘‘अब पुलिस ने पकड़ लिया तो पूछेगी . ’’
‘‘पुलिस क्यों पकड़ती है.बात करता है.? यह तुझे भी पता है कि बांछडा
जाति की कुछ लडकियां घरवालो की सहमति से देह व्यापार
करती है’’.
‘‘पर ये अच्छी बात नी है पेपर फाड़ना.’’ मात खाये बूढ़े ने
पलटते हुए कहा.
‘‘क्या था उसमें...क्यों पुलिस बन रहा है ?
’’लगा धैर्य जवाब दे
चूका है सेठ का .
‘‘उस लडकी का क्या हुआ, यह जानना था, क्या किया उसके साथ थाने
में. पुलिस ने छोडा नहीं है . ’’ सुख की तलाश में
भटकता बुढा हंसा लेकिन हँसी नहीं थी .
‘‘कोर्ट तय करेगी लेकिन उसके मां बाप को
थाने में पकड़कर क्यों रखा? ’’
‘‘थाने में उसके साथ पुलिस ने किया हो .. इसलिए मां
बाप आ गये होंगे अपना हिस्सा लेने.’’ वह
हंसते हंसते रूकता है. फिर कहता है, ’’उस
कागज में आगे क्या लिखा था, वही
पढना था यार. ’’ हंसते हँसते प्रकाश की तरफ देखते हुए कहता है,''तूने क्यों फाड़ा ?
इसमें तो कुछ भी नहीं लिखा कि उस बांछड़ी के साथ क्या किया .’’
‘‘कविता थी उसमें.’’ सहजता के साथ नई
साइकल कसते हुए प्रकाश ने कहा .
‘‘अच्छा
! कविता पढ़ने का शौक है, साइकिल
का पहिया घुमाते घुमाते. ’’मालिक के बोल के साथ उपहास करती हुए नजरें गडती है प्रकाश पर.
जवाब नहीं देता प्रकाश .तभी बोलता है सेठ,
‘‘अरे वो बडा वाला पाना लाना....... ’’
‘‘किसलिए ? ’’ प्रकाश पूछता
है.उसकी आवाज में
भारीपन आ गया है .
‘‘तू दे तो सही........ छोड़ अपने यहां नहीं
होगा इतना बड़ा पाना..कुछ चीजे समय के साथ ढीली पड़ जाती है उन्हें कसना पड़ता है. ’’ सेठ मुस्कुराता है तो प्रकाश के
चेहरे पर भी मुस्कराहट चली आई .
‘‘ये सरनेम तो मेरा ही है. देख . ’’ बूढ़ा कविता पढ़कर बोलता है.
‘‘तेरी नजर तो सबसे पहले सरनेम पर ही जाती
है. ’’ सेठ ताना देता है .
‘‘हॉ क्या करू ? बचपन से ही मिली है आदत .’’ मालिक फिर हंसा
बनावटी हँसी .
‘‘ कोई लडकी है’’
सेठ ने अखबार के टुकड़े को पढते हुए कहा .
‘‘उषा किरण ये तो मेरी बहू का नाम है, कहीं
उसकी..न न वो तो इस तरह का फालतू काम नहीं करेगी .खानदानी
लड़की है.मूंछवालों की. ज्यादा पढ़ी लिखी है, पता नहीं कौन कौन सी डिग्री है उसके पास
. तूने क्यों जेब में रखा इसे.? ’’ सेठ और प्रकाश समझ नहीं पा रहे कि बूढ़ा खुद से
बोल रहा है या दोनो से.
गुस्सा उतरा बूढ़ी आंखों में. अखबार के टुकड़े को रखने का.किसी की बहू को जेब में रखने का .सीने में उसके नाम को रखने का जुर्म हो गया.
‘‘मुझे नहीं मालूम कि ये आपकी बहू है.
.कविता अच्छी लगी इसलिए जेब में रख ली. ’’ प्रकाश ने कसे हुए पहिये को घुमाते हुए बेफिक्र होकर कहा .मालिक को देखे बिना
.
‘‘बहू . तुझे कैसे
मालूम...एक जैसा नाम होने से बहु नहीं हो जाती, तू तो ये बता औरत का नाम था इसलिए जेब में रखा था. धंधा और जगह बदलने पर भी आदत नहीं जाती तुम लोगो की .’’गुस्से से कहा मालिक ने .
‘‘आप भी क्या बात करते हो .......... मुझे
क्या पता ये कौन है ?’’ प्रकाश
ने गुस्से से कहा और उसे लगा जैसे कल वाला ग्राहक ही हो यह बूढ़ा.कही उसका हाथ न चल जाये,
कल की तरह अनपेक्षित. मर-मुरा न जाये
स्साला बूढ़ा.
25 रूपए में एक साइकिल कसी जाती है, आदमी को कितने मे कसा जाए कि वह सडक पर दौड़ सके. प्रकाश ने बूढे को देखा
और पाना ढूंढने में लग गया. प्रकाश
के हाथ में लोहे की राड़ आ गई जो पहिये को
सीधा करती है. रॉड उठाता है प्रकाश ‘’पाने’’ की तलाश में कि तभी सेठ बोला ‘‘ बात को कहीं
से कहीं मत जोड़ा कर तू .
हो सकता है ये तेरी
बहू न हो . बहुत से औरते लिखती है.कविता लिखना क्या जुर्म है. अब
जमाना वो नहीं रहा. फिर क्यों अपना पारा गरम कर रहा है ? ’’.
बूढ़ा गुस्से से भरा हुआ सोच में पड़ गया.
पढना था बांछड़ा जाति की उस लड़की के साथ थाने में क्या वही हुआ होगा, जो सोच रहा था ? वही हिस्सा समाचार से कटा हुआ था,
उस हिस्से को ही पढ़ने की उत्कंठा थी, उस लड़की की बजाय ये दूसरी लड़की बीच में
आ गई और सिर चकरा
गया.बहू का नाम, इस दो कौड़ी के आदमी के जेब में, सीने से लगा रखा था उसने बहू का नाम...क्या सोच रहा होगा ये बहू के बारे में.
सीने
से लगाकर रखने पर
ये प्रकाश कही मेरी बहू को बांछडी से जोड़कर वही कल्पना कर रहा होगा ,जो वह उस बांछडी
के बारे में सोच रहा था .मतलब ? बूढ़े को गुस्सा आ गया .देह व्यापार ... सडक
किनारे ग्राहक को आकर्षित करती हुई कॉलेज में आ गई पढ़ने लिखने .? पढ़ लिखकर क्या करेगी वह ? कविता करेगी .
बहू बनेगी. हमारी बहू की तरह... क्या फरक है
दोनों में ?बस इतना कि मेरी बहू बांछडी
नहीं है .हो भी
सकती है ,किसे पता वह किसकी औलाद है ?छी. छी.. कितना गंदा सोच
रहा हूं. सोचते सोचते तमाम ख्यालों ने चेहरे पर से समाजसेवी की
परत निकाल दी . मधुबन साडी सेंटर के मालिक के बदन से कपड़े
उतर गए भरे बाजार में. बाज़ार में नहीं है एक भी कपड़ा जो उसके
नंगेपन को ढांक सके .
कविता वाली स्त्री, बहू न हो यही सोचते
सोचते उस कागज को जेब में डाल लिया जैसे कोई कीमती चीज हो .फिर बुढा साइकिल की दुकान से उतर गया .उतर गया बुढा निगाह से इसलिए
कुछ नहीं कहा सेठ ने .नहीं कहा चाय पीकर जाना .
एक जेब में से दूसरी जेब में चली गई कविता... उषा
किरण.... वह कालेज वाली लड़की. जेब में रखे जाते है, रूपए, एटीएम कार्ड, क्रेडिट
कार्ड... तुम क्या हो ?... कविता.... उषा किरण... लड़की.. तुम क्या
संपति हो,
जो जेब में रखी गई या चेहरे पोंछनेवाला वाला
रुमाल ? क्या हो आखिर ,,,,,,,,,,,,प्रकाश
ने नई साइकिल
पर घंटी के बाद स्टेण्ड लगाना शुरू किया.
