लेखक:-आशुतोष कुमार
'कथादेश'
के जून
अंक में
'व्याधि पर
कविता या
कविता की
व्याधि ' शीर्षक
लेख एक
जरूरी सवाल
उठाता है
. बीमारी को
कष्ट , असहायता
, मृत्यु और
घृणा के
रूपक में
बदलना बीमार
व्यक्ति के
प्रति एक
अमानवीय क्रूरता
है . कोढ़
की तरह
सड़ना
,प्लेग की तरह फैलना , कैंसर
की तरह
जड़ें जमा
लेना
प्रचलित मुहावरें हैं . लेकिन ऐसे
मुहावरे बीमारी
के प्रति
समाज में
एक नकारात्मक
नज़रिया बनाते
हैं . बीमारी
बीमार के
लिए शर्मिंदगी
का बायस
बन जाती
है . वह
भरसक अपनी
बीमारी को
छुपाता है
.धीरे- धीरे वह समाज से
अलगाव में
चला जाता
है . बीमारी
के सामने अकेला
पड़ जाता
है . ऐसे
में इलाज
मुश्किल हो
जाता है
. इलाज
हो जाए
तो भी
उस बीमारी की बदनामी
घेरे रहती है . मरने की
बाद भी
नहीं छोडती.
हम सब
इसे अपने
अनुभव से
जानते हैं
. शायद ही
कोई इस
पर
संदेह करे .
लेखिका
शालिनी माथुर
ने इस
आलेख में
स्तन कैंसर से सम्बंधित दो
कविताओं पर
विचार किया
है . पवन
करण की
कविता ' स्तन
' और अनामिका
की 'ब्रेस्ट
कैंसर '.उनका
कहना है
कि इन
कविताओं में
व्याधि का
ह्रदयहीन क्रूर
निरूपण किया
गया है
. उनका कहना
यह भी
है कि
इन कविताओं
में स्त्री-
शरीर का
निरूपण 'पोर्नोग्राफिक'
है . सूसन
सोंतैग के
हवाले से
वे मानती
हैं कि
' शरीर को
मनविहीन हृदयहीन
वस्तु ' के
रूप में
निरूपित करना
पोर्नोग्राफी है .खास तौर पर स्त्री-
शरीर को
इस तरह
निरूपित करना पुरुष-
प्रधान समाज
में स्त्री
की हीन
और अपमानजनक
अवस्था को
मंजूर करना
और पुनर्स्थापित
करना है
.
अगर स्त्री
-शरीर एक
उपभोग - वस्तु
मात्र है
तो बीमारी
उस के
उपभोग- मूल्य
को क्षति पहुंचाती
है .इस
लिए बीमारी
के प्रति
नकारात्मक नज़रिया स्त्री को उपभोग-
वस्तु समझने
वाली दृष्टि
के मेल
में है
. यह नज़रिया
अपने आप
में रुग्ण
है , और
अश्लील भी.
शालिनी
का मुख्य
मुद्दा यह
है कि
हिंदी में
ऐसी बहुत
सी कवितायें लिखी और सराही
जा रही
हैं , जो
ऊपर से
तो स्त्री
के पक्ष
में लिखी
गयी जान
पड़ती हैं
, या ऐसा
दावा करती
हैं , लेकिन
ध्यान से
देखने
पर पता चलता है कि
वे
स्त्री के प्रति इसी रुग्ण
- अश्लील दृष्टि
से लिखी
गयीं हैं
. अगर ऐसा
हो रहा
है तो हिंदी
की मौजूदा
काव्य- संवेदना
स्वयं रुग्ण
और अश्लील
है .सवाल
यह है
कि क्या
सचमुच ऐसा
हो रहा
है .
आइये
, पहले पवन
करण की
कविता 'स्तन
' पढते हैं
.
