दुनिया में बस मां ही जाने, कोई बच्चा क्यों रोता है?


अश्वनी शर्मा 

जिस समाज में धनीक वर्ग द्वारा अपार शोषण के बाद कुछ दान देकर अपने को अमर बनाने का अथाह करोबार हो और उसे एक बड़ा समुदाय यह कहता कि यह तो उनका कल्याणकारी कार्य है। उस समाज के विवेक बोध को समझा जा सकता है। वह समाज जिस तरह की धर्मभीरुता और अंधश्रृद्धा का शिकार है वही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन है। अगर मनुष्य का इतिहास उसके श्रम संघर्ष का इतिहास है तो उसमें जिस श्रमशील वर्ग ने मेहनत की उसे उसका प्रतिफल मिलना चाहिए। अश्वनी शर्मा का गजल संग्रह ‘वक्त से कुछ आगे‘ हर मनुष्य को स्वतंत्रत और विवेकवान होकर जीने की बात करता है।

ख्वाहिशें, बॅदिशें,साजिशे लाख हों
भूल पाया नहीं धड़कना आदमी।
एक पाकीजगी है जो कायम रही
यंू गलाजत में कितना सना आदमी।

आदमी अपनी जीवन यात्रा में हर तरह के संकटों का सामना करते हुए अपने को महसूस करता चलता है। वह अपनी आवाज सुनता है। उसके भीतर एक पाकीजगी बची रहती है। 

दुनिया में बस मां ही जाने
कोई बच्चा क्यों रोता है।

मां मां ही होती है। मां इस बात को समझती है कि उसकी संतान चाहे कितनी भी परायी हो या बेगानी हो उसके लिए वह अपनी ही होती है। हमारे समाज का यह विचित्र स्वरुप है कि हम कब भाई से रिश्तेदार में बदल जाते हैं और कब अपने मां-बाप का घर पराया हो जाता है, इसका कुछ भी पता नहीं चलता! दुनिया में इसी तरह सेे मानव समाज बंटता चला आया और विचित्र तरह से विभाजन होता गया। अश्वनी शर्मा की गजलों में कहीं लोक जीवन बोलता है तो कहीं रेगिस्तान के जीवन का बीहड़ संघर्ष! जहां मनुष्य जीने के लिए रेत के टीलों के बीच भी जिंदगी की जद्धोजद्ध करता रहता है।

लाख अभावों के जीवन में
भाव सदा ही रह जाता था।

इस शेर को पढ़ने के बाद त्रिलोचन की वह पंक्ति याद आती है कि

यह भाव उन्हीं हैं जो थे अभावमय
पर अभाव से दबे नहीं, जगे स्वभावमय।

यहां कुछ ऐसा ही है कि जहां जीवन की राह आसान नहीं होती वहां मनुष्य संघर्ष भी डटकर करता है और वह अपने अभावों को भावों से भरता जाता है। वह अपने हौसलों के सहारे जीवन के तमाम संकटों का सामना करता है।

कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं होता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारो।

हर मनुष्य को संघर्षों की भट्टी में तपना होता है। सफलता का कोई शर्टकट नहीं होता! मनुष्य महज बातों से किसी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता! उसमें धैर्य और संयम होगा तभी जाकर वह अपनी जिंदगी को संवार सकता है।

बच नहीं पाती आघातों से जिंदगी
कहां संवर पाती है, बातों से जिंदगी।
घुट-घुटकर जीना भी क्या जीना है प्यारे
आग जगा इसमें, ये भी सीना है प्यारे।

जिस समाज में हम रहते हैं वहां एक तरफ तो विज्ञान और तकनीक का विकास चरम पर है वहीं उसी समाज में जड़ता और विभाजन की अनन्त रेखाएं हैं। जैसे-जैसे समाज ने आधुनिकता को अंगीकार किया वैसे-वैसे समाज में जाति और धर्म के नाम पर विभाजन गहरा किया गया। तमाम साम्प्रदायिक ताकते तरह-तरह से समाज को तोड़ने की कोशिश करती रही। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर समाज में अजीब तरह की समस्या जो जन्म दिया गया और मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकताओं के सवालों को उत्तरोतर नकारा गया। जिसमें धर्म और पूंजी का गठजोड़ कर समाज के विवेकबोध को सदैव धर्मभीरुता का शिकार बनाये रखा। आज जिसे हम वैज्ञानिक युग के रुप में देखते हैं उस समाज में कितनी अंधश्रृद्धा और धर्मभीरुता है? उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जातिवाद। यहां हर जाति अपने से नीचे की जाति ढूढ़ लेती है। 

क्यों रास आये उनको तुर्शी कलाम की
आदत जिन्हें पड़ी हो फर्शी सलाम की।
गो बात वो करेंगे सारी अवाम की
स्ुनने को पर सुनेंगे शाही इमाम की।
बज्म में जिक्र आम होता है
आदमी क्यों गुलाम होता है।

यह अजीब है कि मनुष्य आर्थिक समृद्ध होकर भी अपने को मानसिक रुप से आजाद नहीं करता। ऋतुराज की एक काव्य पंक्ति है कि

  चाकर भी चाकर का चाकर होने पर
 अपने को औरों का मालिक समझता है।

मनुष्य समाज में व्याप्त गुलामी का क्रम यही है। जो ज्यादा ताकतवर है वह कम ताकतवर को अपना गुलाम बनाकर अपने को मालिक समझने लगता है जबकि वह स्वयं भी चाकर ही होता है। यह सामा्रज्यवाद की ही देन है कि जो जितने लोगों और जितनी धरती पर शासन कर सकता है वही उतना बड़ा है। वही विजेता है। जबकि मनुष्य और मनुष्य बराबर है। प्रकृति ने हर मनुष्य को समान बनाया है, पर मनुष्य ने ही तमाम तरह के विभेद पैदा कर समाज को बांटा है। यह विभाजन सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगालिक स्तर पर किया गया। जिसके परिणाम हम आये दिन देखते हैं।

नफरतों से जब कोई भर जायेगा
काम कोई दहशती कर जाएगा।
काश कोई इन धमाको को कहे
नींद में बच्चा कोई डर जाएगा।

इस दहशत भरे वातावरण में मनुष्य की संवेदना उसको पानी की तरह तरल बनाये रखे, यही उम्मीद और आशा है।

मुझको पानी सा कर गया पानी
जब भी आंखों में भर गया पानी।

‘वक्त से कुछ आगे‘
अश्वनी शर्मा
बोधि प्रकाशन,जयपुर
मूल्य- पच्चीस रुपये
प्रकाशन-2011


योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-


कालुलाल कुलमी
(केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर शोधरत कालूलाल मूलत:कानोड़,उदयपुर के रेवासी है.)

वर्तमान पता:
गांव-राजपुरा,(महादेवजी के मंदिर के पास) पोस्ट-कानोड़,मो.--08947858202
 जिला-उदयपुर. राजस्थान 313604
SocialTwist Tell-a-Friend

1 टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने