भीयांढ़ और कमायचा
मेघों से घिरा आसमान ,जहां तक नजर जाये वहां तक फैली मरुभूमि और नीचे ज़मीन पर बादलों के स्वागत में नाचते मोर मैं छत से नीचे ही नहीं जाना चाहता था पर आगे जाना था इसलिए मन मार कर नीचे आया। रोज़े खां के साथ बातों का सिलसिला चल पड़ा और उनके परिवार ने लोक-संगीत का जो रस बरसाया उसे क्या मैं कभी भूल पाऊंगा। गीतों को खड़ताल गति देते हैं तो कमायचा उसमे मरुभूमि का सारा का सारा सौन्दर्य भर देता है कमायचा मांगनियारों का अपना वाद्य है लेकिन इसका पहला सुर ही सुनने वाले को अहसास करा देता है की अब जो रस बरसेगा वो उस सोनारी धरती का होगा जिसे माडधरा कहते हैं।
एक विकल ध्वनि, जो गूंजती है तो प्यास जगाती भी है और प्यास बुझाती भी है। लेकिन ये कमायचा भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हैं। धीरे-धीरे ये वाद्य लुप्त हो रहा है एक तो इसे बजाने में नयी पीढ़ी की रूचि कम है उस पर अब इसे बनाने वाले भी कम होते जा रहे हैं जो बचे हुए लोग हैं वो कभी कभार बिकने के कारण इसे बनाना छोड़ चुके है इसीलिए अब ये बाज़ार में इतना महंगा बिकता है कि कोई गरीब लोक कलाकार इसे खरीदने का सपना ही देख सकता है। आर्थिक उदारवाद ने हमें जो कुछ दिया उसकी भरपूर कीमत भी वसूली है बाज़ार अब केवल उनके लिए आनंद का अवसर उपलब्ध कराता है जिनकी जेबें ठसाठस भरी हुई हैं बाकी लोगों के लिए तो ये तमाशा बस देखने की चीज़ है। राजस्थानी के मशहूर कवि आइदान सिंह भाटी लिखते हैं।
सुरीली सारंगिया
कोडीला कमायचा
बिकण लागता बीच बाजारां
बाज़ार खरीद लीनी वै सारंगियां
अर बण गया पारखू
मरम समझणियां
अजैई मरै भूखां .
ये सुरीली सारंगियां और कोडीले कमायचे बीच बाज़ार में बिक रहे हैं और बाज़ार
ही उन्हें खरीदकर खुद को पारखी घोषित कर चुका है । असली पारखी जो इनका
मरम समझते हैं वो आजकल भूखे मर रहे हैं। ................... मैं ख़त्म होते
कमायचे के सुरों में डूबा हुआ सोच रहा था कि बाज़ार के सब कुछ छीनते बेरहम
हाथ काश बख्श देते सुरीली सारंगियों को .... कोडीले कमायचों को
..............
-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें