बातचीत
और करीब
तनिक और, और करीब आओ
इस कविता के पास बैठ जाओ
पढ़ो, देखो शब्दों को फिर-फिर
और सोचो
बल मत दो माथे पर
रखो छाती पर हाथ
कर लो पलकें बंद
कुछ देर के लिए ही
और हो सके तो हो जाओ ध्यानस्थ
देखो, जरा और करीब से देखो
एक कहानी थरथराती मिलेगी
प्रायः धूसर रंग में, किसी कवि की
उस कहानी में दिखेगा जरूर
एक आदमी तल्लीन
अपने से करता संवाद
कभी उदास, कभी हो कर प्रफुल्ल
सुन सको सुनो
उस बातचीत के हजारवें अंश को
उसमें केवल हमारा सुख-दुःख ही नहीं शामिल
पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी शामिल मिलेंगे
लोगों का कहना है
वह आदमी बातचीत करने के भी लायक नहीं
बेचारा, मतिभ्रम का मारा है ।
निहाल होने के दिन
एक कामकाजी आदमी के लिए
जब निहाल होने के दिन थे
रिटायर हुए उसे कुछ ही दिन हुए थे
और बत्तीस दाँतों के बीच में जीभ की तरह
बत्तीस बरस बिता कर
वह बाहर निकल आया था
ऐसे सुदिन में
एक कागज पर मगजमारी करते, बड़बड़ाते
हमेशा लगाता रहता हिसाब-किताब
पता नहीं क्यों !
वह सात में पाँच जोड़ता
और बारह लिखता
फिर खुश हो
बारह में अठारह जोड़
उसमें से घटा देता तीस
हर बार बाकी बचता फुस्स
और वह फिर उदास हो जाता
जब-जब वह उदास होता
फाड़ देता कागज
फेंक देता खिड़की से बाहर ।
अदृश्य का दृश्य
पहली कविता उस बनिहारिन के ऊपर थी
जो बाप-दादा के खेतों में खटते
जवानी के दिनों में ही ठँूठ पेड़ की तरह
श्रीहीन हो गई थी
गाँव के दक्षिण टोले में रहने वाली वह औरत
जब भी मुझे देखती, मुस्कुराती
बबुआ जी कह कर बुलाती
और मैं हर बार पश्चाताप करता घर लौटता
कि जिस घर ने हरण किया उसका जीवन
उसी घर के लड़के को यह संबोधन
किसी बद्दुआ से कम नहीं
दूसरी कविता उस बेइंतिहा खूबसूरत औरत पर थी
जो उम्र में मुझसे कई वर्ष बड़ी
लंबे-घने काले बालों वाली गजगामिनी थी
जिसका पीछा करते एक चौथाई घूम लिया था
कोलकाता शहर की गलियों को
और आखिरकार पता चला था
पैराडाइज थियेटर के सामने वाले बस स्टॉप पर
कि वह कोई नागकन्या नहीं
अलग-अलग जगहों पर अपने रूप की छाया में
देह बेचनेवाली, एक मामूली वेश्या थी
मुझे अपने पर हँसी आई
कि जिसका काम था ढूँढ़ना ग्राहक
उसे कहाँ-कहाँ मैं ढूँढ़ता रहा
अच्छा हुआ उसने, मुझे ग्राहक नहीं समझा
और मेरा मान रख लिया
जो देखा, समझा, जाना
उन पर लिखीं कई-कई कविताएं
वे सिर्फ बाहर-भीतर की बात नहीं
उनमें बहुत कुछ है मेरे बारे में भी
जो मुझे भी पता नहीं
कभी कोई ढूँढ़ लेगा मुझे
मेरे नहीं रहने के बाद ।
इन दिनों-याद भाई
कैसे हो याद भाई !