मालिक ने कहा ,’’देख यार चाय वाला इतना लेट क्यों हुआ ?बोल तो जरा उसे चाय का .” ठंड भगाने के लिए चाय और अपमान ,पीड़ा भगाने के लिए क्या लेना चाहिए ?प्रकाश
ने दुकान से बाहर कदम रखते हुए सोचा .अब
तो साइकिल खरीदने भी कम आते है लोग.
महंगाई में कम बिकती है साइकिल.
अब ज्यादा दिक्कत आने लगी प्रकाश को.
साइकिलों के दाम बढे लेकिन ‘कसने‘
के नहीं. रिपेयर के लिए
बहुत कम आते है लोग .लोगों को ताउम्र पता ही नहीं चलता कि उन्हें खुद की रिपेयरिंग करवाने की जरुरत है.
रिपेयर के लिए यहां वहां मिल ही जाते है रिपेयर करने वाले. रिपेयर के काम को बंद
कर सकते है लेकिन मन रम जाता है. पैसा नहीं मिलता है रिपेयर करने का प्रकाश को. रिपेयर प्रकाश करता
है, दाम मालिक लेता है. इसमें
कभी परेशानी महसूस नहीं हुई , हिस्सेदारी
का भी नहीं सोचा.मिलते है, महिने में दो हजार रुपये .
इससे ज्यादा क्या
मिलेगा ? मन को समझाता है प्रकाश. एक दिन में दो नई साइकिल से
ज्यादा बिकती नहीं. उसके 50 रूपए
मिल जाते है, प्रकाश को कसने के.
लडका साडी सेंटर पर गाते गाते सफाई करता है,
उसकी आदत है. लड़के को देखा मधुबन साडी सेंटर के मालिक कुंवर राजपाल सिंह ने लेकिन दिमाग के भीतर वही चल रहा है,
बांछड़ा जाति की लड़की के समाचार की पीछे,
बहू का नाम. उसके साथ पढ़ा जायेगा
बहु का नाम... एक जगह पर आ गई दोनों..
दोनों को रखता है प्रकाश अपने सीने से .और कितने होंगे ,,? इससे अच्छा था कि वह अनपढ़ बहु लाता, न लिखती, न छपती, न सीने से लगती.नही ये मेरी बहू नहीं हो सकती.इसी उधेडबुन में ही उसने
गाते हुए बच्चे को सुना. ‘‘मुन्नी
बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए....... मुन्नी बदनाम हुई ...........‘‘ मुन्नी की जगह बहु का नाम सुनाई दे रहा
है और बच्चे में साइकल वाला... दुकान के भीतर जाते जाते ठिठक गए कदम.. कुछ भी समझ नहीं आ रहा कि
तपाक से हाथ उठता है, ‘‘ये सफाई क्या तेरा बाप करेगा. चल
चुपचाप काम कर .’’समझ नहीं पाया बच्चा . समझ नहीं पा
रहा मालिक...... अंदर घुसते ही सोचता है जरूरी तो नहीं ये मेरी बहू ही हो. एक जैसे सैकड़ों
नाम होते है...
