पिछले साल भोपाल
में फैज
पर आयोजित
एक कार्यक्रम
से लौटते
वक्त मैं
पहली बार
मैहर गया
था। उसके
बाद यह
रिपोर्ताज लिखा था। 13 फरवरी, 2011, भोपाल, जश्ने
फैज।
इंकलाब का इश्क,
इश्क का
इंकलाब-
बामे मीना से
माहताब उतरे,
दश्ते साकी
में आफताब
आए
हर रगे खूं
में फिर
चरागां हो,
सामने फिर
वो बेनकाब
आए।
कैसा है वह
महबूब जो
बेनकाब होके
सामने आए
तो हर
रगे खूं
में चरागां
हो जाएगा!
अचानक मानो
कोई भेद
पा लिया
हो मैंने।
पहली बार
जैसे इन
पंक्तियों का पूरा अर्थ खुला।
ट्रेन तो
छूट ही
जाती, अगर
दोस्त राजू
को एक
बार उसका
समय न
देखने को
कहता।
रात के अंधेरे
से होके
ट्रेन भागी
जा रही
है, भीतर
भी कोई
सफर जारी
है। कटनी
स्टेशन गुजर
चुका है।
एक अजीब-सा रोमांच
है। मालूम
है कि
जहां उतरना
है वह
छोटा-सा
स्टेशन है,
कहीं आंख
न लग
जाए। जाग
रहा हूं।
रात धीरे-धीरे घुल
रही है
किसी रोशनी
के भीतर।
रात का
अंतिम प्रहर
है। राग
बसंत का
कोई टुकड़ा
जेहन में
चल रहा
है। अभी
सूरज की
लालिमा दूर
है। सुबह
के पहले
प्रहर का
राग अल्हैया
बिलावल चेतना
के किसी
तलघर में
बज रहा
है। फूलों
के बंद
पंखुड़ी मानो
धीरे-धीरे
खुल रहे
हों, संग
भागते दृश्य
अब खुलने
लगे हैं।
घरों और
वृक्षों के
साये नजर
आ रहे
हैं। खेत
है और
खेतों में
गेहूं की
फसल है,
इसका अंदाजा
हो रहा
है। एक
साधु टेªन के गेट के
पास खड़ा
है। उसे
भी वहीं
उतरना है।
आखिर सूरज
भी आज
हमारे साथ
ही दाखिल
होता है
वहां। हल्का
ललछौंहा सूरज,
परवाज करते
पंछी, ज्यों
मद्धम सा
कोई राग,
जैसे राग
जैजैवंती। जिसके सरोद और जिसकी
भैरवी का
जादू हमारे
हृदय को
हमेशा झंकृत
करता रहा
है, आज
उसी साधक
की कर्मभूमि
पर था।
और भैरवी
ही क्या,
उसने तो
कितने ही
राग-रागनियों
को साधा
था, उसे
तो हेमंत,
शोभावती, दुर्गेश्वरी,
मदनमंजरी सरीखे
कई रागों
के निर्माण
का श्रेय
जाता है,
वह तो
कई-कई
साज बजाने
में पारंगत
था, कई
साजों के
महान फनकारों
का वह
उस्ताद था।
उसके शिष्य
आज भी
दुनिया में
उसका नाम
रोशन कर
रहे हैं।
उसी ने
तो आम
लोगों का
एक बैंड
बनाया था-
मैहर बैंड।
14 फरवरी की
वह सुबह
सदा के
लिए यादगार
बन गई।
मैं पहली
बार मैहर
में था,
भारतीय शास्त्रीय
संगीत के
महान उस्ताद
अलाउद्दीन खान की जमीन पर।मैहर- एकदम छोटा-सा स्टेशन
है। जहां
टिकट मिलता
है, वहीं
एक तरह
से क्लाक
रूम भी
है। अपना
भारी-भरकम
बैग थमाया,
रसीद ली
और चल
पड़ा किसी
वाहन की
तलाश में।