इच्छा
होती तब
वह उन
के बीच
धंसा लेता
अपना सिर
और
जब भरा
हुआ होता
तो तो
उन में
छुपा लेता
अपना मुंह
कर
देता उसे
अपने आंसुओं
से तर
वह
उस से
कहता तुम
यूं ही
बैठी रहो
सामने
मैं
इन्हें जी
भर के
देखना चाहता
हूँ
और तब तक उन
पर आँखें
गडाए रहता
जब तक वह
उठ कर
भाग नहीं
जाती सामने
से
या
लजा कर
अपनी हाथों
में छुपा
नहीं लेती
उन्हें
अन्तरंग
क्षणों में
उन दोनों
को
हाथों
में थाम
कर वह
उस से
कहता
ये
दोनों तुम्हारे
पास अमानत
हैं मेरी
मेरी
खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना
वह
उन दोनों
को कभी
शहद के
छत्ते
तो
कभी दशहरी
आमों की
जोड़ी कहता
उन
के बारे
में उसकी
बातें सुन
सुन कर
बौराई ---
वह
भी जब
कभी खड़ी
हो कर
आगे आईने
के
इन्हें
देखती अपलक
तो झूम
उठती
वह कई दफे सोचती
इन दोनों
को एक
साथ
उसके
मुंह में
भर दे
और मूँद
ले अपनी
आँखें
वह
जब भी
घर से
निकलती इन
दोनों पर
दाल
ही लेती
अपनी निगाह
ऐसा करते
हुए हमेशा
उसे
कॉलेज में
पढ़े बिहारी
आते याद
उस
वक्त उस पर इनके बारे
में
सुने
गए का
नशा हो
जाता दो
गुना
वह
उसे कई
दफे सब
के बीच
भी उन
की तरफ
कनखियों
से देखता
पकड़ लेती
वह
शरारती पूछ
भी लेता
सब ठीक
तो है
वह
कहती
हाँ जी हाँ
घर
पहुँच कर
जांच लेना
मगर
रोग , ऐसा
घुसा उस
के भीतर
कि
उन में
से एक
को ले
कर ही
हटा देह
से
कोई
उपाय भी
न था
सिवा इस
के
उपचार
ने उदास
होते हुए
समझाया
अब
वह इस
बचे हुए
एक के
बारे में
कुछ
नहीं कहता
उस से
, वह उस
की तरफ
देखता है
और
रह जाता
है , कसमसा
कर
मगर
उसे हर
समय महसूस होता है
उस
की देह
पर घूमते
उस के
हाथ
क्या
ढूंढ रहे
हैं , कि
इस वक्त
वे
उस
के मन
से भी
अधिक मायूस
हैं
उस
खो चुके
के बारे
में भले
ही
एक-दूसरे से
न कहते
हों वे
कुछ
मागत
वह, विवश
, जानती है
उसकी
देह से
उस एक
के हट
जाने से
कितना
कुछ हट
गया उन
के बीच
से
लेख
में कविता
का बड़ा
हिस्सा उद्धृत
किया गया
है . लेकिन
कुछ छूट
भी गया
है .
कहा
गया है
कि इस
कविता में
स्त्री शरीर
पुरुष शरीर
का खिलौना
है , पुरुष
के रमण
के लिए
. यह स्त्री
देह के
लिए इस
कविता में
प्रयुक्त उपमानों
से जाहिर
होता है
. पवन करण
की कविता
की स्त्री
भी स्वयं
को गोश्त
का टुकड़ा
ही समझती
है . वह
वस्तुकृत , विवश और अपमानित है
. यह विवश
स्त्री पोर्नोग्राफी
की क्लासिकल
स्त्री छवि
है . यह
कविता पहले
से अपमानित
स्त्री को
उस के
कैंसर से
पीड़ित होने
और एक
अंग गंवा
देने के
कारण और
अधिक अपमानित
करती है
. ऊपर से
कवि एक
अपराध और
करता है
. वह इस
कविता को
नाम ले
कर एक
वास्तविक स्त्री
को समर्पित
करता है
, जो सचमुच
कैंसर के
कारण अपनी
देह का
एक अंश
गंवा चुकी
है .
आश्चर्य
की बात
है कि
ऐसी संवेदनशीलता
के बावजूद
इस लेख
में भी
उस पीड़ित स्त्री
के नाम
का उल्लेख
करने से
गुरेज़ नहीं
किया गया
है .यह
वैसा ही
है जैसे
कोई अखबार
में बलात्कार
से पीड़ित
स्त्री की
तस्वीर छापने
पर आपत्ति
करे और
खुद वह
तस्वीर छाप
दे! इस
से आपत्ति
करने वाले की संवेदनशीलता के
बारे में
क्या पता
चलता है
? यहाँ एक
और सवाल
उठता है
. साधारण रूप
से किसी व्यक्ति
विशेष के
लिए कोई
खास
कविता समर्पित करना उस के
प्रति विशेष
सम्मान प्रगट
करना माना
जाता है
. हाँ , अगर
वह एक
अपमानजनक कविता
हो
तो बात दूसरी है . इस
विन्दु पर
हम लौटेंगे.
लेकिन
सामान्य रूप
से कैंसर
से पीड़ित
महिला के
नाम का
उल्लेख अपमानजनक
क्यों माना जाना चाहिए ? .लेखिका
ऐसा मानती
प्रतीत होती
है. उसने
अपनी यह
आपत्ति अनामिका
की कविता
के संदर्भ
में भी
दुहराई है
. लिखा है
-''सभ्य समाज
में ..व्यक्ति
की विकलांगता
को द्योतित
करने वाले
शब्द कहना
उचित नहीं
समझा जाता
, वहाँ एक
स्त्री के
एक ब्रेस्ट
को कैंसर
के कारण
काट दिए
जाने पर
ऐसी कविता
लिखी गयी
और नाम
ले कर
व्याधिग्रस्त स्त्री को समर्पित
की गयी.
'' सवाल है
कि आखिर
क्यों उचित
नहीं समझा
जाता . क्या
विकलान्गता या बीमारी स्वतः अपमानजनक
बातें हैं
? विकलांगता या बीमारी का मजाक
उड़ाना और
उसे अपमानित
करना निस्संदेह
अमानवीय है
. लेकिन उन्हें
स्वतः
अपमानजनक मान लेना और इस
लिए
उन के बारे में शर्मिंदगी
या 'करुणा
' महसूस करना
? ऊपर से
दोनों बातें
अलग लगती
हैं , लेकिन
उन के
पीछे नज़रिया
एक ही
है . जिन
लोगो ने
विकलांगता पर केंद्रित ' सत्यमेव जयते
' का इपीसोड देखा है , उन्हें
उस व्यक्ति
की याद
होगी , जिस
ने विकलांगों
के लिए
'विशिष्ट समर्थ
' जैसी शब्दावली
के इस्तेमाल
पर गंभीर
आपत्ति की
थी . इस
प्रकार की
सहानुभूति या सम्मान इस धारणा
से उपजता
है कि
विकलांगता या बीमारी 'सामान्यता ' से
एक दुखद
विचलन है
, जिसे
भरसक छुपा कर रखना ही
सभ्यता का
तकाजा है
.
देखने
की बात
है कि
लेखिका की
यह
धारणा उसी के द्वारा आरम्भ
में ही उद्धृत
सूसन सोंतैग
के इस
कथन
के ठीक विपरीत है -''.. कैंसर
केवल एक
बीमारी है
, अभिशाप नहीं
, सजा नहीं
, शर्मिंदगी नहीं.'' जब कि
लेखिका बीमार
रहीं स्त्रियों
के नामोल्लेख
मात्र से
शर्मिंदा है
. बीमारी के
प्रति शर्मिंदगी
का यह
रवैया उसे
रुग्ण
रूपक में बदलने जैसा ही
अपमानजनक और
खतरनाक है.
यह समाज
को सामान्य
और असामान्य
के खानों
में बाँट
कर बीमार
को असामान्य
के हीनतर खाने में धकेल
देना है
.खुद लेखिका
के बताये
लक्षणों के
मुताबिक़ यह
एक पोर्नोग्राफिक
नज़रिया है
.
अब
देखा जाए
कि क्या
ऊपर उद्धृत
कविता स्त्री
के लिए
अपमानजनक है
. कविता में
पुरुष 'वह
' स्तनों की
उपमा शहद
के छत्ते या दशहरी आमों
से देता
है . वह
खुशी मनाने
के लिए
और 'दुःख
भुलाने के
लिए भी'
स्त्री के
स्तनों में
अपना सर
धँसा देता
है .हालांकि लेख में यह
दूसरी बात
नज़रंदाज़ कर
दी गयी
है . कविता
से
स्पस्ट है कि स्तन वास्तव
में उस
के प्रेम
और उस
के सम्पूर्ण
जीवन के
केंद्रविंदु- जैसे हैं . स्त्री का
सम्पूर्ण व्यक्तित्व
दो स्तनों
में समाहित
है .
स्त्री के लिए भी , जो इस स्थिति से
, बीमार होने
के पहले
तक , स्वयं
आह्लादित है .
बीमारी
के बाद
स्थिति में
बदलाव आता
है .
उसकी
देह से
उस एक
के हट
जाने से
कितना
कुछ हट
गया उन
के बीच
से
देह
का
केवल एक अंग हटाया
गया , लेकिन
उस से
'कितना कुछ
' हट गया
. स्त्री अव्यक्त विवशता
के साथ
इस बदलाव
को महसूस
करती है
. यह विवशता
'उस एक
' और ' कितना
कुछ ' के
कंट्रास्ट से जाहिर होता है
. क्या कविता
उस स्त्री
की विवशता
का मज़ा
ले रही
है ? या
उस का
मजाक उड़ा
रही है
? अगर कविता
के इस
आख़िरी अंश
को निकाल
दिया जाए
तो ऐसा
ही लगेगा.
लेकिन यह
अंतिम अंश
समूची कविता
स्त्री होने
की विवशता
के एक
मार्मिक पाठ
में बदल
देता है
. वह एक
झटके में
दिखा
देता है कि स्त्रीत्व को स्त्री-
स्तनों से
परिभाषित करने
वाली सभ्यता
वास्तव में
कितनी स्त्रीविरोधी
और अमानवीय
है. इस
सभ्यता में
स्त्री
पुरुष के उपभोग मात्र के
लिए है
, और ऐसा
होने के
लिए विवश
है . सही
है कि
कविता में
ऐसे उपमान
और उल्लेख
भरे पड़े
हैं , जो
स्त्री को
केवल उस
के
दो स्तनों से परिभाषित करते
हैं ,आनंद
के लिए
भी और
आश्रय के
लिए भी
. स्त्री भी
इसे प्रसन्नतापूर्वक
मंज़ूर करती
है .
ऐसा न होता तो दैहिक क्षति
एक साधारण
दुर्घटना भर
होती, वह
पुरुष और
स्त्री के
परस्पर प्रेम
और उनके
समूचे जीवन
और अस्तित्व
को प्रभावित
नहीं करती
. लेकिन कविता
में यही
होता है.
कविता इस
स्थिति की
विडम्बना को
पुरुष और
स्त्री दोनों
की विवशता
के रूप
में दर्ज
करती है
.
क्या
यह एक
काल्पनिक स्थिति
है ?क्या
पुरुष प्रधान
समाज में
स्त्री की
स्थिति और
अवस्थिति ठीक
ऐसी ही
नहीं है
? फिर इस
'विवशता' के
उल्लेख मात्र
से यह
कविता स्त्रीविरोधी
और पोर्नोग्राफिक
कैसे हो
गयी ? अगर
कविता का
पाठ इस
तरह किया
जाएगा तो
'कत विधि
सृजी नारी
जग मांही/
पराधीन सपनेहु
सुख नाहीं
' और 'मैं
नीर भरी
दुःख की
बदली' जैसी
पंक्तियाँ भी पोर्नोग्राफिक ठहराई जायेंगी
. स्त्री
की विवशता
का उल्लेख
केवल तभी
पोर्नोग्राफिक हो सकता है , जब
उस के
पीछे मज़ा
लेने वाला
नजरिया और
उद्देश्य हो
.जब ऐसा
होता है
तब उस
विवशता का
उल्लेख ग्राफिक
विस्तार के
साथ , रस
ले ले
कर किया
जाता है.
कोई भी
देख
सकता है कि प्रस्तुत कविता
में ऐसा
नहीं है
. विस्तृत उल्लेख पुरुष के स्तन
-व्यामोह का
है , जिस
की
स्वाभाविक परिणति स्त्री
-पुरुष दोनों
की विडम्बनापूर्ण
विवशता है
. कविता साफ़
साफ़ उस
स्तन -व्यामोह
के विरुद्ध
खड़ी है
, उस के
पक्ष में
नहीं .
यह
जरूर कहा
जा सकता
है कि
स्त्री की
विवशता को
हमेशा स्वाभाविक
और अनिवार्य
मान कर
नहीं चला
जा सकता
. स्त्री इस
विवशता को
नामंजूर
कर सकती है . इसके विरुद्ध
विद्रोह कर
सकती है
. उस पुरुष
को ठुकरा
सकती है
, जिस के
लिए 'उस
एक ' के
न रहने से 'कितना कुछ
' खो गया
है. विवशता
आखिरकार एक
चुनाव का
नतीज़ा होती है. पुरुष प्रधान
सभ्यता में
चुनाव पुरुष
करता है
, स्त्री नहीं
. इस लिए
स्त्री जब
चाहे खुद
को उस
चुनाव से
आज़ाद कर
सकती है
. चुनाव करने
वाला पुरुष
है , इस
लिए विवशता
भी बुनियादी
रूप से
उसी की
है . वह
अपने चुनाव
के परिणाम
से बच
नहीं सकता
. स्त्री उस
से बंधी
हुयी नहीं
है . लेकिन
इस कविता
में वह
स्त्री विद्रोह
नहीं करती
. अपनी विवशता
से बाहर
आने की
कोशिश नहीं
करती. इस
अर्थ में
कहा जा
सकता है
कि इस
कविता में
एक 'पुरुष-दृष्टि' सक्रिय
है . कविता
स्त्री की
विवशता को
तो देख
पा रही
है , लेकिन
उस में
निहित विद्रोही
संभावनाओं को नहीं. यह कविता
में सक्रिय
'पुरुष -दृष्टि
' की सीमा
हो सकती
है.
विवशता का संवेदनशील रेखांकन विद्रोह
की संभावना
को समेटे
हुए है
, लेकिन उसे उजागर
नहीं करता
. विवशता को
देख पाना
, उसे न
देख पाने
या उस
का मज़ा
लेने के
बराबर नहीं
ठहराया जा
सकता . इन
तीनो स्थितियों
में भारी
अंतर है
.चर्चित लेख
में इस
अंतर को
मिटा दिया
गया है
. इस लिए
जहां एक
वाजिब बहस
हो सकती
थी , वहाँ
गैर-वाजिब
इल्जामों की
बरसात हो
गयी है
.
अनामिका
की कविता
इस वाजिब
बहस को
आगे बढाने
का ठोस
आधार मुहैया
करती है
.आइये , अब
इस कविता
को पढते
हैं .
ब्रेस्ट
कैंसर
(वबिता
टोपो की
उद्दाम जिजीविषा
को निवेदित)
दुनिया
की सारी
स्मृतियों को
दूध
पिलाया मैंने,
हाँ,
बहा दीं
दूध की
नदियाँ!
तब
जाकर
मेरे
इन उन्नत
पहाड़ों की
गहरी
गुपफाओं में
जाले
लगे!
'कहते
हैं महावैद्य
खा
रहे हैं
मुझको ये
जाले
और
मौत की
चुहिया
मेरे
पहाड़ों में
इस
तरह छिपकर
बैठी है
कि
यह निकलेगी
तभी
जब
पहाड़ खोदेगा
कोई!
निकलेगी
चुहिया तो
देखूँगी मैं
भी
सर्जरी
की प्लेट
में रखे
खुदे-फुदे नन्हे
पहाड़ों से
हँसकर
कहूँगी-हलो,
कहो,
कैसे हो?
कैसी रही?
अंततः
मैंने तुमसे
पा ही
ली छुट्टी!
दस
बरस की
उम्र से
तुम
मेरे पीछे
पड़े थे,
अंग-संग मेरे
लगे ऐसे,
दूभर
हुआ सड़क
पर चलना!
बुल
बुले, अच्छा
हुआ,फूटे!
कर
दिया मैंने
तुम्हें अपने
सिस्टम के
बाहर।
मेरे
ब्लाउज में
छिपे, मेरी
तकलीफों के
हीरे, हलो।
कहो,
कैसे हो?'
जैसे
कि स्मगलर
के जाल
में ही
बुढ़ा गई
लड़की
करती
है कार्यभार
पूरा अंतिम
वाला-
झट
अपने ब्लाउज
से बाहर
किए
और
मेज पर
रख दिए
अपनी
तकलीफ
के हीरे!
अब
मेरी कोई
नहीं लगतीं
ये तकलीफें,
तोड़
लिया है
उनसे अपना
रिश्ता
जैसे
कि निर्मूल
आशंका के
सताए
एक
कोख के
जाए
तोड़
लेते हैं
संबंध
और
दूध का
रिश्ता पानी
हो जाता
है!
जाने
दो, जो
होता है
सो होता
है,
मेरे
किए जो
हो सकता
था-मैंने
किया,
दुनिया
की सारी
स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने!
हाँ,
बहा दीं
दूध की
नदियाँ!
तब
जाकर जाले
लगे मेरे
उन्नत
पहाड़ों की
गहरी
गुफाओं में!
लगे
तो लगे,
उससे क्या!
दूधो
नहाएँ
और
पूतों फलें
मेरी
स्मृतियाँ!
इस
कविता में
वह विद्रोह
साफ़ दिखाई
दे रहा
है , जो
पहली कविता
में उजागर
नहीं हुआ
. इस कविता
में भी
' मैं ' अपने
स्तन गंवा
चुकी है
, लेकिन वह
इस स्थिति
के कारण
कोई विवशता
महसूस नहीं
करती. उलटे
आजादी महसूस
करती है
. भला क्यों
? इसी लिए
कि वह
भी उस
पुरुष -सभ्यता
की भुक्तभोगी
है , जो
स्तन -व्यामोह
से ग्रस्त
है .
