महावीर जन्मोत्सव के बहाने आओ अन्दर देखें


“जैन समाज व महावीर वाणी ”

जब जैनी भोग-भूमि की वैयक्तिक सीमा में आबद्ध होकर ‘जैनत्व’ को नये आवरण से परिभाषित कर रहे हो; जिन धर्म विविध मत-मतान्तरों में विभक्त होकर आपसी वैमनस्य का शिकार हो चुका हैं; जैन युवा अन्धकारमय भविष्य में मानसिक कुंठाओं से ग्रस्त होकर स्वयं को स्थापित करने की चेष्टा में लीन हो गया हों तथा संस्कार इतिहास की वस्तु बनने की देहलीज पर खड़े हो तब अनिष्ट की आशंका और जैनियों के भविष्य पर भयग्रस्त होना स्वाभाविक हैं । यह नकारात्मक चिन्तन नहीं, वरन् यथार्थ का प्रतिबिम्ब मात्र हैं अतः सम्पूर्ण जैन समाज के लिए यह चिन्तनीय विषय होना चाहिए ताकि सोच को स्वर्णिम कल्पना से युक्त बनाकर उस दिशा में प्रवेश किया जा सके । 

वर्तमान विश्व भौतिकवाद की ओर तीव्र गति से अग्रसर हो रहा हैं; भोगवादी लालसाएं जैनियों के संस्कारित मन पर भी छाने लग गई हैं । युवा मानसिकता मूल्यों, संस्कारों एवं मूलभूत परम्पराओं की उपेक्षा में आधुनिकता का अर्थ तलाशने लग गई हैं । जीवन का उद्देश्य भी एकांगी होने लगा हैं, तब भविष्य का विकराल स्वरूप स्पष्टतः दिखाई दे रहा हैं। समय से पूर्व जैनियों को सचेत हो जाना होगा । उन्हें यह समझना होगा कि ‘जैन’ जाति नहीं वरन् गुणवाची धर्म हैं, जिसे गुणों से पहचाना जाता हैं, वे गुण जैनियों में परिलक्षित भी होने चाहिए । भविष्य में उत्पन्न होने वाली सामाजिक विषमताओं में जैन समाज को भी नवीन दिशा की आवश्यकता होगी । 

-आज के अर्थ प्रधान युग में धन की महिमा सर्वोपरि बन गई हैं, परिणामस्वरूप हमारी आकांक्षाएं भी असीमित हुई हैं । अच्छे और बुरे के निर्णय का समय भी नहीं बचा हैं । इस अंधमानसिकता के साथ नई सदी आर्थिक-शताब्दी के नाम से जानी जाएगी और समूचे भारतवर्ष का अर्थतंत्र भी जैनियों द्वारा ही संचालित होने की संभावना अधिक हैं । अतः उसके स्वरूप का निर्धारण भी सावधानीपूर्वक करना होगा । मेरी दृष्टि में आदर्शतम स्थिति तो तब होगी जब सम्पत्ति का आधार एकतंत्रीय न हो । उसका वितरण इस प्रकार हो कि मनुष्य तो क्या पत्थर भी भूखा न रहे । धन की अतिशयता का उपयोग आडम्बरों के स्थान पर शुभ कार्यों में हो तो वह हमारे आदर्शानुकूल होगा ।-चतुर्दिक हिंसा का ताण्डव वीभत्स रूप ले चुका हैं । इंसानी खून के प्यासे भेड़िये मानव रूप में चारों ओर घूम रहे हैं । शक्ति का असीम प्रदर्शन विनाश को आमंत्रण दे रहा हैं । ऐसी स्थिति में सकल विश्व को निर्देशित करने में महावीर-वाणी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी । जैनियों का यह दायित्व होगा की महावीर का अहिंसा सिद्धांत मानव-मात्र तक पहुंचें ।

-ज्ञान की परिधि ने सदैव विस्तार पाया हैं; मनुष्य की बुद्धि ने अब तीक्ष्ण रूप ले लिया हैं, मान्यताएं तर्क की कसौटी पर कसी जाने लगी हैं । परिणाम स्वरूप ‘जैन-दर्शन’ में भी ‘विश्वास’ का स्थान ‘तर्क’ ने ले लिया हैं । जिसका दुःखद फल यह हुआ कि आज हमज  जैन समाज को विविध मत मतान्तरों में विभक्त देख रहे हैं ।-निष्कर्षतः कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता हैं । यदि हमें जैन समाज को आदर्शतम स्वरूप प्रदान करना हैं तो आपसी संकीर्ण मतभेदों को दूर करना होगा, पारम्परिक रूढ़िवादी मूल्यों को नवीन दृष्टिकोण से युक्त बनाना होगा । संस्कार और सभ्यता के विलक्षण मेल को स्वीकार करना होगा, अन्यथा अस्तित्व का संकट उपस्थित हो सकता हैं तब कहीं जैनियों का रूप स्वयं इतिहास नहीं बन जावें ।

 योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-

डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
(अकादमिक तौर पर डाईट, चित्तौडगढ़ में वरिष्ठ व्याख्याता हैं,आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर ही शोध भी किया है.निम्बाहेडा के छोटे से गाँव बिनोता से निकल कर लगातार नवाचारी वृति के चलते यहाँ तक पहुंचे हैं. राजस्थान कोलेज शिक्षा में हिन्दी प्राध्यापक पद हेतु चयनित )
ई-मेल:singhvi_1972@rediffmail.com
मो.नं.  9828608270

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