थेवा शिल्प:तयशुदा परिभाषाएं तोड़ता हुआ आलेख/नटवर त्रिपाठी



(समस्त चित्र स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी के द्वारा ही लिए गए हैं-सम्पादक )
थेवा शिल्प:काँच और कंचन का करिश्मा

दक्षिण राजस्थान के प्रतापगढ़ कस्बें में है एक गली सालमपुरा, जिसमें एक ही खानदान के थेवा शिल्प कला के 9 कारीगर राष्ट्रीय स्तर पर तथा एक दर्जन शिल्पी राज्य स्तर पर गत साढ़े तीन दशक में सम्मानित हुए हैं। इस कुटुम्ब के अतिरिक्त तीन और शिल्पकार जो रामपुरा मध्य प्रदेश के हैं उन्हें भी राष्ट्रीय पुरस्कार से इस कला के लिए नवाज़ा गया हैं। सामन्ती राज्याश्रय में फली-फूली इस कारीगरी के अनेक नमूने कई रजवाड़ों ब्रिटिश शासकों तथा समन्दर पार लन्दन और शिकागो तक आजादी से बहुत पहले ही पहुँचे थे। विश्व के अनेक विख्यात संग्रहालयों में इस शिल्प के नमूने आज भी मौजूद हैं। इस शिल्प कला पर नवम्बर 2002 में पांच रुपये का डाक टिकिट भी जारी हुआ है और लिमका बुक आफ रिकार्ड्स 2011 के लिए थेवा शिल्प नामांकित हुआ है। 

अणु-अणु में नक्काशी का नाम है थेवा शिल्प

रंगीन काँच पर सोने की अत्यन्त बारीक कमनीय चित्रकारी का नाम है ‘थेवा’ शिल्प कला। सोने की बारीक चद्दर पर सूक्ष्म चित्रांकन अणु-अणु में एक नई नक्काशी के साथ किया जाता है इन पारंगत शिल्पियों का ही तिलस्म है। थेवा शिल्प नीले, लाल व हरे काँच पर सुनहरे रुपांकन की भव्य तथा मनभावन  शिल्प कारीगरी कहलाती है।  काँच पर कंचन का करिश्मा कहे जाने वाली यह शिल्प काँच पर सुनहरी पेंटिंग है, जो चित्रकारी की नींव पर जन्म लेती है। इस शिल्प की रचना जटिल, कठिन तथा श्रम साध्य तो है ही, परन्तु सोने पर चित्रांकित शिल्प को काँच में समाहित कर देने का कमाल इन मुट्ठी भर कारीगरों के ही बस की बात है। शिल्प चित्रण को 23 केरेट सोने के पत्तर पर ‘टांकल’ नामक एक विशेष कलम से उकेरा जाता है और  कुशलतापूर्वक बहुरंगी काच पर मढ़़ दिया जाता है। जब दोनों पदार्थ सोना और काँच परस्पर जुड़ कर एकमेक एक जीव हो जाते हैं तो सोने में काँच और काँच में सोना दिखलाई पड़ता है। इसी को थेवा कला कहते हैं। काँच की झगमग को और अधिक प्रभावशाली तथा उम्दा बनाये रखने के लिए इसे एक खास प्रक्रिया से गुजरना पड़ता जिससे कि काँच में समाहित सोने का कार्य उभार देने लगे और देखने वाले के मन को छू ले। इस प्रकार शिल्प का प्रत्येक नमूना पारदर्शी काँच का हो जाता है और उस पर माणिक, पन्ना तथा नीलम जैसी प्रभा दिखलाई पड़ती है। इस कला को उकेरने में बेल्जियम से विशेष प्रकार के काँच इस्तेमाल होते थे, पर ऐसे काँचों की अनुपलब्धता से अब अलग उम्दा काँच का इस्तेमाल होता हैं।

काँच और कंचन की झगमग

इस शिल्प में लाल पीले काँच पर सोने की सुनहरी चमक देखते ही बनती है। फूल-पत्ती, राधा-कृष्ण तथा इतिहास और प्रकृति के जडे़ अनेक प्रतीक जब काँच और कंचन जड़ाऊ नक्काशी के बीच दिखाई देते हैं तो आंखें तृप्त हो जाती हैं। पारंपरिक चित्रों में प्राकृतिक सौन्दर्य, हाथी, घोड़े, शेर, शिकार, राधा-कृष्ण तथा इतिहास और प्रकृति से जुड़े सैंकड़ों विषय, युद्ध, सवारी, पौराणिक गाथाएं, लीलाएं, प्रेम-प्रसंग तथा ढ़ोलामारु को चित्रांकित किया जाता है, तो दर्शक यही सोच कर दंग रह जाते हैं कि आखिर काँच के भीतर सोने की यह कारीगरी की कैसे जाती है।  इस शिल्प के अन्तर्गत छोटी सी अंगूठी से लेकर लीलाओं की बड़ी प्लेटें, शृंगार बॉक्स, दर्पण, कंघा केस, सिन्दूर बाक्स, छोटी-बड़ी डिब्बियां, गुलदस्ते, फोटो फ्रेम, एश-ट्रे, इत्रदान, सिगरेटकेस, टाई पिन कफलिंक, बटन, पेडेंट, पायल, पाजेब, बिछिया, गले का हार, मंगलसूत्र, इत्रदान, बटन, घड़ी की चैन,, तश्तरी, छोटी-बड़ी डिब्बियां, पेडेंट आदि जब सोने और काँच की जड़ाऊ नक्काशी के बीच दिखाई देते हैं, तो एकबारगी आंखे चौंधिया जाती है। थेवा की कृतियाँ देखने के बाद महसूस होता है कि यह कार्य सुई से पहाड़ खोदने या सोने से खूशबू निकालने जैसी उपमाओं से युक्त है। थेवा शिल्प को हाथ में लेते ही सोने की मोहक दीप्ति सकून तथा सुवास देती लगती है। बड़ी चीजें़ अग्रिम आर्डर से बनाई जाती है शेष सामान्य जेवर आदि तो रोजमर्रा बनते चलते हैं। डिजाइन चीजों के आधार पर मूल्य तय किए जाते हैं।

