मेरा नौ मार्च का स्टेटस:
"हिंदी साहित्य की तमाम विधाओं
में, अज्ञेय के अवदान को अपनी-अपनी तरह सभी रंगतों के लेखक-आलोचकों ने
अनेक तरह की असहमतियों के बावजूद समय-समय पर सराहा है, यह तथ्य सर्व विदित
है. किसी भी पाठक-आलोचक को यह पूरा हक़
होता है कि किसी लेखक के बारे में अपने पहले के मूल्यांकन को वह बदल दे.
ज़रूरी समझे तो उस बदलाव के कारण भी गिना दे, ताकि लोग इसे गंभीरता के साथ
ले सकें. आलोचक यदि "मूर्धन्य" हो तो उसके लिए इस प्रक्रिया को अपनाना
इसलिए भी हितकर होता है कि ऐसा करने से उसके विराट-विशाल पाठक वर्ग में
उसकी स्वीकार्यता और सम्मान दोनों में बढ़ोतरी हो जाती है. मूल्यांकन में
यदि "तीन सौ साठ डिग्री" का फ़र्क़ आ जाए तो यह चिंता और क़यास दोनों का सबब
बन जाता है. फिर सवाल यह भी उठता है/उठना ही चाहिए कि अभी तक आप मूल्यांकन
के जिन उपकरणों को काम में ले रहे थे, वे सही नहीं थे, या खोट उन्हें
इस्तेमाल करने के आपके तरीक़े में था. यह मुद्दा न तो छवि घड़ने से जुड़ा है,
और न छवि खंडित करने से. यहां असल मुद्दा आलोचना के प्रतिमानों का है,
आलोचना की कसौटी का है. यह झंडा उठाने या टांग खींचने का मामला नहीं है,
आलोचना की प्रगतिशील-जनवादी परंपरा को आगे बढ़ाने का है. यह समीक्षा करने का
भी है कि हम आगे जा रहे हैं या पीछे!
इसका आशय यह क़तई नहीं है कि कोई आलोचक अपनी ऐतिहासिक भूलों को स्वीकार करके प्रायश्चित करना चाहता है तो उसे ऐसा करने से रोका जाए. कौन किसको रोक सकता है? और रोका भी क्यों जाना चाहिए? समझ की ग़लती का एहसास किसी भी उम्र में हो जा सकता है. सोने में सुहागा हो कि इसे स्वीकार कर लिया जाए. ऐसा करके, कम-से-कम अनावश्यक विवाद से बचा तो जा ही सकता है. अर्जित "मान" के संवर्धन का रास्ता भी इधर से ही जाता है."
इसका आशय यह क़तई नहीं है कि कोई आलोचक अपनी ऐतिहासिक भूलों को स्वीकार करके प्रायश्चित करना चाहता है तो उसे ऐसा करने से रोका जाए. कौन किसको रोक सकता है? और रोका भी क्यों जाना चाहिए? समझ की ग़लती का एहसास किसी भी उम्र में हो जा सकता है. सोने में सुहागा हो कि इसे स्वीकार कर लिया जाए. ऐसा करके, कम-से-कम अनावश्यक विवाद से बचा तो जा ही सकता है. अर्जित "मान" के संवर्धन का रास्ता भी इधर से ही जाता है."
मुख मुद्दा
अभी
युवा कवि-कथाकार अशोक कुमार पांडेय ने साहित्य जगत की इन दिनों की हलचलों,
नए गंठजोडों, पाला-पलट-प्रशस्तियों आदि पर अपने छोटे-से स्टेटस में महत्वपूर्ण सवाल उठाए है. पिछले लगभग एक महीने से अज्ञेय-जन्म-शताब्दी
प्रकाशनों के लोकार्पणों की बारंबारता भी इस मायने में चौंकाती है कि उन
अन्य बड़े कवियों को लेकर उतना सन्नाटा क्यों पसरा है जो अज्ञेय जितने
"महान" बेशक न हों, पर बड़े कवियों के रूप में न केवल समादृत
थे, बल्कि साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग - संख्या और गुणवत्ता, दोनों की
दृष्टि से - जिनकी परंपरा से जुड़ा होने पर फ़ख्र अनुभव करता रहा है. क्या
हुआ कि प्रकाशन संस्थानों को उनकी कृतियों को लेकर वैसा उत्साह दिखाने का
मन नहीं हुआ? शमशेर, नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल और राम विलास शर्मा को
लेकर, साहित्य में अभिजात वर्ग के प्रतिनिधियों व उनकी पीठ पर हाथ-रखे
कॉर्पोरेट घरानों की जो उदासीनता दिखती है, वह समानुपाती मूल्यांकन के साथ
छेड़खानी करने की सोची-समझी, सुनियोजित योजना तो नहीं?... यहां मैं वह
टिप्पणी भी जोड़ रहा हूं, जो मैंने अशोक के स्टेटस पर थोड़ी देर पहले की थी.
मूल वक्तव्य
Contact:-
G-001, PEARL GREEN ACRES
Shri Gopalnagar,Gopalpura
Bypass,Jaipur, India 302019,
Cell-9783928351,
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