क्या हाल-चाल है
बिसरा के गये तबसे
मेरा बहुत बुरा हाल है
गैर तो गैर, अपने भी
बिना जरूरत नहीं करते याद
मैं किसी को याद आऊँ, मन ही मन
करता हूँ फरियाद
जो भी मिलता
हड़बड़ी में मिलता
चिहा कर देखता
कुछ याद आने के पहले
फिर भूल जाता
कोई किसी को याद आए
किसी युद्ध से कम नहीं
यह कैसा रोग लगा के
टकस भये याद भाई
हमारी याद कभी आए
तो लौट आना याद भाई ।
आँखों की चमक
कई दिनांे बाद
जर्द चेहरे पर
लाली झिलमिलाई है
कवि के संसार में
कविता की एक पंक्ति
उतर आयी है
शुष्क खेतों में
झरने लगी हैं वर्षा बूँदें
वनस्पतियों की काया हरियाई है
भौरों ने फूलों के कान में
सीटियाँ बजाई है
रँग चुकी पृथ्वी होंठ
कबूतरों ने पाँखें खुजलाई हैं
रोम कूप तक खुल चुके कवि के
दिन तो दिन, रात भी
अपनी सूरत बदल कर आई है
कई दिनों बाद
उँगलियों में नृत्य कर रही कलम
और इस आत्ममुग्ध, बाजारू समय में
जब उम्मीद को भी बचपना लगे
उम्मीद की बातें
कवि की आँखों की चमक
फिर लौट आई है ।
रूपनारायणपुर
सामने घूम रहा था रूपनारायणपुर
किसी कोने में दुबका
लाजुक, जनविहीन
प्यारा रूपनारायणपुर
उस कवि की तरह मैं भी
कहाँ भूल पाया, जो देखा था
रूपनारयाणपुर में
सिर्फ रूपनारायणपुर को
कभी उतरा नहीं उस स्टेशन पर
जो देखता
रूपनारायणपुर का रूप
घूमता और ढूँढ़ता
नारायण को
हजारों स्टेशनों से गुजरना पड़ा
कहीं न कहीं पहुँचने के लिए
पर हर स्टेशन में खोजता
रूपनारायणपुर ?
इस पार से
पहाड़ के उस पार
आदिमरात्रि की महक
वर्षा, ताप और अभाव
रोते-बिलखते बच्चे
जवानी में बूढ़ी होती औरतें
असमय मृत्यु की बाट जोहते बूढ़े
वहाँ, पेट ही पहाड़
चलो, कुछ रचा जाए
उस पहाड़ पर ।
सुखबर
बहुत दिनों बाद
कुहासे में डूबा
ठंढ से ठिठुर रहा था
मेरा शहर
दूर से लगा
ढ़िबरियाँ जल-बुझ रही हैं यहाँ-वहाँ
सोंख लिया है
शहर के चकमक को
कुहासे ने
बड़ा भोला, प्यारा-सा लगा
मेरा शहर, पहली बार
ठहरा हुआ, चकमक से दूर
अपने शहर को बताऊँगा जरूर
यह सुखबर ।
पहचान
फूट-फूट कर रोने के बाद
स्नान किया स्त्री ने, और जब
आईने के सामने खड़ी हुई तो
कोई और ही खड़ा था उस दिन
चमक रही थी कटवर्क की साड़ी
मैच करता ब्लाउज
दमक रही थी सोने की चूड़ियाँ
डोल रही थी कानों में बालियाँ
स्त्री आज से
अपने मकान के अहाते में
घूमेगी शान से
सज-सँवर कर जाएगी हाट-बाजार
आज से आस-पड़ोस में किसी को
पहचानेगी नहीं
आज से लोग
उसे पहचानेंगे ।
अपत कँटीली डार
आँख खुले हमारी
इसीलिए तो छपते रहे अखबार
टी.वी. पर खबरिया चैनलों की भरमार
चर्चाओं, विचार-विमर्श और घोषणाओं का
विकसित होता बाजार
आँख खुली तो खुली हैं बरसों से
छपते रहे अखबार
पल-पल बदलती दुनिया के साथ
गबन, लूट, बलात्कार और हत्याओं के
बदलते रहे दृश्य
खुली आँखों से क्या हुआ !
कुछ बदला क्या !
कहीं अमीरों की गाड़ी लेट हुई !
गरीब चढ़ पाए गाड़ी पर !
जो पीछे थे, क्या आगे हुए !
जो आगे थे,
देखा मुड़कर कभी पीछे एक बार
खुली आँखों ने जो देखा
बंद आँखों के सपनों को भी
फालिज मार गया
ऐसे हुए कठकरेज कि
जीने का एक बहाना, हमारे आँसू भी
आँखों में सूख गए
मालिक लोगों से इल्तिजा है
कुछ दिन बंद रखें चैनल
न छापें अखबार
स्थगित करें चर्चाएं
बंद करें विचार-विमर्श
खुली आँखों की दुनिया को
आँख बंद कर करने दिया जाए जज्ब
ताकी कभी दिखे हमें भी, आर-पार संसार
क्या हमारी दुनिया है
सिर्फ अपत कँटीली डार ?
