राजस्थान-यात्रा
जहां तक नज़र जाये वहां तक फैले धोरे-टीलों में रेत का अनंत विस्तार समेटे विषम धरती पर इस स्थान का नाम है-सम . वास्तव में
यहाँ आकर ही आप रेगिस्तान के निर्लिप्त सौन्दर्य से रूबरू होते है. जब रेत
के विस्तार में रेत के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता तब जाकर ही रेगिस्तान
का अर्थ समझ में आता है और तभी समझ में आतीं हैं वो विषम परिस्थितियां
जिनका सामना यहाँ का जीवन करता है. लेकिन कैसी भी विपरीत परिस्थितियां हों
मनुष्य कोई न कोई मार्ग खोज ही लेता है.

कभी इस रेगिस्तान से न जाने कितने
कारवां गुज़रते थे और ये एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग था. अब वो कारवां नहीं
हैं पर उन कारवां को ले जाने वाले ऊंट आज भी पर्यटकों को उस यात्रा का
अहसास कराने के लिए मौजूद हैं. सम में पहुँचते ही कई बच्चे और बड़े आपको
घेर लेते हैं और जब तक आप ऊंट की सवारी के लिए तैयार न हो जाये वो पीछा
नहीं छोड़ते . किसी टीले के बिल्कुल किनारे पर चलता ऊंट और टीले की सरकती
रेत किसी पहली बार के सवार को जिस रोमांच का एहसास कराती है उसे महसूस करने
के लिए तो आपको सम ही जाना पड़ेगा. पर आप सम जाएँ तो शाम को डूबता सूरज
जरूर देखिएगा क्योंकि सूरज वहां आसमान में नहीं डूबता सूरज वहां रेत में
डूबता है

मुझसे कोई पूछे कि राजस्थान ने दुनियां को सबसे बड़ा क्या उपहार दिया है तो
मैं तुरंत कहूँगा - रंग. कोई धूसर एक रंगी धरती दुनियां को रंगों का उपहार
दे इससे बड़ी क्या उपलब्धि हो सकती है. राजस्थान में यह संभव हुआ है वहां
के लोगों की अकल्पनीय कल्पनाशीलता के कारण. वस्त्रों से लेकर घरों की
दीवारों तक रंगों का अनूठा संसार ऐसा है जो किसी भी दृष्टि को बांधने की
अद्भुत क्षमता रखता है और यही रंग सम के रेतीले टीलों-धोरों पर सुरों में
ढ़लकर जब किसी कालबेलिया नर्तकी के पांवों की कलात्मक ऊर्जा के साथ
प्रवाहित होते हैं तो मानो सम की रेत भी अपनी चंचलता भूलकर ठहर-सी जाती है
उनकी तरह जो वहां बस रेत देखने आते हैं. मैं भी तो रेत ही देखने गया था पर
खो गया उस नन्ही सी कालबेलिया नर्तकी के नृत्य में जो उन धोरे-टीलों पर
ऐसे नाच रही थी मानो उसके पैरों के नीचे की रेत सरकती ही न हो. शास्त्रीय
नृत्यांगनाओं और अन्य नृत्यांगनाओं से न जाने कितनी बार शिकायतें सुन चुका
हूँ कि मंच पर धूल के कारण वो ठीक से नाच नहीं पायीं जबकि जिसे वो कारण
बताती हैं वो धूल तो फर्श साफ़ करने के अगले पल ही आ धमकती है .. काश मैं उन
सबको सम ले जाकर सरकती रेत पर उस नन्ही सी बच्ची के पारंगत पाँव दिखा पाता
... खैर छोडिये मुझे तो उस वक़्त एक दुःख ने भी आ घेरा .वो नन्ही बच्ची
स्कूल नहीं जाती . उसका बचपन सम की रेत पर लोगों का मनोरंजन करते-करते बीत
जायेगा बड़ी होकर शायद वो बहुत कुशल नृत्यांगना बने पर न जाने क्यों मुझे
लगता है कि बड़ी होने पर जब वो अपना बचपन याद करेगी तो किसी न किसी दिन उसे
एहसास जरूर होगा कि नाचते-नाचते वक़्त की न जाने कितनी रेत उसके पारंगत
पांवों के नीचे से फिसल गयी ...............................

कालबेलिया
परिवार से थोड़ी ही दूरी पर थे- धूरा राम. राजस्थान के सुप्रसिद्ध लोकवाद्य
अलगोजे से मिलता-जुलता एक दुर्लभ वाद्य सतारा बजाते हुए . अलगोजा बांस से
बनता है और सतारा केर की लकड़ी से. दो बांसुरियों की जोड़ी को एक साथ बजाना
चंद लोगों के लिए ही संभव होता है लेकिन जो इसे बजाते हैं उन्हें देखना
सुनना एक ऐसा अनुभव बन जाता है जिसे भूलना संभव नहीं होता. मैं बार-बार सोच
रहा था कि शहरों में हम लोग कितनी सुविधाओं के साथ जीवन जीते हैं और यहाँ
इन बेहतरीन कलाकारों के पास तो शायद मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं होंगी . मेरे
साथ राजस्थानी लोक गायकी के सुप्रसिद्ध कलाकार रोज़े खां भी थे उन्होंने उसी
वक़्त धूरा राम से कहा कि तुम्हारा मोबाइल नंबर दे दो [ मोबाइल तो उनके
पास भी है न जिनके पास मूलभूत सुविधाएँ सचमुच नहीं हैं ] तो धूरा राम ने
कारण पूछा .
रोज़े खां ने कहा कि अगली बार वो किसी बड़ी जगह कार्यक्रम देने
जायेंगे तो उन्हें भी साथ ले जायेंगे . धूरा राम ने नंबर देने से इंकार कर
दिया . कारण बताया .....' बड़े शहर मुझे अच्छे नहीं लगते वहां परेशानियाँ
बहुत ज्यादा हैं और सुकून तो बिल्कुल है ही नहीं , मैं तो इन धोरे-टीलों पर
ही खुश हूँ ' मैं चुपचाप खड़ा सुन रहा था . कुछ देर पहले जो दया-भाव वहां
के लोगों के प्रति था वो अब खुद के लिए उभरने लगा और उनके लिए भी उभरने
लगा जो सुविधाओं के उन सरकते रेतीले टीलों पर रहते हैं जिन्हें हम शहर कहते
हैं.
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