बेवजह परेशान हो रहा हूं . हर कोई पढ़ा लिखा
कविता लिखता
है.........? मैं लिखता हूं कविता? नहीं न.खानदान में किसी ने कविता नहीं लिखी, तो फिर जरूरी थोडे है कि बहू लिखे ? समझ नहीं पा रहा कि अपराध क्या हुआ है ? कविता लिखना या
छपना या उस समाचार के पीछे नाम आना
जिसमें बाछड़ी को पकड़ा गया.देह व्यापार करती लड़की की पीठ पर लिखी गई है प्रतिरोध की
कविता .बांछडी की नंगी पीठ पर बहू का नाम का होना ,मलिक को नागवार गुजरा ,उस पर
प्रकाश की जेब में ...कितना बड़ा अपराध हो गया .अपराध का नाम ढूंढो तो मिल जायेगा
पुराण ,स्मृति में .मालिक ने साडियों पर नजर डाली. सूरत से नया स्टॉक अभी तक नहीं आया और दीवाली की खरीदी शुरू
हो गई. ये लोग भी जबान के पक्के नहीं होते स्साले, एडवांस देने के बाद भी टाईम पर माल नहीं भेजते. कोई काम ही
नहीं करना
चाहता है. सेल्समेन नहीं आया... बी.पी. बढ न जाये इसलिए भीतर घर में चला गया बूढ़ा. दुकान में से ही गुजरता है घर का रास्ता. घर के भीतर कौन आ रहा
है, घर में से कौन जा रहा सब पर
नजर रहती है. अंदर जाकर बूढे ने पेशाब की.
जिला प्रशासन के कन्या भ्रूण हत्या की कार्यशाला में प्रकाश आया है. अभी साढे़ छः बजे है
लेकिन बमुश्किल बीस लोग है जिसमें कुछ सरकारी अधिकारी कुछ स्थानीय डाक्टर है,
आम आदमी के रूप में खुद को वह इकलौता मानने लगा कि
धीरे धीरे पत्रकार आने लगे, अंधेरा
होने के बाद बडे-बडे
लोग कार से उतरने लगे. कार, मोटर
साइकले जहां जी चाही वहीं खड़ी होने लगी और देखते ही देखते बढ़ने लगे है लोग.
अभी कार्यक्रम शुरू नहीं हुआ, अंदर
बाहर चहलकदमी के बीच वन टू थ्री हलों.............. हलों. सुन रहा है, बरामदे में हेलोजन की पीली रोशनी में
समूह बनने लगे कि तभी एक महिला मोबाइल पर बतियाती दिखी जिसने तारापूर की हस्तशिल्प की क्रीम
रंग की साड़ी जिसपर काले रंग की तमाम आकृतिया बनी हुई है, पहन रखी
है. जो कह रही है,
‘‘जी...जी..... धन्यवाद........नहीं..........ये
तो पुरानी डायरी में से..... हॉं थोडा बहुत लिख लेती हू ....... हॉ. इसी शहर में रहती हू . हॉं. पीएचडी की है...... नही . डाक्टर नहीं लिखती मैं..... नहीं कोई कारण नहीं.......
पहले इधर उधर छुटपुट रचनाये भेजती रही. नहीं नहीं
वो तो बस यू ही कुछ
अखबारों पत्रिकाओ में भेजी है अभी ..
........... हॉं. पढ़ती हू ...
लिख नहीं पाती हू नियमित. कार्यक्रमों में नहीं जाती हू ........ लिखना अलग बात है....... शुक्रिया .........
जी.........'' वह युवती, हेलोजन
की रोशनी से बचने के लिए चेहरे को बचा रही है लेकिन उसका शरीर वही खडा है, जब वह शुक्रिया कह रही तब मोबाईल बाए
हाथ में है . गरदन अपने सिर को
झुका रही है. उसका शरीर भी धीरे
धीर झुक रहा है और भीड़ बढ़ रही है ..........उस पर नजर जाती है और
लोगों के कदम हल्के से ठिठकते है ......
पहचान के लिए. देखने के लिए........ ठंड से बचने के लिए जो स्वेटर था,
वह बंद नहीं था, थोड़ा सा पेट
दिख रहा था, वह बेखबर थी और शुक्रिया दोहराते हुए विनम्रता में तब्दील हो चुकी थी.
बाहर युवती है .... मोबाइल है......... मोटर साइकिल
है....... धूल है....... धुआं है......... पत्रकार है.
भीतर रंग बिरंगी रोशनी है......
कुर्सियां है....... अफसर है........ मातहत है.......... डीजे है.
रूकने वाले कदम एक नजर युवती पर.फिर दूसरी नजर भीतर कुर्सियों पर
डालते है. इसी दौरान धुआं बढता धूल इकट्ठा हो जाती है . आदमी या धूल धुएं से बचना चाहती है युवती?