खुशरंग तितलियाँ
छुटपन में तितली पकड़
हथेली पर रख निहारते रहना
न जाने उसे सुकून मिलता था कैसा
बच्चा ही तो था !
एक दिन एक तितली के पर टूटकर
रह गए उसकी उँगलियों में
डबडबा गई थीं आँखे उसकी
यह सोचकर कि
अब तितली कभी उड़ नहीं पाएगी
धूल, पाँक-कीच में गिर मर जाएगी
वह रोता रहा झर-झर
बच्चा ही तो था !
फिर उसने कभी
किसी तितली को पकड़ने की जिद तो क्या
कोशिश भी नहीं की
अधेड़ होने के बाद भी
वह तितलियों को ढूँढ़ता
उन्हें देखता, मुस्कुराता जाने क्या-क्या सोचता
न जाने क्यों उसे यकीन था
कि इन बहुरंगी तितलियों के कारण
यह दुनिया, आदमजात का आशियाना है
तितलियों को सताने वालों को
वह शैतान मानता
जो हमशा से भगवान की बनाई दुनिया में
मौजूद हैं सौन्दर्य का विलोम बनकर
इन दिनों वह उदास, बहुत उदास
रहता है दोस्तो !
जब तितलियों को किसी हथेली पर
रक्स करते
और खुशरंग देखता है ।
अनुवाद
न छुई जा सके
देह
न सूँघा जा सके
गंध
न लिया जा सके
रस
न समझा जा सके
मर्म
फिर भी काव्यप्रेमी
पढ़ते
दुनिया भर की
कविताओं के अनुवाद
अब उस प्रेम का
कौन कर सकता अनुवाद ।
ढील हेरती लड़की
ट्रेन के इंतजार में
उबे हुए लोग
जब ऊँघने लगे थे प्लेटफॉर्म पर
सैकड़ों आँखों से
तुम ढील हेर रही थी लड़की
इस तरह लीन थी
जैसे तुम्हें चुनना है
सड़क से एक-एक कंकड़
फसलों से साफ करनी है
एक-एक खर-पतवार
तुम्हें पता कहाँ होगा !
बहुत सारे लुप्तप्रायः गीतों व दृश्यों की तरह
तुम्हारा ढील हेरना
कभी सुनाई पड़े किसी लोकगीत में
दिखाई पड़े किसी चित्र में ।
ऐसा क्यों कविते
असमय जागना
असमय सोना
असमय खाना
कोई भी काम नहीं समय पर
क्षणभंगुर इस जीवन में
जिसके लिए
सबकुछ असमय
लाख बुलाने पर भी
कभी समय पर
वह आती नहीं पास
ऐसा क्यों कविते?
सलामत
इस बार भी
जब गाँव में आग लगी
सिर्फ झोपड़ियाँ जलीं
बकरी बेंच रखा था
टूटी खपरैल बदलवाने को
बुढ़न काका की वह सारी रकम
खाक भई
बरसों खरीदी गई
शोएब मियाँ की लुँगी-बनियान
राख हुई
गाँव के दक्षिण
धूल के साथ, उठता रहा धुआँ
निरखती रही कौओं की पात
सलामत रहे, ईंट के मकान
हरखते, झोंपड़ियों की दशा पर
चले थे हमसे आँख मिलाने
पिछड़े कहीं के !
झोंपड़ियों में कानाफूसी हुई थी
जलने से पूर्व
कि सदा-सलामत नहीं रहता
किसी का गुरूर ।
अदूरदर्शिता
निकट को अनदेखा कर
न समझ, न जान
देखना दूर, बहुत दूर
ऐसी दूरदर्शिता का आशीष
अब नहीं दीजिए बाबा
ज्ञानी, गुणीजन
अग्रज, चिंतकगण
देना ही है
तो दीजिए
हम में भरे-अदूरदर्शिता
कि देखें पैर तले की जमीन
बहुत हो गई दूरदर्शिता !
ऐसे मनस्वी शब्दों को
अब किताबों में
विश्राम दीजिए बाबा ।
तौल
दूसरे के बाट से
तौलोगे जब भी
स्वयं को
हमेशा कम रहोगे
तौलोगे तुम भी
दूसरे को
हमेशा ज्यादा रहोगे
सब इस तराजू का खेल है
जिसे बनाता है हर कोई अपने लिए ।
भाग्यवान
यह सोचना भी कि
होता भाग्यवान
मुझे हमेशा अभागापन लगा
शायद इसीलिए, तुमने भी
मुझे नहीं समझा अपने लिए सौभाग्यवान
मुझसे दूर
तुम चली गई, सौभाग्य के साथ
मुझे क्यों होता दुख ?
क्यों न होती खुशी !
अब तुम्हें भी,
जीवन भर पढूँगा
जीवन भर लिखूँगा ।
चुटकी भर दुख
यही तो कह कर गया था
कि लौट आऊँगा
पर अभी तक नहीं लौटा, मेरा दुख
कहा था उसने
कि मुझसे अच्छा दोस्त
उसे कहाँ मिलेगा !
जो सुख में भी
अपने दुख से खुश रहेगा
उसने ही बताया था
किसके मन भाता है जाना अकेले
किसी मरियल स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर
अखबार बिछा कर सोना
और ऊँघते रहना शंटिंग ट्रेन की तरह
सिर झुकाये, चिंतामग्न देख मुझे
अड़बड़ाते-बड़बड़ाते गया था
न जाने क्यों, कह रहा था !
कि अब छोड़ देगा मेरा साथ
जो मुझे जानते हैं, उन्हें बतायेगा
कि कैसे मोरपंख की भाँति
किताबों के बीच
उसे सहेज कर रखता हूँ
और दुनिया से करता रहा छल
अपने सुख को दुख बताकर
वह ढ़ाह देना चाहता
एक-एक ईंट
जिससे बना लिया मैंने
एक छोटा-सा घर
और काट रहा जिन्दगी
कैसा वक्त है भाईयो !
सुख तो सुख
दुख से भी सहन न हुआ
मेरा चुटकी भर दुख !
अभी तक वह नहीं मिला
और उसे मैं
ढूँढ़ने में लगा हूँ
गाँव-गाँव, नगर-नगर, डगर-डगर
न जाने,
कहाँ छुपा है ? पहली बार
मुझे अकेला छोड़ कर ।
शहाब भाई की कविता
न सुंदर, न धनी, न आकर्षक, न क्यूट
न किसी कोण से फोटोजेनिक
बैठते तो बैठे रहते
खड़े तो खड़े रहते
कुर्सी पर बैठते ही ऊँघने लगते
लुढ़क जाती गर्दन
मुँह से निकलती रहती लार
किसी स्टेशन पर बैठ जब करते
ट्रेन का इंतजार
आने-जाने वाली हर ट्रन को देखते
किसी अजूबे की तरह
सवारियों में कुछ ढूँढ़ते
और तुड़ा-मुड़ा एक कागज निकाल
हठात् कुछ लिखने लगते
आँख बंद कर रह-रह बुदबुदाते
फिर चाय की चुस्की लेते
निकल जाते स्टेशन से बाहर
कागज को फाड़
कागज पर कुछ कविताएं भी सहेज कर
कभी नहीं रख पाए शहाब भाई
पर जब कभी वे बोलते
मैं अपनी कविताओं के लिए
इकट्ठा करता शब्द और पंक्तियाँ
उन शब्दों के साथ
नए-नए इलाकों में
घूमने-फिरने जाता
और चाक्षुष बिंब लिए लौटता
वे जब चुप रहते, साथ-साथ चलते
मैं कविता के लिए ढूँढ़ता कोई नया विषय
अब मैं बरसों से ढूँढ़ रहा
शहाब भाई को
उनकी बहुत सारी अधूरी कविताएं
मैंने कर ली हैं पूरी
कब ! किस गाड़ी से? कहाँ चले गए शहाब भाई
पता ही नहीं चला
कुछ लोगों का कहना था
वे पागल हो गये थे
किसी ट्रेन में बैठ गए होंगे
दूरदराज के सुनसान स्टेशन पर
कभी उतर गये होंगे
और मर-शिरा गये होंगे
उनकी कविताओं को
जब-जब देखता हूँ
हर-पन्ने पर लिखा मिलता है
शहाब भाई, शहाब भाई, शहाब भाई
और जोहता हूँ
कहीं किसी सड़क पर, रेल की पटरियों के किनारे
किसी पार्क के बेंच पर अधलेटे
मिल जाएं शहाब भाई ।
बेवजह का दिन
दिन भर
थक-हार कर
आज बैठना भी नसीब न हुआ
होती रही
हँसी-ठट्टा, भागदौड़
फोन पर बातचीत, गप्प-शप्प
किसी अपने से
आज मिल न सका
पहली बार, उदास
कुछ देर चिंतामग्न हो
डूब जाने का वक्त न मिला ।
एक वृद्ध रिक्शाचालक के नाम
रिक्शा ही उनका घर, दालान
बगीचा और खेत-खलिहान
उसमें उन्होंने खिला रखा है
एक फूल
पँव बराबर हरी-भरी दूब
बोरे में बस रखी है
एक थाली, एक गिलास
एक धोती
एक फटा-पुराना बदरंग कुर्त्ता
उनकी बूढ़ी हड्डियाँ
पुराने रिक्शे को खींचते
जब होने लगती हैं हलकान
तब वे फिर-फिर भरने लगते
सीने में साँस
और वैसे में किसी नायक जैसे लगते हैं वे
जो मृत्यु की आखिरी साँस लेने से पहले
अनथक लड़ता रहता शत्रु के खिलाफ
पेट और संसार के अंतर्संबंध की कथा
वे वेदव्यास की तरह कहते
पर उस कथा की व्यथा को समझने की फुर्सत
आज किसी के पास नहीं
सभी को कहीं न कहीं पहुँचने की जल्दी ।
सर्वसम्मत
यहाँ लिखने भर को
धर्म-सम्मत
तर्क-सम्मत
विवेक-सम्मत
पढ़ने भर को
न्याय-संगत
विधि-संगत
कहने भर को
नियम-सम्मत
शास्त्र-सम्मत
मगर हमेशा से
कुछ लोगों के पास
एकाधिकार
जो करते रहे
फैसला सर्व-सम्मत
अब हमारे जनतंत्र में
सभी को छूट, समझते रहें, सब कुछ को
अपने ढंग से स्वतंत्र हो कर ।
वे कुछ अग्रज हमारे
उन्होंने सिखाया
प्यार के रूमाल में रखना विष
कमीज की जेब में रखना
ईर्ष्या, द्वेष, जलन, चिढ़
पतलून की जेबों में
रखना फरेब, धोखा, मक्कारी
और घृणा को
मुस्कान के सात तह में छिपाकर
उन्होंने सिखाया
हरेक आदमी पर करना शक
मिलना सभी से
पर नहीं करना किसी पर ऐतबार
वे अनुभवी, रसूखदार लोग थे
जिन्होंने हमें जीवन का ककहरा पढ़ाया
वे ही लोग तमाम गोष्ठियों, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं
और अपनी किताबों में
तड़पते, कलपते रहे
मनुष्यता के रसातल में चले जाने
और समय के कुरूप हो जाने पर
लिखते रहे
वे हमेशा उचारते रहे कि
संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं
मगर आपस में भीतरघात कर
हमें घात-प्रतिघात का पाठ पढ़ाते रहे
बेदाग न बचे कोई
इसके लिए करते रहे, एक-दूसरे को दागदार
और हमेशा दो मिनट का मौन साध
दिवंगत को श्रद्धांजलि देते रहे
मौकापरस्ती तो कोई उनसे सीखे
कब उल्टा, कब सीधा चलें
कि स्वयं उनको भी कभी पता न चले
वे एक से बढ़कर एक बहुरूपिए
हमारे अग्रज तुल्य
शायद यह नहीं समझ पाए
कि सबसे पहले उन्हीं से
हमारा उठ गया विश्वास
आज उन्हें भी शिकायत है
अपने अग्रजों का इस शहर में
कोई नहीं करता सम्मान ।
कागज-कलम
कमीज की जेब में
महीनों रखा रहा
दो-तीन तुड़े-मुड़े कोरे पन्ने
कि जब कभी
कौंध जाए कोई भाव
गहन हो जाए विचार
तो उतार लूँगा कुछ पंक्तियाँ
लिखने के लिए कविता
पर नहीं आया कोई भाव
कि करता विचार
और अंततः फेंक दिए पन्ने
फाड़कर डस्टबीन में
हफ्ते-महीने बाद सड़क पर चलते
देखा सड़क किनारे, कोयला फोड़ते
कोयले के रंग में रँगी औरत को
जाने क्या जादू था उसमें
कि मैं भी डूब गया
कोयले के रँग में
आज कागज जेब में नहीं
कलम किस पर लिखे ?
