हर गाँव में
एक पहाड़
होता है,
जो उसी
गाँव का
पहाड़ कहलाता
है. जहाँ
आप को
पहाड़ दिखे
समझ लीजिए,
उसकी तलहटी
में कोई
न कोई
गाँव ज़रूर
होगा. गांव
वाले उसे
देखते-देखते
उस के
इतने आदी
हो जाते
हैं कि
अकसर उसी
मौजूदगी को
ही भूल
जाते हैं,
पर पहाड़
इस बात
का कभी
बुरा नहीं
मानता! वह
एक बहुत
बड़े पुराने
हाथी की
तरह दृश्य
में उपस्थित
रहता है.
गाँव के
बच्चे खेल-खेल में
बीसियों दफा
इस पर
जा चढ़ते
हैं. उस
पार के
गाँव जाने
के लिए
भी लोगों
को इस
पर चढ़ना
पड़ता है
क्योंकि सड़क
सड़क जाएँ
तो चार
किलोमीटर पैदल
चलना पड़ेगा,
वैसा झंझट
कोई
मोल लेना नहीं चाहता! औरतें
भी ‘उस
तरफ’ के
बड़े हाट
से सौदा-सुलफ लाने
के लिए
पहाड़ पर
चढ़ कर
आराम से
उतर जाती
हैं. अक्सर
मवेशी चरते
चरते पहाड़
की चोटी तक पहुँच जाते
हैं और
नीचे गाँव
से ये
पहचानना मुमकिन
नहीं होता
कि वे
भैंसें किसकी
हैं ? तब
गाँव के
लोगों को
पहले अपने
बाड़े या
गाँव के
आसपास जाकर
गुमे हुए
मवेशी की
तलाश में
निकलना पड़ता
है! वहाँ
से निराश
हो कर
वे फिर
पहाड़ की
तरफ जाते
हैं.
वे
चोटी पर
जा कर
अपनी बकरियों
को तुरंत
पहचान लेते
हैं जो
ऊँचाई से
बेफिक्र वहाँ
चर रही
होती हैं!
उन्हें वहाँ
पड़ौसी की
सुबह से
लापता गाय
भी दिख
जाती है
जिसे वे
बड़ी जिम्मेदारी
से अपनी
बकरियों के
साथ ही
नीचे उतार
लाते हैं!
पहाड़ से
उतरी हुई
गाय पहले
जैसी ही
होती है,
सिर्फ उसकी
पूंछ में
झडबेरी के
कुछ कांटे
उलझे नज़र
आते हैं,
जिन्हें बच्चे
तुरन्त निकाल
फेंकते हैं.
और तब
गाय पुरानी
गाय जैसी
ही लगने
लगती है.
शाम होते
न होते
पहाड़ एक
बहुत बड़े
जंगी जहाज़
की तरह
अँधेरे के
समुद्र में
डूबता नज़र
आता है-
तब उस
पर कोई
भी नहीं
चढ़ता! झुण्ड
बना कर
दिशा-मैदान
के लिए
जाने वाली
औरतें भी
तलहटी से
थोड़ी दूर
बैठती हैं.
रात को
पहाड़ पर
कोई लालटेन
नहीं जलाता,
जैसा हिन्दी
कवि मानते
हैं! शाम
घिरते-घिरते
गाँव का
यह बहुत
पुराना हाथी
आँख से
ओझल होने
लगता है
और देखते
ही देखते
गायब हो
जाता है!
हर रात
लोगों को
लगता है-
उनके गाँव
में कोई
पहाड़ है
ही नहीं.
-शहरों में ऐसा
बिलकुल नहीं
होता!
BBHAAEE cHITRA BHEE DE DAALA! wALLAH!!
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