चाय पीते
हुए पता
चला कि
अकेले जाने
पर छह
गुना अधिक
किराया लगेगा।
समय कम
है, अगली
ट्रेन भी
पकड़नी है।
एक किशोर
आटो वाले
को हाथ
देता हूं।
वह नहाने
पर जोर
दे रहा
है, पहले
मुझे ऐसी
जगह ले
जाना चाहता
है, जहां
नहा भी
सकूं। मैं
पूछता हूं
कि मैं
बिना नहाया
लग रहा
हूं, तो
वह सकपकाता
है। ऑटो खुली और
मैंने उससे
पूछा कि
क्या उस्ताद
अलाउद्दीन के बारे में वह
जानता है,
2 मिनट भी
न हुए
होंगे, उसने
उनके घर
के सामने ऑटो रोक
दिया, घर
रास्ते में
ही था।
सुबह हो
चुकी थी,
गेट बंद
था। सामने
बड़ा सा
कैंपस था,
गेरु रंग
की दीवारें
और खिड़की
और झरोखों
का रंग-
हरे और
नीले का
मेल हो
जैसे। बायीं
ओर एक
खूबसूरत कलाकारी
वाला घर,
ऊपर एक
छप्पर, बाद
में मालूम
हुआ कि
वह मजार
था। खैर,
बाहर से
मैंने घर
की तस्वीरें
ली और
आगे बढ़
गया कि
लौटते वक्त
देखूंगा।
मैं पहले पहाड़
पर मौजूद
सरस्वती का
वह मंदिर
देखना चाहता
हूं, जहां
अलाउद्दीन खां संगीत की साधना
करते थे।
ड्राइवर ऑटो आगे बढ़ा
देता है।
वहां पहुंचते
ही वह
जोर देने
लगा कि
चलिए मैं
अपने जान-पहचान के
प्रसाद वाले
ले चलता
हूं, वह
ठीक-ठाक
प्रसाद देता
है। मैंने
उससे कहा
कि मुझे
प्रसाद वगैरह
नहीं लेना,
मैं सिर्फ
इस मंदिर
को देखने
आया हूं।
उसने अजीब
तरीके से
मुझे देखा
और तुरंत
बोला- ‘तब
मुझे भाड़ा दीजिए, मैं
चलूं।’ जबकि
उसने वादा
किया था
कि लौटते
वक्त वह
मुझे उस्ताद
के घर
ले जाएगा।
जाहिर है
देवी तो
इन लोगांे
के लिए
रोजी-रोटी
हैं और
भक्त उसके
माध्यम। उसने
रास्ते में
बताया भी
कि इस
कस्बे की
जो भी
तरक्की हुई,
वह देवी
के कारण
ही हुई
है। यद्यपि
तरक्की कितनी
हुई है,
यह तो
वहां मौजूद
बहुसंख्यक लोगों के चेहरे और
उनके कपड़ों
से महसूस
किया जा
सकता है।
आटो चालक
जिसने बड़े
गर्व से
बताया था
कि उसके
पिता ने
भी मंदिर
तक सीढि़यां
बनाने के
लिए पत्थर
काटा था,
और कि
उस्ताद बड़े
कलाकार हैं,
जिन्होंने मैहर का नाम पूरी
दुनिया में
रोशन किया,
पैसे लेकर
अगली सवारी
की तलाश
में निकल
गया। हालांकि
एक जगह
चप्पल रखने
के चक्कर
में संकोचवश
प्रसाद तो
मुझे लेना
ही पड़ा,
वह अलग
किस्सा है।
खैर, आटो
से उतरते
ही सामने
दिखते पहाड़ों ने नजर
को जैसे
बांध लिया।
मोबाइल का कैमरा
आन किया
और उस
सड़क पे
आगे की
ओर बढ़
चला, जो
मंदिर की
ओर जाती
है। सुबह
के लगभग
साढ़े सात
बज रहे
थे। चिडि़यों
की चहचहाहट
से वातावरण
गुंजायमान था। मुझे मोबाइल से