जंगबहादुर उर्फ जँगली
जंगबहादुर कब बन गए जंगी
और फिर कब हो गए जँगली
खुद उनको भी पता नहीं चला
माँ-बाप ने कभी बड़े अरमान से
उनका रखा होगा नाम
पर भरी जवानी में भी
नहीं था उनकी देह पर
पाव भर माँस
न पैर मंे चप्पल
कपड़ा वही जो मिल जाए-फाटल-पुरान
तीज-त्यौहार, किसी के तिलक-विवाह में
बच्चे तक उनसे करते मजाक
कि अब आएंगे घर उनके ससुर जमराज
दुल्हिन मरन कुमारी
शादी तो तै है कब से
पचाठी हजार नकद पर
नालिश और शिकायत करते
उन मनबढ़ुआ लड़कों का
और उसी बहाने, दया का पात्र मान
उनके घर वाले, कभी करा देते नाश्ता, खिला देते खाना
जंगबहादुर, पेट के लिए जंग लड़ते
बुढ़ापे में बन गए जँगली
जब भी दिखते गाँव में
किसी भुतहा पेड़-सा लगते
जहां से गुजरते, लगता
उनके साथ-साथ चल रहा है जंगल
भूख और चीख की आवाज लिए ।
साथ
दोस्तो, वह मोहभंग का समय था
कि जब पूरा का पूरा शहर
हँसी, ठहाकों की गूँज के साथ
भाग रहा था, नाक की सीध में
प्श्चिम की तरफ
मैं निपट अकेला, चुपचाप
बुखार में अर्राता-बर्राता
जा रहा था पूरब
भारी कदमों से
मेरे आगे, पीछे भी
मेरे जैसे लोग थे
पश्चिम के सफर के खिलाफ
हँसी, ठहाकों से अलग
अपने में लीन
न हमारी देह में उतनी ताकत
न जेब में उतनी बरकत
न कोई क्रांतिकारी सोच
हाँ, एक बात थी जरूर
हृदय, भाव से भरा
और कुछ कविताएं
साथ थीं कागज पर ।
कामरूप
यहाँ काम रूप बदल कर
रोज सांझ को निकलता है
हो न हो, होगा
यहीं का निवासी
पर उपलब्ध नहीं कोई ग्रंथ
जिसमें ढूँढ़ ले कोई
इसका प्रमाण
यहाँ रहती हैं जादूगरनियाँ
जो बना देती हैं आदमी को पशु-पक्षी
अजब उनका रूपजाल
गजब मायाजाल
दादी, नानी से सुनी-सुनाई बातों का
कोई, कैसे खोज ले आधार
पर इतना तय है
कि अपरूप को भजता पुरूष
यहाँ पहुँच बन जाता होगा बुत
निहारते सौन्दर्य को एकटक
आता होगा जिस गाँव, नगर से
बिसर जाता होगा, उससे लौटने का पथ
जितने लोग, उतनी तरह की बातें
कथा, किंवदंतियाँ यहाँ के बारे में
पर कभी, किसी ने पूछा नहीं होगा
सोए पड़े बाँसवनों से
कामरूपिणियों की व्यथा
दूर-दूर तक फैले वन-प्रांतर में
रह-रह होती बूँदाबादी
और उसमें घुलते सौन्दर्य से
कभी किसी ने पूछा नहीं होगा
कि तुम उदास, पतक्षण क्यों बने हो
सैकड़ों-हजारों साल से
काम और रूप की
निःशब्द कथा, कहता है कामरूप ।
क,ख,ग
आँखों के सामने प्रत्यक्ष रहें
कवितामय शब्द, पंक्तियाँ
उसी के लिए दिन भर में कुछ घंटे
हर घंटे में कुछ मिनट
और मिनट में कुछ पल ढूँढ़ता रहा वह
पत्नी के साथ पति
बेटा-बेटी के साथ पिता बना रहा
मगर भीड़-भरे प्लेटफॉर्म पर भी
कविता की पंक्तियाँ बुदबुदाता रहा
बाबूजी के सामने बचपने में भी
बोल-बोल कर अंग्रेजी की किताब रटता रहा
और नजर बचाते, पाठ्यपुस्तकों के बीच
कहानी, कविता की किताब पढ़ता रहा
बस, इतना भर सचेत रहा कि
हो न जाए किसी क्लास में फेल
और बाबूजी की नाक कटने से बचाता रहा
मौका नहीं दिया भाई-बहनों को
यह कहने का
कि जब आगे का हल ही मुड़ गया
गलत लीक पर
चलें हम कैसे लीक पकड़कर
एक अदद पेटभरूआ नौकरी के लिए
वह सालों-साल रटता रहा
नहीं, पहाड़, फूल, पेड़, पौधों से लेकर
राजा-महाराजाओं, प्रधानमंत्रियों-राष्ट्रपतियों के नाम
कॉपी में लिख-लिख काटता रहा
गणित के सवाल
मगर ऐसे में भी अपने प्रिय कवियों की कविताएं
हमेशा रखा रहा पास
जिनसे जितना लिया
उन्हें उससे अधिक चुकाने में लगा रहा
ताकि रहे नहीं किसी को, बिन्दु भर शिकायत
पर आज तक कोई नहीं मिला
जो हुलस कर एक बार कह देता
कि जाओ, आज दिन भर
लिखते रहो, पढ़ते रहो
अपने जीवन का - क, ख, ग
अब बहुत हुआ, दुनिया में, दुनिया का
देना-पावना ।
घोड़ा और घास
घोड़ा भी क्या करे !
नहीं चरे घास
तो मरे
और घास भी क्या करे
अप्रतिरोध को अभिशप्त
भवसागर के बीच
हम ढूँढ़ते रहे वह द्वीप
जहाँ मित्रता हो कभी
घोड़ा और घास की
आम और खास की
इस मित्रता के लिए
नाव पर हिचकोले खाते
चलो, आज एक और कविता लिखते हैं ।
सुखमय प्रस्थान
अभी कुछ देर पहले
गली के एक मकान से
श्मशान-घाट के लिए निकला है
एक वृद्ध का शव
कुछ दिन पहले ही
वे पिला रहे थे डाँट
सब्जीवाली को, बेडौल तराजू रखने के लिए
कुछ दिन पहले ही
वे पैदल गये थे बाजार
अपनी बड़ी पतोहू के लिए खरीदने
आँवले का आचार
कुछ दिन पहले ही
अपने मकान के गेट को, नए ढंग से
करवाया था निर्माण
जो उनके मकान को बना रहा था भव्य
कुछ दिन पहले ही
अपने किराएदार को
समय पर किराया नहीं देने के बदले
किया था निकाल बाहर
गली के लोगों की राय थी
अच्छा हुआ हँसते-खेलते, चलते-फिरते,
खाते-पीते चले गए
इन दिनों इससे अच्छा
और क्या हो सकता है
सुखमय प्रस्थान ।
चल चंदनवा
चल चंदनवा दिल्ली-बंबे
कमायेंगे, खायेंगे, हमारा भी होगा बल्ले-बल्ले
संसार की सुन्दरता, टी.वी. पर देखेंगे
फिल्मी सितारों से हम भी मिलेंगे
शेयर बाजर में पैसा लगायेंगे
यूरोप-अमरीका की, जिन्दगी को जियेंगे
वहाँ पर लगता है विमर्शों का मेला
गोष्ठी, सम्मेलन, सेमिनारों का ठेला
चर्चा और चिंतन में खूब भाग लेंगे
बुद्धिजीवी बन, ठाट से रमेंगे
दौलत-शोहरत और ताकत के इस देश में
दिन-रात कमाएंगे इज्जत-आबरू बढ़ायेंगे
जब जैसा, तब तैसा हाल बखानेंगे
अपने गाँव, अपने देश से भी
बड़ा है बाजार चंदनवा
जिसके चाकर हैं, आम और खास चंदनवा
उसी के परताप से चल रहा यह देश चंदनवा
वह नहीं चाहता, इस देश में गरीब रहें
माथे पर रख हाथ, तकदीर पर सिसकते रहें
उसे घृणा है बेबसी, दरिद्रता के दृश्य से
इसीलिए दिन-रात वह, हॉलीवुड-बॉलीवुड के फोटो चिपका रहा
हर चमकदार चीज को गाँव-गाँव बंेच रहा
हर आदमी, मकान को दुकान बना रहा
क्रिकेट की एक-एक गंेद
करीना के एक-एक ठुमके पर
नाच रहा, गा रहा, बाजा बजा रहा
जहाँ दिखता अँधेरा, वहीं आतिशबाजी करवा रहा
और भौचक है, अपना गाँव चंदनवा
रोपनी, सोहनी, चरवाही में
मोबाईल है, सबका कान चंदनवा
गाँव-गाँव में दूध से सस्ता, देशी दारू
गुटका, ब्लू फिल्म, नशीली दवाई
वह नहीं चाहता जीवित रहे, कोई गाँव, चंदनवा
अब किसी के आगे रोना नहीं
कोई किसी को देता नहीं
किस्मत को कोस, तिल-तिल जलना-मरना नहीं
अपने हक को छीनने खातिर
चल चंदनवा दिल्ली-बंबे, इस हफ्ते या अगले हफ्ते
चिरई-चुरूँग की कथा सुनाते
ग्राम-देवता के गुण उचारते
बीते सालों-साल चंदनवा
कहाँ से कहाँ, भागा देश चंदनवा
जन-जन तक जनतंत्र
और शासन आपके द्वार
किसी माया के फेर में
अब नहीं, फँसना चंदनवा ।
छठी इंद्रिय
जिस दिन उस लड़की ने दोस्तो के बीच