वह अपनी देह पर गर्व
करती है
. उस से
प्यार करती
है . लेकिन
इस व्याधिग्रस्त
समाज में
उस की
देह पीड़ा
और अपमान
का केंद्र
भी है
. लेकिन इस
अपमान से
निराश हो
कर वह
अपनी देह
को स्वयं
नष्ट करने
नहीं चल
पड़ती. बीमारी
ने उस
के अंग
छीने हैं
, उस का अस्तित्व
, अस्मिता और आत्मसम्मान नहीं
. क्या उसे
इस अंग
-क्षति का
मातम मनाना
चाहिए या
स्वस्थ होने
के नाते
उल्लसित होना
चाहिए ?
''कैंसर केवल एक बीमारी है
, अभिशाप नहीं
, सजा नहीं
शर्मिंदगी नहीं. '' फिर उस का
मातम क्यों
मनाया जाए
?लेकिन शालिनी
माथुर की
अपेक्षा यही
है . उन्हें
इस कविता
के
उल्लास में 'निर्दयता , क्रूरता
और संवेदनहीनता
' दिखाई पडती
है. उन
के लिए
अंग- क्षति
एक क्रूर
अभिशाप मात्र
है . वे
सीधे सीधे
सूसन सोंतैंग
की दृष्टि
के खिलाफ
खड़ी हैं
.
लेखिका
को मालूम
है कि
स्तन -व्यामोह-
ग्रस्त
समाज में अंग-क्षति का
अनुभव
स्त्री के लिए एक राहत-
जैसा भी
हो सकता
है . लेकिन
वे कविता
की इस
अर्थ
- संभावना को नामंजूर
कर देती
हैं . क्यों
?इस लिए
कि इस
कविता में
'प्रारंभ से
अंत तक
वक्षस्थल का
वर्णन सौंदर्य-बोधक उपमानों''
के साथ
किया गया
है . क्या
सचमुच ? क्या
इस कविता
में उन्नत
पहाड़ों का
उपमान सौंदर्य
बोधक है
? कविता में पहाड़ों
के पहले
दूध की
नदियों के
ज़िक्र है
.दूध की
नदियाँ प्रवाहित
करने वाले
पहाड़ क्या इतने स्थूल अर्थ
में सौंदर्यबोधक
हैं ?क्या
वे
नायिका - भेद और नखशिख-
वर्णन की
याद दिलाते
हैं ? क्या
मौत की
चुहिया , तकलीफ
के हीरे
, बुलबुले वगैरह श्रृंगारिक उपमान हैं
? निश्चय ही
यह आलेख
एक उत्कृष्ट
उदाहरण है कि कविता को
किस तरह
नहीं पढ़ना
चाहिए !
कविता
की 'मैं
' हटा दिए
गए अंगों
से कहती
है -
''हँसकर
कहूँगी-हलो,
कहो,
कैसे हो?
कैसी रही?
अंततः
मैंने तुमसे
पा ही
ली छुट्टी!''
क्या
यहाँ उन
अंगों के
प्रति नफरत
दिखाई दे
रही है
?क्या यहाँ
एक गहरा
सहेलीपन , आत्मीयता , पीड़ा की साझेदारी
, दोस्ताना गिला- शिकवा नहीं दिखाई दे रहा ?
लेखिका
को केवल
पोर्नोग्राफी दिखाई दे रही है
.''पवन करण
का पुरुष
स्त्रीको पोर्नोग्रफर
की दृष्टि
से निरूपित
कर रहा
है और
अनामिका की
स्त्री पोर्नोग्राफर की दृष्टि से
निरूपत हो
रही है
.'' उन्हें इन दो कविताओं
में पुरुष और स्त्री
दृष्टि का
भी कोई
भेद नहीं
दिखाई दे
रहा.
पोर्नोग्राफी
के विषय
में खुद
स्त्रीवाद के दायरे में शोध
,बहस और
विमर्श का
जखीरा इतना
बड़ा है
कि उसे
संक्षेप में
समेटने के
लिए भी
एक विशेषांक
की जरूरत
पड़ेगी. पोर्नोग्राफी
के हज़ारो
रूप हैं
. पोर्नोग्राफी किसी भी तरह
की हो
, वह हर
हाल में
स्त्री के
लिए अपमानजनक
ही होती
है , यह कोई सर्वस्वीकार्य धारणा
नहीं है
. ऐसी धारणा
स्वयं स्त्री
के खिलाफ
जा सकती
है . उदाहरण
के तौर
पर आज
कल ढेर
सारे लोगों
के लिए चर्चित
पोर्न- अभिनेत्री
सनी लियोन
का नाम
एक प्रकार
के कुत्सित
उल्लास का
रूपक बन
चुका है
. कुछ लोग
इस नाम
का उपयोग
एक गाली
की तरह
स्त्री के
आत्म -निर्णय
और उस
की आज़ादी
का मजाक
उड़ाने के
लिए करते
हैं .क्या
ऐसा करना
उचित है
?लियोन खुद
कहती हैं
कि पोर्नोग्राफी
उन केलिए
अपनी सृजनात्मकता
की अभिव्यक्ति
का एक
खास तरीका
है , जिसे
उन्होंने अपनी
इच्छा से
चुना है
, और जो
उन के
लिए गर्व
का विषय
है .
आखिर
पोर्न कलाकार
बनने का
फैसला खास
तौर पर
स्त्री एक
लिए इतना
अपमानजनक क्यों
होना चाहिए
? हमारे देश
में अगर
कोई फौज
या पुलिस
में भर्ती
हो कर
अपने ही
लोगों के
कत्लेआम के
लिए इस्तेमाल
किया जाए
, तो भी
उसे अपमानजनक
दृष्टि से
नहीं देखा
जाता . प्रधानमंत्री
ऐसी नीतियां
लागू करे
जिन से
लोग तिल
तिल कर
मरने के
लिए मजबूर
हों तो
भी उस
की नैतिक छवि पर आंच
नहीं आती
.लेकिन एक
स्त्री अगर
अपनी निर्वस्त्र
तस्वीरें प्रकाशित
कर दे
तो यह
नहीं कि
उसे केवल
अनैतिक करार
दे दिया
जाता है
, बल्कि उसे
मनुष्य की
गरिमा से
ही खारिज
कर दिया
जाता है.
और इस
के लिए
निर्वस्त्र होना भी जरूरी नहीं
है , उस
का जींस
या स्कर्ट
पहनना भी
काफी हो
सकता है
.यौन - नैतिकता का ऐसा कठोर
पुरुषवादी नज़रिया स्त्री का उत्पीडन
उस के
मन , देह
और सामाजिक
अस्मिता के
स्तर
तक करता है .
चर्चित
आलेख में
कहा गया
है कि
वह नग्नता
के खिलाफ
नहीं है
, सिर्फ ' स्त्री शरीर के पोर्नोग्राफिक
निरूपण के
खिलाफ' है
.तब भी
वह उन
तमाम स्त्रियों
के खिलाफ
तो है
ही , जो
अपनी सृजनात्मकता
की अभिव्यक्ति
के लिए
पोर्न -कलाकार
बनती हैं
और जो
पोर्न देख
-पढ़ कर
आनंदित होती
हैं . साथ
ही वह
उन तमाम
कविताओं के
खिलाफ है
, जिन में
किसी भी
रूप में
स्त्री की
विवशता , पीड़ा
और शारीरिक
व्याधि का
उल्लेख हुआ
हो. क्योंकि
ये सारी
चीजें स्वतः
'स्त्री शरीर
' के पोर्नोग्राफिक
निरूपण ' की
श्रेणी में
आ जाती
हैं . क्योंकि
ऐसी कवितायें,
उन के
लेखे , स्त्री
की अपमानजनक
छवि प्रस्तुत
करती हैं
या फिर
शरीर और
मन के
बीच द्वैत
स्थापित करती
हैं . जब
कि संभव है कि ऐसी
कवितायेँ इन
दोनों बातोंके
ठीक विरोध
में खड़ी
हों , जैसा
कि हम
ऊपर देख
चुके हैं.
इस का
मतलब यह
एक ऐसा
स्त्रीवाद है जो स्वयं स्त्री
के खिलाफ
खडा है
.
लेखिका
द्वारा बारम्बार
उद्धृत सूसन
सोंतैंग ने
पोर्नोग्राफी की हमारी समझ को
विकसित
करने की दिशा में महत्वपूर्ण
काम किया
है . पोर्नोग्राफी
की उन
की धारणा
इतनी आसान
नहीं है
, जितना उसे
इस आलेख
में जहां
तहां से
चुने गए
उद्धरणों के
आधार पर
दिखाया गया
है. भले
ही सूसन
का विश्लेषण
पोर्न के
सभी रूपों
को नहीं
समेटता, लेकिन
वह उस
खास तरह
की पोर्नोग्राफी
को समझने
में हमारी
मदद करता
है , जिस
में स्त्री
के अपमान
को पुरुष
के आनंद
का आधार
बनाया जाता
है . वे
बताती हैं
कि पोर्नोग्राफर
एक ऐसा
व्यक्ति है
जो अपने
अंतर्मन में
स्त्री की
स्वतंत्रता और यौनिकता से डरा
हुआ है
. वह स्त्री
को अधिक
से अधिक
उत्पीडित और
नियंत्रित कर के अपने मन
के डर
को झुठलाने
की कोशिश
करता है
. उस का
सारा आनंद इस कल्पना में
है कि
वह स्त्री
को मनचाहे
ढंग से
नियंत्रित कर पा रहा है
. लेकिन आखिरकार
वह भी
जानता है
कि
दरहकीकत वह ऐसा कर नहीं
सकता . उस
की हताशा
के अनुपात
में पोर्नोग्राफी
में हिंसा
बढ़ती जाती
है . लेकिन
वह कितनी
भी बढ़
जाए, पोर्नोग्राफी
के
आनंद का अंत एक ज़बरिया
हासिल किये
गए वीर्यपात
(चरमसुख नहीं
) के साथ
होता है
, जो उसके
बुनियादी डर
और हताशा
का अंत नहीं करता , बल्कि
उसे और
बढ़ा देता
है .
इतना ही नहीं
, पोर्नोग्राफी की बुनियादी विडम्बना
यह है
वह स्त्री
को एक
वस्तु के
रूप में मेंबद्लना
तो चाहता
है , लेकिन
अगर सचमुच
ऐसा हो
जाए , स्त्री
पूरी तरह
वास्तुकृत हो जाए , तो
भी पोर्नोग्राफर
का आनंद समाप्त
हो जाता
है. उस
का आनंद
आखिरकार वस्तु
बनने से
स्त्री के
इनकार में
है . जितना
इनकार होगा
, उतनी ही
हिंसा की
गुंजाइश होगी
, उतना ही
मज़ा बढ़
जाएगा. उस
का आनंद
इस तथ्य
पर आधारित
है कि
स्त्री कभी
भी पूरी
तरह वस्तुकृत
नहीं की
जा सकती
. इस लिए
आनंद में
ही हताशा
के बीज
छुपे हुए
हैं. डर
- हिंसा -आनंद
- हताशा -डर
- यह एक
दुश्चक्र है
, जो जारी
रहता है
. पोर्नोग्राफी इसी लिए एडिक्टिव होती
है .
लेखिका
सूसन को
विस्तार से उद्धृत
करने एक
बावजूद इस
प्रक्रिया-विश्लेषण को अपने लेख
में शामिल
नहीं करती
. क्या इस
लिए , कि
ऐसा करने
इन
कविताओं को पोर्नोग्राफिक साबित करने
में कोई
मदद नहीं
मिलती ?
आजकल
अस्मिता - संबंधी संवेदनशीलता का एक
ऐसा
रूप देखने को मिलता है
, जिस में
विवेक और
विचार के
लिए जरूर
धीरज
का पूरी तरह से बहिष्कार
कर दिया
गया है
.ऐसी मूढ़-अस्मितावादी प्रवृत्ति
कलात्मक
और साहित्यिक कृतियों का कुपाठ
करने में
माहिर है.
हालिया
आम्बेडकर- नेहरू कार्टून-
विवाद में
भी यह
प्रवृत्ति दिखाई पडी. कार्टून में
कोड़े का
दिखना ही
कोड़े के
जरिये किये
गए अपमान
की सुदूर
स्मृतियों को जगा देने के
लिए काफी
था. अगर
ऐसी सम्वेदनशीलता
होगी , तो
यह सोचने
के लिए
समय और
धीरज कहाँ
होगा कि
कोड़ा उत्पीडन
के यंत्र
के रूप
में आया
है या
उत्पीडन मिटाने
की कोशिशों
को तेज
करने के
लिए . ऐसे
में कतई
मुमकिन है
कि जो
कोड़ा
हमारे हित में
उठा हो उस से ही
दुश्मनी ठान
ली जाए या उसे दुश्मन
को थमा
दिया जाये
आशुतोष कुमार
अलीगढ और दिल्ली से बराबर का नाता है.जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की पौध है.दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसरी.जसम के सक्रीय कार्यकर्ता.प्रवृति से आलोचक.कभी कभार ब्लोगिंग.हिन्दी साहित्य जगत में ठीक-ठाक नाम.संपर्क सूत्र-ई-मेल, ब्लॉग और फेसबुक
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