तस्वीरें लेते
देख, एक
छोटे लड़़के
ने आवाज
दी- इसका
फोटो खींचो,
उसने अपने
से एक
बड़े लड़़के
की ओर
इशारा किया,
जो एक
कुर्सी पर
बैठा हुआ
था। मैंने
उसकी तस्वीर
ली, वह
थोड़ा-सा
अचकचाया, लेकिन
छोटे लड़के
को खुश
देखकर फिर
सामान्य हो
गया। सड़क
के दोनों
ओर चुनरी
और प्रसाद
की दूकानें
थीं। पयासी
जी, पांडेय
प्रसाद भंडार,
कामना प्रसाद
भंडार, इसी
तरह के
कई टीन
शेड वाले
भंडार यानी
प्रसाद की
दूकानें। ग्रामीण
स्त्री पुरुषों
का समूह
और बच्चे
बडे जोश
में उनसे
कदम से
कदम मिलाते
चले जा
रहे हैं,
कहीं पीछे
न रह
जाएं, मुड़
मुड़ के
देखती एक
छोटी-सी
बच्ची, बार-बार मेरे
मोबाइल कैमरे
की जद
में आती
है। एक
बूढी अपने
परिवार के
पुरुष सदस्य
से धीरे
चलने का
आग्रह करती
है- आगिए
चली जाइत
हऊअ भइया! मेरे बायें पुलिस
चैकी है-
‘पुलिस चैकी,
शारदा धाम,
मैहर’ और
दायीं ओर
आगे एक
विशाल ‘दीवार
पोस्टर’ की
तरह विवेकानंद
की मूर्ति-
उनकी सर्वाधिक
मशहूर छवि।
विवेकानंद की मूर्ति यहां किसने
बनाई और
उसका क्या
मकसद हो
सकता है,
एक पल
ये सवाल
आए जेहन
में, पर
दृश्य तो
तेजी से
बदल रहे
थे और
कानों तक
आती आवाजें
भी। अब
निगाह कैफे
सुरबहार पर
चली गई,
बनाया है
मध्य प्रदेश
राज्य पर्यटन
विभाग ने,
मगर वह
सिर्फ कैफे
है, सुरबहार
की आज
की हकीकत
है- कइसे
बनी कइसे
बनी फुलौरी
बिना चटनी
कइसे बनी
और ये
गोटेदार लहंगा
जैसे गीतों की तर्ज
पर बने
धर्मिक गीत-
आठो पहर
मां की
करती हूं
पूजा/ मन
में बसी
हो, मन
में बसी....
म्यूजिक बहुत
तेज है।
तेज ही नहीं,
कुछ ज्यादा
ही सुलभ
भी है
आजकल म्यूजिक,
उसको तो
हम जेब
में ही
डाले घूमते
रहते हैं।
अचानक मोबाइल
घनघना उठता
है।-अच्छा, तो आज
वेलेंटाइन डे है! ओहो, 14 फरवरी
है न!
तो क्या
करूं? शमशेर
की पंक्तियां
झटके से
जेहन में
आती हैं-
इल्मो-हिकमत,
दीनो-ईमां,
मुल्को-दौलत,
हुस्नो-इश्क/
आपको बाजार
से जो
कहिए ला
देता हूं
मैं। एक
शरारत भरा
तंज फेंका
जाता है
कि मेरे
जैसा नास्तिक
भी मंदिर
में पहुंच
गया। लेकिन
धर्म का
जो बाजार
सजा है,
उसमें तो
कोई खरीदार
बनके गया
ही नहीं
हूं मैं,
और न
ही मुझे
देवी से
कुछ मांगना
है। क्या
फर्क पड़ता
है कि
किसी महानगर
या नगर
के मार्केट
में नहीं
हूं, मैहर
में हूं
वेलेंटाइन डे के दिन।
सुनते हैं कि
मैहर के
राजा बृजनाथ
उस्ताद अलाउद्दीन
को मैहर
ले आए
थे। लेकिन
कितना गहरा
स्वाभिमान था उस जमाने के
कलाकारों में!