मेरी आँखों पर लगाया था इल्जाम
कि वे कत्तई भोली, भरोसेमंद नहीं हैं
और कोई लड़की नहीं कर सकती मुझ पर ऐतबार
मैंने पहली बार आईने के सामने
अपनी आँखों में झाँका था
और ख्वाईशमंद था कि काशः मेरी आँखें
अंतहीन गहरी खाई होतीं
और मैं उसमें कूद, दे देता प्राण
मुझे भरोसा था लड़कियों की छठी इंद्रिय पर
जिसके बारे में सुना था कि
उससे नहीं रह सकता कुछ भी गोपन
सात तहों को भेद कर ये भाँप लेती हैं पुरूषों की मंशा
जैसे-जैसे बढ़ रही थी उम्र
वैसे-वैसे अपनी नजरों से ही गिरता गया था मैं
नजर मिलाने से बचने लगा था
अपनी भौजाईयों, सहपाठी लड़कियों से
कि पता नहीं, कब कौन चोरी पकड़ ले मेरी
एक नवजात को गोदी में, दूसरे की उँगलियाँ थामे
वही लड़की मिली थी बरसों बाद
लुटी-पिटी एक गठरी भर बची थी
अपनी आँखों में अफसोस और दुख का काव्यसंग्रह लिए
उसे उसी लड़के ने दिया था धोखा
जिसकी आँखों में उसे दिखी थी भरोसे की नदी बहती हुई
संपन्नता की बत्ती जलती हुई
उस दिन फिर, आईने में देखी थी अपनी आँखें
उन आँखों में अथाह अवसाद था मेरे लिए
कि एक छोटे से जीवन को, बेमतलब ही गुजार दिया
अपने को छिपाता रहा
अपनी ही नजर से ।
कामाख्या
इस जगह का नाम कभी
कामेच्छा ही होगा
बतकही के दौरान, चाय की दुकान पर
एक बुजुर्ग ने बताया था
पर किस किताब में ढूँढ़े कोई
और जोड़ ले
कामाख्या के साथ
कामेच्छा का संबंध
जब आषाढ़ में हो रही हो लगातार
रिमझिम बारिश
और धूप कर रही हो मान-मनौव्वल
एक बार खुल कर, लेने के लिए साँस
वैसे में, मैं निकल पड़ा सड़क पर
कि कहीं, कोई मिल जाए सूत्र
और पता लग जाए, कामाख्या का मर्म
मर्म ढूँढ़ने की यात्रा में
दिखीं, वहाँ अद्भुत सौन्दर्यमयी स्त्रियाँ
जिनके कपोलों से हो रही थी रूप की बूँदाबादी
और उसमें आषाढ़ का जल मिल
कर रहा था केली-क्रीड़ा
शायद इसी तरह की बारिश में
कभी रूक्मिणी होगी दृष्टि पथ पर
और भगवान कृष्ण के वक्षस्थल में
कमलदल की तरह, तैरने लगी होगी कामेच्छा
करना पड़ा होगा गंधर्व विवाह
शृंगार रस की बारिश में भीगते
बिना किसी किताब को ढूँढ़े
कागज पर कुछ लिखते
घूम लिया कामाख्या
कुछ-कुछ समझ लिया उसका मर्म ।
शब्द-शब्द
मिले मुझे आँख
जिसे हो पाँख
मिले नाक
जो सूँघ ले, चर-अचर का सुगंध
मिले कान
कि सुनाई पड़े
धरती की हर साँस
मिले हृदय
जहाँ पिपीलिका के लिए
हो एक शक्कर का दाना
मिले ज्ञान
जिससे जाना जा सके
अपना अज्ञान
मिले पैर
जो जाए उस आदमी तक
जो सदी के अँधेरे में
ढूँढ़ रहा है
एक माचिस की तिल्ली
मिले जीवन, हर बार
जो सिर्फ सिरजे नहीं
जीए भी
शब्द-शब्द काव्य ।
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बहुत अच्छी कविताएँ !
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