इस किताब के लिए भूमिका जैसा कुछ
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अंशुल प्रकाशन, 11-ए,
बोहरा जी
का बाग़,
टोंक रोड़, जयपुर-
3020215.
प्रथम संस्करण, 2012.
पृष्ठ 104, सजिल्द.
मूल्य:
250.00
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हमारे यहां हर किताब के शुरू में भूमिका लिखने का रिवाज़ है.
किताब में भूमिका उतनी ही ज़रूरी मानी-समझी
जाती है जितनी विषय-सूची. अब जब मैं भी इस ज़रूरी चीज़ को लिखने बैठा हूं तो
इस उलझन में हूं कि भूमिका के नाम पर क्या लिखूं! आम तौर पर तो लोग भूमिका में एक
तरह से इस बात की सफाई देते हैं कि वह किताब उन्होंने क्यों लिखी, या इस बात को
स्पष्ट करते हैं कि उस किताब में उन्होंने क्या लिखा है. लेकिन ये दोनों काम तो मैंने इस किताब में
अन्यत्र कर दिए हैं. इस किताब में परिशिष्ट के रूप में डॉ पल्लव का जो साक्षात्कार
है उसमें मुझे यह सब करने का मौका मिल गया है, इसलिए अब यहां उन्हीं बातों को दुहरा ना
तो बेमानी होगा.
तो फिर ?
सामान्यत: यात्रा संस्मरण को उसके शाब्दिक अर्थ के आधार पर समझना चाहें तो अर्थ कुछ इस तरह का निकलेगा कि किसी ने
कभी कोई यात्रा की, उसी की कुछ स्मृतियों को लिख डाला तो हो गया यात्रा संस्मरण!
हिंदी में
प्रारम्भ में ऐसे बहुत
सारे यात्रा संस्मरण लिखे भी गए. अब भी
लिखे जाते हैं. उनका अपना महत्व है. लेकिन
धीरे-धीरे इस विधा का स्वरूप काफी बदला है
और अब जो यात्रा संस्मरण हमें वाकई अच्छे लगते हैं वे इस तरह के नहीं होते. वे
कैसे होते हैं, इस विस्तार में अगर गया तो डर है कि यह आलेख छात्रोपयोगी बन जाए, और वैसा लिखना न मुझे अच्छा लगेगा और न
आपको पढ़ना. इसलिए
उस विधि से तो कतराकर निकल जाना ही बेहतर होगा.
असल में मेरी यह किताब सिर्फ इस अर्थ में यात्रा संस्मरण है कि इसमें अमरीका का ज़िक्र है.
वरना, इसमें यात्राओं के को ई
संस्मरण अगर आप
तलाश करेंगे तो आपको निराशा
ही होगी. मूलत: यह किताब अमरीका में रहते हुए वहां से दो अखबारों के लिए नियमित रूप से लिखे गए कॉलमों की सामग्री का किंचित संपादित,
किंचित परिवर्धित, संकलन
है. हिंदी के जाने-माने कथाकार (अब तो वे फिल्म से भी जुड़ गए हैं) और मेरे बेहद प्रिय मित्र राम कुमार सिंह ने मुझे कहा कि मैं अमरीका से
उनके अखबार के लिए नियमित रूप से एक कॉलम लिखूं. रामकुमार का यह भी सुझाव था कि
अमरीका को मैं जयपुर के सन्दर्भ में भी देखूं-दिखाऊं. तो एक कॉलम शृंखला मैंने
लिखी और वह राजस्थान पत्रिका में ‘देस में निकला होगा चांद’ शीर्षक से प्रकाशित
हुई. मुझे इन लघु आलेखों पर बहुत
उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं मिलीं. न केवल
प्रतिक्रियाएं, बल्कि मुझे लगा कि उनका कुछ असर भी हुआ. यह जानने का तो कोई तरीका
मेरे पास नहीं है कि जो कुछ हुआ, उसमें मेरे इन आलेखों का योगदान कितना था, लेकिन
यह बात तो पक्की है कि अमरीका की जिन कुछ अच्छी बातों की तरफ मैंने इन आलेखों में से अनेक में ध्यान
आकृष्ट किया था, बाद में वे ही बातें हमारे यहां भी क्रियान्वित हुईं. मसलन, मैंने वहां के पार्कों में सांस्कृतिक आयोजन की चर्चा
की तो बाद में हमारे अपने शहर में भी म्यूज़िक इन द पार्क श्रंखला शुरू हुई, मैंने
वहां सार्वजनिक शौचालयों की सुलभता के
बारे में चर्चा की तो हमारे यहां भी कुछ बेहतर शौचालय बने...
