नयी किताब:-हम कौन हैं?
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Rajat Rani 'Meenu'
Vani Prakashan
Price : Rs.200(HB)
ISBN :
978-93-5000-818-8
|
युग बदल गया
और बदल
रहा है,
नहीं बदली
है तो
वह हमारी
जाति आधारित
व्यवस्था और
संकीर्ण मानसिकता
। दुःख
का अधिकार
भी एक
निम्नवर्ग को समाज प्रदान नहीं
करता ।
दुःख और
सुख के
लिए एक
स्तर होना
चाहिए ।
भूमंडलीकरण के दौर में जहाँ
शहरीकरण तो
बढ़ा है,
लेकिन इस
शहरीकरण में
व्यक्ति के
संस्कारों में पुरानी छाप दिखाई
देती है
। उस
छाप में
कोई अपनी
जाति के
लिए अम्बेडकर
और कांशीराम
को दुश्मन
बताता है,
तो कोई
वी.पी.
सिंह को
। एक
बच्चा विद्यालय
में पढ़ने
जाता है
तो उससे
टीचर प्रश्न
करते हैं
कि तुम्हारा
सर नेम
क्या है
? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी गुरुद्रोण
का आशीर्वाद,
अर्जुन की
जीत और
एकलव्य की
ऐसी-तैसी
भी देखने
को मिलती
है ।
हम कौन
हैं ? की
कहानी 'गिरोह'
पृष्ठ संख्या
117 से ।
"पाँच-सात लड़के विद्यालय-प्रांगण
में बैठे
गप्पें मार
रहे थे
। जातियों
का प्रसंग
छिड़ा था,
तो सुरेश
चौधरी नामक
लड़के ने
कहा, 'यार
कल मेरे
गाँव के
चमट्टे को
हमारी बिरादरी
ने खूब
पीटा ।
कारण, वे
हरामजादे मजदूरी
करने से
मना कर
रहे थे
।इन सालों
की इतनी
हिम्मत ? हमारी
रोटियों पर
पले हमसे
सीनाजोरी करते
हैं ।
इनकी औकात
ही क्या
है ? मेरे
पिता जी
के कहने
पर हमारे
आदमियों ने
तो उन्हें
अधमरा कर
दिया ।
खूबा चमार
तो भंगियों
के छप्परों
में घुस
गया ।
इसलिए उसे
छोड़ दिया,
नहीं तो
उसकी तो
कहानी ही
ख़त्म हो
जाती।" यह सुन कर कैलाश
शर्मा बोला-"पिछले साल
इन्हीं की
जमीन तुम्हारे
घरवालों ने
छीनी थी
।" सुरेश
चौधरी पुन:
चहकता हुआ
बोला-"जमीन इनकी थोड़े ही
थी ।
वह तो
हमारे पास
रेहन (गिरवी)
रखी थी
। कंगन
समय पर
नहीं छुड़ा
पाये तो
डूब गयी,
और डूबती
भी न
तो हम
उन्हें कौन
से वापस
देते ।
हमारे बब्बा
ने पाँच
बीघा से
पचास बीघा
जमीन कोई
जादू से
थोड़े ही
बढ़ाई है
। इन्हीं
मूर्खों से
ली है।"
प्रदीप वर्मा
ने उत्साह
के साथ
कैलाश शर्मा
के घर
की पोल
खोलते हुए
कहा, "तुम्हारे बड़े भइया ने
तो एक
चमारी से
शादी कर
ली है
। उसे
क्यों छुपाते
हो ।"
कैलाश ने
प्रदीप को
डपटते हुए
सचेत किया
कि "खबरदार,
मेरी भाभी
को चमारी
कहा तो
! वह तो
रईस-सीनियर
आई.ए.एस. की
बेटी हैं
और खुद
भी आई.
ए. एस.
की परीक्षा
में बैठ
रही हैं
। "प्रदीप
ने खिसियाते
हुए कहा,
"है तो
चमारी ही।"
ऊँची नौकरी
पर होने
से जाति
थोड़े ही
बदल जाती
है ।"
कैलाश ने
पुन: जोर
देते हुए
कहा " बदल कैसे नहीं जाती
।
जमाना
बदल रहा
है, जाति
भी बदल
रही है
और इंसान
भी बदल
जाते हैं
। क्या
तू नहीं
जानता कि
लड़की की
शादी होते
ही उसकी
जाति वही
हो जाती
है जो
उसके पति
की होती
है ।
क्या वर्मा
की बेटी
शर्मा से
शादी करने
पर मिसेज
शर्मा नहीं
हो जाती
।" आपस
में झगड़
क्यों रहे
हो, ज्ञानदेव
मिश्रा बोला-
मैं तुम
लोगों को
अपने दूर
के रिश्तेदार
की कहानी
बताता हूँ
। मेरी
ममेरी भांजी
ने एक
पासी युवक
से शादी
कर ली
। फिर
क्या था
उसके पति
ने पासी
जाति का
प्रमाण-पत्र
उसके लिए
बनवा दिया
। कुसुम
पढ़ने में
तो होशियार
नहीं थी
पर वह
उच्च जाति
से सम्बन्ध
रखती थी
। उसे
पढ़ाई की
सहूलियते मिली
हुई थीं
। अब
कुसुम रेलवे
में आरक्षण
पा कर
अफसर बनी
हुई है
।कुसुम कहती
है कि
मैं अपने
हसबैंड के
गाँव एक
बार गयी
थी, वहाँ
उनके मोहल्ले
में बहुत
बदबू आती
है ।
वहाँ के
मर्द-औरतें
और बच्चे
मैले-कुचैले
कपड़े पहने
घूमते हैं
। गन्दी
काली-खूसट
औरतें मेरे
दोनों हाथ
पकड़-पकड़कर
चूमती थीं।
वह कहती
है कि
मैं उसके
साथ ज्यादा
दिन नहीं
रह सकती।"
पुस्तक के सन्दर्भ
में......
कहानी 'हम कौन
हैं?' उसी
कहानी के
शीर्षक पर
पुस्तक 'हम
कौन हैं?'
का नाम
रखा गया
है ।
जो एक
प्रश्न उत्पन्न
करती है
और यह
पहचान का
सवाल हमेशा
दलितों के
बीच उभरता
रहा है
कि 'हम
कौन थे
और क्या
हो गये
हैं ?' इतिहास-बोध की
दृष्टि से
अछूत बनाई
गयी जातियों
को स्वामी
अछूतानन्द अछूत भारत को 'आदि
हिन्दू' मानते
थे ।
बाद में
बाबा साहब
डॉ. भीमराव
अम्बेडकर ने
बहिष्कृत भारत
नाम दिया
। 1956 में
बौद्ध धर्म
ग्रहण किया,
तब से
महाराष्ट्र के कुछ अछूत अपने
आप को
बुद्ध का
अनुयायी कहने
लगे ।
उत्तर भारत
में दलितों
ने अपनी
जड़ें बाद
में पहचानीं
। कुछ
दलित अपने
कार्य व्यवहार
में हिन्दू
ही बने
रहे, तो
कुछ ने
बौद्ध धर्म
के आवरण
ओढ़ लिए
। इधर
'आजीवक धर्म'
की खोज
भी जोरों
पर है
। कहा
जाता है
कि यह
बुद्ध से
पहले का
धर्म था
। कमजोर
वर्ग का
धर्म होने
के कारण
इसे ताकतवर
वर्ग के
धर्म ने
दबा दिया
और यह
विलुप्त कर
दिया गया
। अब
गैर दलितों
के लिए
दलित चाहे
जितने धर्म
रूपी वस्त्र
बदल लें,
परन्तु उनके
लिए वे
अछूत ही
हैं। भारतीय
समाज पर
अभी भी
हिन्दू धर्म
का वर्चस्व
कायम है
।
जातिविहीन
समाज बनाने
वालों के
दावों के
बावजूद 'जाति'
भारतीय समाज
में जन्म
से ही
जिज्ञासा का
विषय बनी
रही है
। इस
समाज में
दलित स्त्री
के साथ
हो रहे
जातिगत भेदभावों,
अमानवीय दमन
को निज
से जोड़
कर देखें
तो अनुभवों
के वितानों
का विस्तार
होता चला
जाता है
। 'फरमान'
कहानी इसी
तरह के
अनुभवों को
समेट कर
लिखी गयी
है ।
दलित समाज
में शिक्षा
का स्तर
अवश्य बढ़ा
है, जीवन
स्तर में
भी सुधार
हुआ है
। भले
ही यह
गैरदलितों के विकास की तुलना
में न
के बराबर
है ।
सामन्ती व्यवस्था
भारतीय समाज
पर लम्बे
अर्से तक
कायम रही
। यूँ
दलित कभी
सामन्त नहीं
रहे। मगर
गैरदलितों द्वारा लम्बे समय तक
उनसे सेवाएँ
ली गयीं
। उनके
साथ दासों
से भी
ज्यादा ज्यादतियाँ
की गयीं
। समाज
से मिले
विभिन्न तरह
के विषमतावादी
अनुभवों ने
लेखिका के
संवेदनशील मन-मस्तिष्क पर चोट
की है
। दर्द
के रूप
में 'वे
दिन', 'धोखा',
'सलूनी' जैसी
कहानियाँ सृजित
हुई हैं
। 'हम
कौन हैं?'
ये समाज
के कटु
यथार्थ की
पीड़ादायी अभिव्यक्ति है ।
लेखिका के सन्दर्भ
में.....
रजत रानी 'मीनू'
का जन्म
उत्तर प्रदेश
के शाहजहाँपुर
जनपद के
जौराभूड़ नामक
गाँव में
हुआ ।
एम.फिल.,और पीएच.डी. (हिन्दी
दलित कथा-साहित्य का
आलोचनात्मक मूल्यांकन), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
से प्राप्त
की ।
हंस, कादम्बिनी,
हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, अन्यथा, अपेक्षा,
बयान, बसुधा,
अंगुत्तर, युद्धरत आम आदमी, इंडिया
टुडे आदि
पत्र-पत्रिकाओं
में कहानियाँ,
कविताएँ, आत्मकथाएँ
एवं समीक्षा
प्रकाशित ।
नवें दशक
की हिन्दी
दलित कविता
पुस्तक मध्य
प्रदेश दलित
साहित्य अकादमी,
उज्जैन द्वारा
पुरस्कृत। वर्तमान में यह असिस्टेंट
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कमला नेहरू
कॉलेज, दिल्ली
विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं ।
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