वो दिन कब
आएगा जब
तमाम वामपंथी
पार्टियों के ठिकानों (आप इसे
"दफ़्तरों" पढ़ सकते
हैं!) पर
धावा बोलकर
वहां बैठे
पदाधिकारियों की आंखों में उंगली
डाल कर
आज के
हिंदुस्तान का सच दिखाया जाएगा?
लगता नहीं,
कि ये
अपने आप
इस सच
को देखने
की ज़हमत
उठाएंगे. कोई
दीर्घकालिक योजना इनके पास है,
इसका सबूत
इनके दैनंदिन
आचरण-व्यवहार
से तो
मिलता नहीं.
हालात और
कितने बदतर
हों कि
इनकी कुंभकर्णी
नींद टूटे
! जब रणनीति
ही नहीं
है, तो
कार्यनीति कहां से आएगी? इन्हें
कार्पोरेटी-फ़ासिस्ट गंठजोड़ की वास्तविकता
क्यों नहीं
दिख पा
रही?
विकास
के नाम
पर जल-जंगल-ज़मीन,
सब को
सुंदर-सी
तश्तरी में
रख कर
कारपोरेटों को भेंट कर देने
की साज़िश
समझ में
क्यों नहीं
आ रही?
इन्हें अपने
काडर के
भीतर पनपता
असंतोष भी
क्यों दिखाई
नहीं दे
रहा? इतनी
चुप्पी, इतना
सन्नाटा इनके
ठिकानों में,
कि यह
निष्कर्ष निकालना
गैर-वाजिब
नहीं होगा
कि जनता
को इनसे
कोई उम्मीद
नहीं रखनी
चाहिए. दुश्मन
पीटता है,
तो पिट
लें! मारता
है, तो
मर जाएं
! महिलाओं की अस्मत लुटती है,
तो लुटे!
विकास के
नाम पर
सांप्रदायिक शक्तियां देश के सामने
संकट पैदा
कर रही
हों तो
करती रहें
! कब तक
यह चलता
रहेगा कि
ये इस
या उस
मुद्दे पर
इस या
उस बुर्जुआ
पार्टी के
साथ खड़ी
होकर अपने
"होने" को प्रमाणित
करती रहेंगी?
दुनिया भर
में चल
रही परिवर्तनकामी
कसमसाहट पर
इनकी नज़र
क्यों नहीं
पड़ रही?
इन्हें यह
भी ध्यान
रखना चाहिए
कि जनता
यदि ज़ुल्म
का प्रतिकार
करने के
लिए एकजुट
हो गई
किसी दिन,
तो इन्हें
अपनी पांतों
में घुसने
नहीं देगी!
आस-पास
फटकने भी
नहीं देगी
!
और किस खतरे
की घंटी
के बजने
का इंतज़ार
है, इन्हें???
ताले अभी
भी बनते
हैं. "अलीगढ़ी" पसंद न हों
तो "चीनी"
ताले खूब
मिल रहे
हैं. बाज़ार
अंटा-पटा
पड़ा है,
चीनी तालों
और कैंचियों
से. और
दुकान में
सामान न
हो तो,
ताला लगा
देना "अविवेकी" नहीं माना जाता.
दुकान खुली
रख कर
मक्खियां मारते
रहने से
ज़्यादा बदनामी
होती है.
वैसे भी
मक्खियां मारने
का काम
संभालने के
लिए तो
सत्ता ने
करोड़ों लोगों
को खेत-ज़मीन से
बेदखल करके
बेरोज़गार बना ही दिया है.
मक्खियां मारना
इन्हें "शोभा" थोड़े ही देता
है !
परिवर्तन की वस्तुगत
परिस्थितियां तो काफ़ी "पकी हुई-सी" दिखती
हैं, उन्हें
और पकाने
के लिए
जिस सही
"उत्प्रेरक" की ज़रूरत
होती है,
उस काम
का ज़िम्मा
निहित होता
है, परिवर्तन
की इच्छा
को फ़ैसलाकुन
हमले की
तैयारी में
तब्दील करके
जनता को
लामबंद करने
की नेतृत्व-क्षमता रखने
वाली पार्टी/पार्टियों में!
देर तो
खूब हो
गई है,
फिर भी
जागने का
मन हो
तो सवेरा
हो ही
जाएगा. यह
दूसरी बात
है कि
यह सुबह
"वो सुबह
कभी तो
आएगी" से जुदा हो, शुरुआत
में. पर
जागने पर
होने वाली
सुबह "उस सुबह" में बदल
जाए इसके
लिए बहुत
पापड़ बेलने
होंगे. यदि
"पापड़ बेलने का मन” हो
तो :
1. सभी रंगतों के
वाम को
एक साथ
मिल-बैठ
कर, आज
के सामाजिक
यथार्थ के
"चरित्र" का विश्लेषण
करके, एक
समयबद्ध न्यूनतम
साझा कार्यक्रम
की रूपरेखा
बनानी होगी;
2. समाज के विभिन्न
संस्तरों में
से अपने
"स्वाभाविक मित्र/सहयोगी चिह्नित करने
होंगे, तथा
उनके मन
में अपने
प्रति विश्वास
पैदा करना
होगा;
3. पिछले चालीस-पचास
साल में
जो परिवर्तन-लक्षित चिंतन
हुआ है,
दुनिया भर
में, उसके
आधार पर,
अपनी समझ
को दुरुस्त
करना होगा.
अतीत के
किसी (स्वर्णिम
भी?) दौर
में उलझे-अटके रहना,
समझ की
दुरुस्तगी की राह में सबसे
बड़ा रोड़ा
साबित होगा,
इस खतरे
से बाखबर
हुए बिना
“कल” का
रास्ता निर्धारित
नहीं किया
जा सकता,
और न
दिशा ही;
4. अपने वैचारिक/बौद्धिक
हमदर्दों को
हिक़ारत की
नज़र से
देखना बंद
करके उनके
साथ सतत
जीवंत संवाद
क़ायम करना
होगा;
5. दलित-अदिवासियों-महिलाओं
के मुद्दों
को अपने
अल्पकालिक व दीर्घकालिक, दोनों एजेंडों
में न
केवल प्राथमिकता
के साथ
शामिल करना,
बल्कि यह
दिखाना भी
होगा कि
एक बड़ी
लड़ाई के
परचम तले
ही इन
प्रश्नों का
समाहार संभव
है, विमर्शवादी
तरीकों से
नहीं. इन्हें
एक ही
लड़ाई का
हिस्सा बनाकर
सामाजिक समरसता
को बनाए
रखा जा
सकता है,
जिसके बिना
लड़ाई बंट
जाती है,
और विफल
होने को
अभिशप्त होती
है.
यह भी ध्यान
रखें कि
आपके हमदर्दों
को भी
जवाब देने
पड़ते हैं,
क्योंकि जवाब
उनसे मांगे
जाते हैं.
इसीलिए यह
आह्वान जागने
का! आत्महंता
दृष्टि यदि
स्थाई भाव
नहीं बनी
है तो,
जागो.
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