इस
पुस्तक में आधुनिक हिंदी साहित्य के अनेक सिद्धांतों और विचारधाराओं पर
प्रकाश डाला गया है.साहित्य में विचारधाराओं,
मतों और चिन्तन की कोई सीमा नहीं होती। बदलते हुए समय और नवीन
परिस्थितियाँ जहाँ नयी विचारधराओं को जन्म देती हैं वहीं परम्परागत
विचारधाराएँ समय का अतिक्रमण करते हुए तत्कालीन जीवन-धरा को भी प्रभावित
करती हैं। नयी संकल्पनाओं ने इन विचारधराओं को नए परिप्रेक्ष्य में समझने
की दृष्टि प्रदान की है।
वास्तव में जब भी रूढ़िग्रस्त जीवन पद्धति
टूटती है तो समाज में बदलाव की स्थिति स्वाभाविक रूप से होती है। ऐसी
स्थिति में साहित्यकार और आलोचक भी एक सामाजिक के नाते उससे प्रभावित होता
है। वह जीवन को नए नज़रिए से देखने की कोशिश करता है। वह समाज के परम्परागत
ढाँचे को तोड़कर नए सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण करता है। परिवर्तन की इस
प्रक्रिया में जहाँ रचना नए जीवन-मूल्यों को रचती है वहीं आलोचना उन
मूल्यों को संरक्षित करने का कार्य करती है।
उन्नीसवीं और बीसवीं
शताब्दी में साहित्य को विभिन्न पश्चिमी और भारतीय विचारकों ने न केवल
अपने विचारों से प्रभावित किया वरन् कई परम्परागत अवधारणाओं को ध्वस्त करते
हुए नए शास्त्रीय मानदण्डों की स्थापना की। ऐसे में विश्व साहित्य को अनेक
नए दर्शनों का साक्षात्कार हुआ। लेकिन भारतीय साहित्यशास्त्र के
परम्परागत् दर्शनों और सिद्धान्तों ने इस नए युग में भी अपनी प्रासंगिकता
बनाए रखी। हिन्दी के साहित्यकारों ने भारतीय साहित्यशास्त्र की अवधरणाओं
और विचारणाओं को पुनर्मूल्यांकित करते हुए उन्हें आधुनिक युग में
प्रतिष्ठापित किया। विशेष रूप से रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी,
मैनेजर पाण्डेय, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि के चिन्तन-सूत्र अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण हैं।
ध्यातव्य है कि पश्चिम से आने वाले अवधरणामूलक
शब्दों का मुख्य स्रोत केवल साहित्य-संसार नहीं हैं। वे शब्द मनोविज्ञान,
समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र और विज्ञान आदि से भी गृहीत हैं। इसलिए उन
शब्दों की व्याख्या, विश्लेषण और इनकी साहित्यिक सम्बंधात्कमता के लिए
उपर्युक्त विषयों की सहायता भी आवश्यक है।
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