इस युवती को देखकर प्रकाश को लगा कि वह सुबह धूल भगाती स्त्री जिसने घूंघट रखा
था, यह तो नही है ? तभी मंच से आवाज आई, ’’ कुछ ही समय में हमारे मुख्य अतिथि पधारने
वाले है, आप सभी से अनुरोध है
कि कृपया अपनी अपनी जगह पर बैठने का कष्ट करें.‘‘ सुना नहीं लोगों ने. सुना लेकिन बैठना नहीं चाह रहे... प्रकाश उस
स्त्री को देख रहा है. सुन रहा है .... इस कस्बे नुमा शहर में इस तरह के
सार्वजनिक कार्यक्रम में नहीं देखा था इस महिला को... लोगों के ठिठकते कदम भी बता रहे
थे कि अनजान
है महिला...वरना मुस्कुराहट,
नमस्कार....... हाल चाल पूछने जैसा कुछ कहते,
रूकते.
वह बोल रही है, चुप है. सुनती है........ अब उसकी गरदन
अपनी नियत
जगह पर सीधी हो गई.‘‘ नहीं......
नहीं आप इसे इस तरह से न ले....मै किसी कार्यक्रम में अतिथि नहीं
बनी...न हीं बनना चाहती हू . समाज..?... नहीं समाज का कार्यक्रम होने से ... समाज के
कार्यक्रम में तो मैं जाती ही नहीं... व्यंजन सज्जा. रंगोली के कार्यक्रम में मेरी रूचि नहीं है. पुरस्कार वितरण के लिए किसी और को
बुला लिजिए...... नहीं मैं खुद को इस योग्य नहीं समझती.... कहां जाउ? यह तो मैं तय करूंगी..... हां.... वे मेरे
ससुरजी है..... नहीं ससुरजी को आप भले ही कह दे....... आप समाज के है, तो.... ससुरजी तय नहीं करेंगे कि अतिथि बनू या
नहीं..... मेरा समाज..... मेरा धर्म... मेरी जाति,इन सबके बारे में मेरी अपनी सोच है . नहीं ....नहीं इंटर कास्ट मेरीज नहीं किया है.मेरी
कोई जाति नहीं है. यह मेरा मानना है. अपनी ही जाति में शादी कर ली तो इसका मतलब यह नही है कि मैं मुख्य अतिथि बनू..हर कार्यकम में
शामिल हो जाऊ . शुक्रिया .’’उसने मुस्कुराकर
कहा ,द्रढता के साथ .
कार्यक्रम शुरू हो गया. वह हेलोजन की रोशनी में आ गई. चेहरा दिखा उसका. युवा
महिला....गुस्सा था मासूम लगने वाले चेहरे पर, लगा वह वापस चली जायेगी.....पर रूकी रही. उसने मोबाइल को देखा....... क्या देखा होगा
उसने मोबाइल में.......? उस
आदमी को ? फिर मोबाइल पर्स मे रखा. पर्स की चैन
लगाई. पर्स को कंधे पर लटकाया. अब उसके दोनों हाथ खाली है, दोनों हाथों को चेहरे पर घुमाया.............
जो था तनाव जैसा उसे हटाने के लिए और संयत किया.......
लम्बी सांस
ली. स्त्री अंदर आयेगी या गाडियों की भीड़ में ... लोग आ
रहे हैं. भीतर से आवाज आ रही है..... ’’निरंतर घटती लड़कियों की संख्या आखिर इस
देश को कहां
ले जायेगी.....’’ यह युवा महिला कहां
जायेगी इस ख्याल के साथ आवाज सुनते सुनते प्रकाश भीतर चला गया.
उदघोषक कह रहा है, ‘‘हम लोग जगतगुरू
है, विश्व को राह दिखाने वाले......
मार्गदर्शक है, हम.... महान भूमि के
निवासी है.....