तो एक तरह से मेरे ये आलेख अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन भी थे.
इन आलेखों के बाद एक बार और अमरीका जाने का मौका आया.
इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए युवा
पत्रकार, कथाकार और कवि दुष्यंत ने चाहा कि मैं वहां से उनके अखबार के लिए कुछ लिखूं. उनका अनुरोध टाल नहीं पाया. और उन्होंने उसे प्रकाशित करते हुए यह भी लिख दिया कि मैं यथासम्भव
नियमित रूप से
अमरीका से कुछ लिखूंगा. फिर
तो लिखना ही
था. तो दूसरी बार, फिर से ,
एक मित्र के
अनुरोध पर मैंने कुछ लिखा और उसे उन्होंने बहुत आत्मीयता
से अपने अखबार डेली न्यूज़ में
‘हम तो हैं परदेश में’ शीर्षक
से प्रकाशित किया. इस बार पहले की तरह कोई
सुझाव मेरे सामने नहीं था, इसलिए मैंने जो लिखा उसमें अधिक वैविध्य था. एक और बात
यह कि शायद तीन बार अमरीका जा चुकने के बाद चौथी बार वहां रहते हुए वे चीज़ें मुझे
उतना अभिभूत नहीं कर रही थीं जितना वे मेरी पहली-दूसरी यात्राओं में कर रही थीं. न
केवल अभिभूत
नहीं कर रही थीं, बहुत सारी नकारा त्मक
चीज़ें भी मुझे नज़र आ रही थीं. जिन मित्रों ने मेरी किताब ‘आंखन देखी’
पढ़ी है वे अवश्य ही लक्ष्य करेंगे कि अब इस किताब में अमरीका के प्रति मेरा
प्रशंसा भाव कम हुआ है. इस बात को मैं इस रूप में भी देखता हूं कि यह मनुष्य का
स्वभाव ही है. पहली बार वह चमत्कृत होता है और फिर धीरे-धीरे चीज़ों का विश्लेषण-परीक्षण करता है. मेरे साथ
यही हुआ है. लेकिन इसी के साथ यह भी कह दूं कि जिन चीज़ों और बातों की प्रशंसा
मैंने पहले की, उनका प्रशंसक तो अब भी हूं. इस बात की विस्तार से चर्चा परिशिष्ट
वाले मेरे साक्षात्कार में हुई है. फर्क़ इतना आया है कि पहले मुझे सब अच्छा ही अच्छा
लगा था, अब लगा कि सब कुछ अच्छा नहीं है.
मुझे लगता है कि भूमिका में चीज़ों को बहुत ज़्यादा खोलना पाठक के प्रति अन्याय करने जैसा होता है.
क्यों न पाठक को ही पढ़ने दिया जाए? लेखक
को जो कहना है वह तो उसने अपनी किताब में कहा ही है. तो, बस,
यहीं मैं आपसे विदा लेना
चाहता हूं. आप किताब पढ़ें, और
अगर सम्भव हो तो अपनी प्रतिक्रिया
दें. किताब अच्छी लगे तो, और न लगे तो
भी . बल्कि न लगे तो अवश्य ही.आपसे विदा लूं इससे
पहले इतना और कि
अपने दो सम्पादक मित्रों रामकुमार सिंह और दुष्यंत के प्रति
कृतज्ञ हूं कि
उनके कारण यह किताब लिखी जा सकी. कृतज्ञ अपने
मित्र और प्रकाशक राजेश अग्रवाल के प्रति भी हूं जिन्होंने बहुत सुरुचि और अपनेपन के साथ इस किताब को प्रकाशित किया है.
इसी किताब के अंश को यहाँ पढ़ा जा सकता है
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