कहीं पढ़ी
हुई एक
घटना की
याद आ
गई कि
किस तरह
एक सूटेड-बूटेड युवक
आया और
बागीचे में
साधारण पोशाक
में मिट्टी
से सने
उस्ताद को
देखकर उन्हें
माली समझ
बैठा और
उस्ताद को
बुलाने के
लिए कहा।
उस्ताद ने
पूछा कि
क्या काम
है, तो
उसका जवाब
था कि
संगीत सिखना
है। उस्ताद
ने कहा
कि वे
आराम कर
रहे हैं,
तो उसने
बिगड़कर कहा
कि जाकर
कहो कि
कोई बड़ा
आदमी आया
है। खैर,
उस्ताद अंदर
गए और
कपड़े बदलकर
जब बाहर
आए तब
तक एक
रियासत के
राजा पहुंच
गए और
उन्होंने पहुंचते
ही उनके
पैर छुए।
अब शागिर्द
बनने आया
नौजवान लगा
माफी मांगने।
इस पर
उस्ताद बोले-
तुमसे कोई
भूल नहीं
हुई, जिनके
पास दो
पैसे आ
जाते हैं,
वे गरीबों
को इसी
निगाह से
देखते हैं।
रही संगीत
सिखाने की
बात तो
मैं तुम्हें
संगीत नहीं
सिखा सकता,
क्योंकि जिस
आदमी के
दिल में
गरीबों के
लिए कोई
दर्द नहीं
है, उसमें
संगीत जन्म
नहीं ले
सकता। कहते
हैं कि
उसने उस्ताद
को रुपये
पैसे का
लालच भी
दिया, लेकिन
उनका दो
टूक जवाब
था- संगीत
को रुपये-पैसे से
नहीं खरीदा
जा सकता।
मालूम नहीं यह
घटना कितनी
सच्ची है,
लेकिन एक
प्रिय और
आदर्श कलाकार
की जो
छवि जनता
गढ़ती है,
वह भी
तो कुछ
ऐसी ही
होती है
न! कुदरत
में मौजूद
और हमारे
अपने भीतर
मौजूद संगीत
की साधना
भी तो
किसी पहाड़
पर दम
साधकर चढ़ने
जैसा ही
होता होगा।
ऊपर पहाड़
पर मौजूद
मंदिर को
देखकर मैं
तो सिर्फ
कल्पना ही
कर सकता
हूं कि
कैसे उस्ताद
उस मंदिर
में पहुंचते
होंगे और
किस तरह
उनकी संगीत
साधना चलती
होगी। गो कि
अब तो
हमारे लिए
मंदिर तक
जाने के
लिए लिफ्ट
भी था।
लेकिन अपने
पैरों से
पहाड़ पर
चढ़ने की
चुनौती छोड़कर
लिफ्ट में
कौन जाए!
और वैसे
भी जब
सीढि़यां हों
तो चढ़ना
थोड़ा आसान
हो जाता
है। लेकिन
आप आदी
न हों
तो थोड़ी
अतिरिक्त मेहनत
और ताकत
तो लगती
ही है।
एक ओर
सीढि़यों पर
बैठे हैं
भीख मांगते
लाचार भिखारी,
तो दूसरी
ओर उन
पर सीमेंट
कंपनियों और
सेठों के
नाम विराजमान
हैं- यश
की लालसा
है या
विज्ञापन! दावे हैं कि किसी
ने 200 तो
किसी ने
400 तो किसी
ने 500 सीढियां
बनवाई है।
इस लिहाज
से तो
लगता है
करीब 1000 सीढि़यां तो चढ़ना ही
पड़ेगा, वैसे
सीढि़यां गिनने
में मेरी
कोई दिलचस्पी
नहीं है।
मैं तो
एक सुर
में ऊपर
जाना चाहता
हूं, पर
एक जगह
दो-तीन
मिनट के
लिए रुकना
पड़ता है।
एकाध पेड़ों
पर फूल
नजर आते
हैं। लगता
ही नहीं
कि बहार
का मौसम
है। झड़े
हुए पत्तों
वाले एक
पेड़ पे
एक बड़ा-सा सुर्ख
लाल फूल
आकर्षित करता
है अपनी
ओर। पहाड़
से नीचे
एक जगह
पानी ऐसे
जमा हुआ
है, जैसे
किसी ने
कहीं से
उठा के
उसे वहां
रख दिया
हो और
वह वहीं
लेट गया
हो पैर
पसारे, सिर
ढलका है,
बाजू फैले
हैं, अपने
बिखरे हुए
कपड़ों का
भी मानो
उसे ध्यान
नही है,
वह ठहरा
हुआ पानी
मानो नींद
में है
अब तक-
सुबह की
सुगबुगाहटों से बेखबर।
देवी के मंदिर
तक विज्ञान
का पहुंचना
लाजिम हैं,
बिजली के
तार हैं,
जिस पर
बैठी एक
चिडि़या को
देख रहा
हूं। भीड़
में फंसा
हुआ, धीरे-धीरे ऊपर
खिसक रहा
हूं। फिल्मी
पैरोडी का
शोर थमा
नहीं है,
पर इसी
शोर में
अचानक स्थानीय
भाषा में
गीत गाता
महिलाओं का
एक काफिला
मिलता है,
कानों को
कुछ राहत
मिलती है।
सोचता हूं
कि कितना
अच्छा होता
कि या
तो इन
ग्रामीण महिलाओं
की आवाज
होती या
सुबह के
इस वक्त
उस्ताद की
भैरवी ही
यहां गूंज
रही होती
या वायलिन
पर उनके
द्वारा संगीतबद्ध
कीर्तन ही
बज रहा
होता, तो
वातावरण कितना
सुकूनदेह होता।
लेकिन वह
सब तो
बस सीडी
और इंटरनेट
में है।
उस महान
साधक ने
जहां वर्षों
तक साधना
की, वहीं
से उसका
महान सम्मोहक
संगीत लापता
है और
फिल्मी गानों
के तर्ज
पर बनाए
गए सतही
किस्म के
धर्मिक कहे
जाने वाले
गानों का
बोलबाला है।
देर हो रही
है, भीड़
में बच्चों
के रोने
की आवाजें
हैं। लोग
इतने हैं
कि सीढि़यां
कुछ ज्यादा
ही संकरी
लग रही
हैं। नीचे
झांकने पर
हल्का-सा
डर लगता
है। अचानक
कुत्तों के
चिल्लाने और
लड़ने की
आवाज आती
है, भीड़
में किसके
पैर के
नीचे दबे,
पता नहीं!
कहीं किसी
के पैर
के नीचे
तो नहीं
आ गए!
ठीक मंदिर
के पास
वाली सीढ़ी
से पहले
मोड़ पर
हैं हम।
अपने अंदर
से ही
कोई चिल्लाता
है- यहीं
आना था
तुम्हें, अभी
अगर भगदड़
मच जाए
तो चले
जाओगे हजार
फिट नीचे।
वह व्यंग्य
भी करता
है- कितना
अच्छा है,
मोक्ष पा
जाओगे! लेकिन
एक बार
चल पड़े
तो वापस
लौटना मुश्किल
है, जो
हो, जाना
तो पड़ेगा
ही ऊपर
तक। एक
तरफ बाबा
अलाउद्दीन की लगन, उनकी साधना
और मां
शारदा के
प्रति भक्ति
का इतिहास
है, तो
दूसरी ओर
एक भीड़
का वर्तमान
है, जहां
एक मैहर
माई हैं,
जो लोगों
की मनोकामनाएं
पूरी करती
हैं। दर्शनार्थियों
में महिलाओं
की संख्या
अधिक है।
आर्थिक रूप
से ज्यादातर
निम्न और
कुछ मध्यवित्त
लगते इन
भक्तों के
लिए कोई
फर्क नहीं
पड़ता कि
मूर्ति किसकी
है, इतना
ही काफी
है कि
वह देवी
हैं, वैसी
ही जैसी
बहुत सारी
देवियां होती
हैं। आखिर
हम मंदिर
में पहुंच
जाते हैं,
जहां मूर्ति
को ठीक
से देख
पाना भी
संभव नहीं
है। जल्दी-जल्दी निकल
जाने का
निर्देश है।
लोगों को
भी इससे
मतलब नहीं
है कि
कब की
मूर्ति है,
कैसी मूर्ति
है। फोटो
खींचना मना
है, फोटो
में देख
लेंगे तो
यहां आएंगे
क्यांे! बाजार
प्रभावित होगा
न! ऊपर
पर्याप्त चैड़ी
जगह है।
मैं मंदिर के
चारों ओर
मौजूद दूसरे
पहाड़ों को
देखने में
मशगूल हो
जाता हूं।
सूखे घास
और उसके
रंग वाली
झाडि़यों और
बौने पेड़ों
वाले पहाड़
हैं और
पहाड़ों के
सामने वाले
हिस्सों को
जैसे किसी
ने बिल्कुल
सीधी दीवारों
की तरह
तरास दिया
है। दूसरी
ओर पहाड़ों
के नीचे
बीच के
समतल मैदानी
जगह में
कुुछ छोटे-छोटे खेतों
में बिछी
हरियाली की
चादर और
पानी के
दर्पणों का
अपना जादू
है। मोबाइल
कैमरे को
जूम करके
खेतों की
हरियाली को
करीब लाता
हूं। चारों
ओर अद्भुत
लैंडस्केप है, ट्री स्केप और
माउंटेन स्केप
भी। दूर
क्षितिज पर
चारों ओर
कुछ धुंध-सा है,
आसमान नीला
और पहाड़
मैटमैले, सामने
बिल्कुल पास
के पेड़ों
के पत्ते
पर कुछ
पीलापन अधिक
है।
मंदिर के पीछे की सड़क
पर बिल्कुल
शांति है।
कहीं दूर
कौए की
कांव-कांव
की आवाज
सुनाई पड़ती
है। कोई
पक्षी बोल
रहा है-
डिक, डिक,
डिक, डिक,....एक परिक्रमा-सा हो
जाता है।
अचानक घड़ी
पर निगाह
जाती है,
अरे! ट्रेन
का समय
नजदीक आ
रहा है।
लगभग कूदता-फांदता, वापस
लौटते लोगों
के बीच
से रास्ता
बनाता, तेजी
से नीचे
उतरता हूं
और पहंुच
जाता हूं
उस्ताद के
घर। इस
बार गेट
खुला मिलता
है। जिसने
भारतीय शास्त्रीय
संगीत को
कई रत्न
दिए उस
अप्रतिम साधक
की मजार
के पास
खड़ा हूं।
उसी कैंपस
में उनकी
तथा उनकी
पत्नी की
मजार है।
सामने जो
घर है
उसके दरवाजों
की रंगाई
का काम
हो रहा
है। मैं
एक मजदूर
से पूछता
हूं कि
क्या उस्ताद
से संबंधित
कुछ चीजें
देख सकता
हूं। एक
प्रौढ़ सज्जन
आते हैं
और मुझे
अंदर वहां
ले जाते
हैं, जहां
उस्ताद की
जिंदगी के
सफर को
समेटे हुए
कई तस्वीरें
मौजूद हैं।
कहीं वे
अंग्रेजी सूटबुट
मे कड़ी-नुकीली मूंछों
में किसी
रायबहादुर सरीखे दिखते हैं, कहीं राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से पद्मभूषण
ले रहे
हैं, षष्ठिपूर्ति
के मौके
पर मिला
अभिनंदन पत्र
भी है।
उनके गुरु
अमीर खां
और उनके
भी गुरु
की तस्वीरें
हैं। उस्ताद
पांच भाई
थे। पांचों
एक तस्वीर
में नजर
आते हैं।
उस्ताद अकबर
अली खान
की भी
तस्वीर है।
वे सज्जन
जिनकी तीन
पीढि़यां उनकी
सेवा में
रही है,
बताते हैं
कि यहीं
रविशंकर और
निखिल बनर्जी
को वे
संगीत सिखाया
करते थे।
उनका नाम
है दंडक
रावत।
विजीटर बुक में
जसम की
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ओर से
अपनी साझी
संस्कृति की
इस महान
प्रतिभा के
प्रति अपने
उद्गार दर्ज
करता हूं।