हमे गर्व है..... हमारी संस्कृति पर ..... महान संस्कृति है..... हम देवियों को पूजते है...... व्रत रखते है...... स्त्री लक्ष्मी है, दूर्गा है, सरस्वती है स्त्री.... हम पूजा करते है....... हम गौरवशाली परम्परा के वाहक
... हमे जैसे ही पता चलता है गर्भ में कन्या है......... हम हत्या करते है कन्या की...... हम
महान देश के निवासी है..... ’’
अंधेरा है, माइक से निकलकर डी.जे. से आवाज गूंज रही है और सन्नाटा पसर गया है. प्रकाश के दिमाग
में वह युवा स्त्री अभी भी खड़ी है. बाहर रोशनी है. कोने में वह स्त्री नहीं दिखती... क्या
वह चली गई होगी . कि तभी शुभा मुदगल की विडियो
दिवार पर टंगे हुए स्क्रीन पर दिखती है....... सुनाई देती
है......... ‘‘मोहे अगले जनम बिटिया ना कीजो....... ’’
अंधेरे में दर्द से भरी आवाज घुल गई और मन मस्तिष्क पर छा गई. तभी सिर्फ आकृति दिखाई देती है
मंच पर, कार्डलेस माइक के
साथ. ‘‘हम समय के साथ बदल रहे है. बदलाव यही है
कि आजादी के बाद से निरंतर लिंग अनुपात में कमी आ रही है.ये आंकड़े कन्या भ्रुण हत्या के है.......... हत्या करने के लिए तैयार है
हत्यारे....... हत्या करना हमारा धर्म रहा है.......... संदर्भ बदलते है........... लेकिन
हत्यारे वहीं रहते है......... हमारे घर के हत्यारे.......... अस्पताल के भीतर
हत्यारे......... हत्यारों कब तक करते रहोगे हत्या........... कब तक आखिर
कब तक ?
किसलिए करते हो हत्या ? हत्यारों....... पैसों के लिए....... पैसा......... सुपारी
लेने वाला हत्यारा....... भाडे का हत्यारा..... सम्मान के लिए.......
चारों तरफ
खडा है हत्यारा........ हम बेबस है .......? लाचार ............. है ? हत्यारों के साथ खडे है हम ..... हर तरफ है हत्यारा .....
हत्यारा........ हत्यारा........ हॉल में डी.जे .साउंड से कंपन करती हुई आवाज के
असर में है लोग . सन्नाटा है. हत्या के वक्त खामोश हो जाते है
लोग. कत्लखाने में है डाक्टर,
नर्स. बाहर जाने का सोचता है कि ख्याल में वह युवती आ जाती है. बाहर नहीं
है, जहॉ रोशनी है... न ही
उस कोने में है जहॉ खड़ी थी, कहॉ
गई इस कत्लखाने से...., परदे
पर भ्रूण के तुकड़े है, लाल
रक्त है.......... अंग अंग है........... सिर है. सफेद लिबास वाली स्त्री के हाथ में है
औजार, जो तुकड़े कर करके
बाहर निकाल रही है............. चीख है, दर्द है........ मासूम कन्या है जिसे निरंतर काटा जा रहा है....... आपरेशन थियेटर
...... न न .... कत्लखाने में........
क्षोभ ,गुस्से से
भरा है प्रकाश . मोबाईल के वाइब्रेट की आवाज से प्रकाश की नज़र आगे वाली कुर्सी पर जाती है.
अगली पंक्ति की कुर्सी पर निरंतर वाइब्रेट होते मोबाईल की हल्की नीली
रोशनी से बेखबर बैठी है. प्रकाश को लगता है भ्रूण अभी जिन्दा है. साबुत है.
bhaut hi khubh pernadayak
जवाब देंहटाएंकैलाश जी !आपने कहानी में पात्र "प्रकाश" की मनः स्थिति को बहुत ही संवेदनशील तरीके से व्यक्त किया है ! हाँ ! कई जगह थ्रेड्स की वजह से तारतम्यता खंडित सी दिखाई दी लेकिन मूल प्रभाव बरक़रार रखा आपने ! सार्थक प्रयास है आपका ! ढेर सारी बधाई!
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