दंडक जी
मुझे उनके
मजार के
पास ले
जाते हैं,
चेंबर खोल
के दिखाते
हैं चिरनिद्रा
में सोए
उस्ताद को।
मैं उन्हें
सलाम करता
हूं। बाहर
दीवार पर
एक बड़ा
शिलापट्ट लगा
हुआ है
जिस पर
यह दर्ज
है कि
यह मजार
पद्मविभूषण आचार्य बाबा अलाउद्दीन खां
साहब और
माता श्रीमती
मदीना खातून
की स्मृति
में बनाई
गई है।
किसी का
लिखा हुआ
याद आता
है, अपनी
पत्नी मदीना
खातुन के
लिए ही
उस्ताद ने
राग मदनमंजरी
बनाया था।
इस मजार
को बनाने
का काम
13. 2. 1992 को शुरू हुआ और 15.12.1994 को
पूरा हुआ।
इसके निर्माण
में वास्तुशिल्पी
तपन घोष,
मिस्त्री मुहम्मद
कमरुद्दीन, लखानी लाल पटेल की
भूमिका और
बाबा के
घराने के
कुछ छात्रा
और अनुयायी
तथा पंडित
रविशंकर के
सहयोग का
भी जिक्र
है।
बाबा के पुत्र
और शिष्य
अली अकबर
खान के
तरफ से
लिखा गया
यह संदेश
पढ़ता हूं-
‘‘मेरा यह
हार्दिक विश्वास
है कि
एक महान
संगीतज्ञ और
महात्मा की
स्मृति में
निर्मित यह
मजार किसी
प्रकार के
जाति, रंग
एवं धर्मभेद
न रखते
हुए जीवन
के उच्च
लक्ष्यों की
प्राप्ति के
लिए भावी
पीढ़ी को
प्रेरित करेगी
और उनका
ज्ञान पथ
आलोकित करेगी।’’
मेरे मुंह
से अनायास
निकल जाता
है- आमीन!
हर साल यहां
संगीत समारोह
होता है।
इस समारोह
में आने
की सोचता
हुआ, उस
कैंपस से
निकलता हूं।
जल्दी जल्दी
भाग रहा
हूं, स्टेशन
की ओर।
जोरों की
भूख भी
लगी हुई
है। एक
नौजवान से
स्टेशन की
ओर जाने
वाली सड़क
के बारे
में पूछता
हूं। वह
भी स्टेशन
जा रहा
होता है।
अपना नाम
साहबलाल कोल
बताता है,
नेहरु युवा
कंेद्र और
किसी एक
एनजीओ से
जुड़ा हुआ
है। इस
इलाके की
शिक्षा के
कम प्रतिशत
को लेकर
चिंतित है।
उसे लगता
है कि
एनजीओ के
माध्यम से
वह दूर-दराज के
लोगों से
जुड़ पाता
है। वह
किसी भी
पिछड़े हुए,
अभावग्रस्त इलाके के नौजवान-सा
है। मां
शारदा का
नाम होटलों
और दूकानों
के साईनबोर्डों
पर मौजूद
हैं, लेकिन
इस इलाके
में शिक्षा
को लेकर
चिंतित इस
नौजवान के
सपने मालूम
नहीं कब
साकार होंगे!
फिलहाल मंदिर
की ओर
जाने वालों
की तादाद
बढ़ गई
है। मैं
वापस लौट
रहा हों.।
एक आटो
के पीछे
लिखा हुआ
है- ऐ
सनम तू
जन्नत की
हूर है,
पर यह
भी है
कि तू
मुझसे दूर
है। सोच
रहा हूं
कौन किससे
दूर है
और क्यों?
कला, शिक्षा,
नया समाज,
आजादी, प्रगति,
बेहतर जिंदगी,
इंकलाब!
फिर फैज हैं लबों पर-
आइए हाथ उठाए
हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद
नहीं
हम जिन्हें सोजे-मुहब्बत के
सिवा
कोई बुत कोई
खुदा याद
नहीं।
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