गोपनीय प्रक्रिया  
काँच पर उकेरी गई डिजाइन को रंगीन काँच में समाहित रखने की क्रिया को अपने बेटों के अलावा किसी और 
को नहीं बताया जाता है। इसकी गोपनीयता को बनाये रखने के लिए किसी और को बताना या सिखाना तो दूर की बात है, घर की लड़कियों से इसकी यह प्रक्रिया गुप्त रखी जाती है, ताकि कहीं शादी होने पर वे इस राज को अपने ससुराल में न बता देें। किन्तु इस स्थिति में अब किंचित बदलाव आता सा नज़र आ रहा है। बहुएं और बेटियां इस काम में हाथ बटाँने लगी है और कई परिवारों में अब इस सोच में तेजी से बदलाव सा आता नज़र आ रहा है। 

इतिहास के पन्नो में
राज्याश्रय में पलने वाली विभिन्न हस्तकलाओं मे से प्रतापगढ़ के इस शिल्प में सारे विश्व में अपना डंका बजाया है।  यह अपने आप में कितना अनोखा है कि इंसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में उलिखित थेवा कला को भारत तथा अंतर्राष्ट्रीय जगत में गौरव प्राप्त हुआ है। इतिहासवेताओं में कर्नल टाड और गौरीशंकर ओझा ने भी इसका उल्लेख किया है। राजपूताना गजेटियर द्वितीय 1908 में में उल्लेख है कि प्रतापगढ़ में सोने के काम जिसे चमकीले हरे रंग के रत्न मरकत, पन्ना काँच पर किया जाता है व पौराणिक कथाओं तथा शिकार के दृश्यों को उकेरने के लिए प्रसिद्ध हैं।  रियासत कालीन एक इतिहासकार अपा मनोहर ठाकरे ने अपनी पुस्तक में उल्लेख  है कि ‘‘प्रतापगढ़ की विश्वविख्यात ललित कला ‘थेवा’ का मूल उद्गम स्थल देवलिया प्रतापगढ़ है। यहां के सुनार लोग काँच पर सोने का ‘थेवा’ ऐसा बनाते हैं कि सारे ‘हिंद’ में कहीं भी ऐसा नहीं होता’’। इसी प्रकार द मेवाड़ रेजीडेन्सी द्वितीय खण्ड में मेंजर के.डी रस्किन, उन्नीसवीं सदी में विशप हेबर ने इसकी कला की चर्चा की है। टी एन मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘‘आर्ट मेन्युफ्रेक्चरर्स ऑफ इण्डिया में ‘थेवा कला’ को ऐसी अनुकृति बताया जिसकी चमक बहुत प्रभावी लगती है। प्रतापगढ़ के नरेश सावंतसिंह, उदयसिंह, रघुनाथ सिंह तथा रामसिंह के योगदान का उल्लेख इतिहास के पन्नों में मिलता है।

नवाज़े गए राष्ट्रीय सम्मान से 

प्रतापगढ़ में इसके जनक नाथूलाल सोनी से चलता हुआ यह वंश-वृक्ष फतेहचंद तथा रामलाल को जन्म देता, जब 20 वीं सदी में मथुरालाल राजसोनी तक आया तो इससे चार शाखाएं निकली। वेणीराम, शंकरलाल, रामविलास और रामरतन। ये चारों अब स्वर्गिक हैं, जिनमें से रामरतन को छोड़ तीनों को राष्ट्रीय सम्मान मिला है। इसके अतिरिक्त प्रतापगढ़ के राजसोनी परिवार से जगदीश राज, बसन्त लाल, रामनिवास, गिरिश कुमार तथा महेश राजसोनी और रामपुरा मध्यप्रदेश़ से स्व. रामचन्द्र, गणपत लाल तथा महेश सोनी को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। जगदीश राज सोनी को राष्ट्रीय सम्मान के साथ-साथ शिल्प गुरु से भी सम्मानित किया गया। 

अब एकाधिकार छटने लगा

काँच पर सोने की नक्काशी, स्वर्ण जटित यह कला का कार्य प्रतापगढ़़़ तथा रामपुरा (म.प्र.) में होता है। अलग-अलग रंगों के काँच पर सोने की चित्रकारी वाली मौलिक आकर्षण की ‘थेवा कला’ पर अकेले एक ही खानदान का आधिपत्य अब कमजोर हो रहा है। इस कला पर प्रतापगढ़़़ (कांठल) के राजसोनी वंष के कुल जमा 10-12 परिवारों का एकाधिकार है, परन्तु रामपुरा के एक सोनी परिवार ने भी इसमें महारत हासिल कर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया है। 

मौजूदा एक खानदान वाली इस प्रशाखा से अलग प्रतापगढ़ के कुछ और सोनी कारीगर इस दौड़ में हैं, और बखूबी थेवा शिल्प बना रहे हैं, तथा जिला व राज्य स्तर पर उनकी पहचान भी होती जा रही है। प्रतापगढ़़ के एक परिवार की सोनी महिला श्रीमती उषा तो अपने पति के साथ मन्दसौर में थेवा गहने और नमूने बना रही हैं, और राज्य स्तर पर इस कला के लिए पुरस्कार ले चुकी हैं। प्रतापगढ़ में ही राजसोनी खानदान की एक दर्जन से अधिक बहू-बेटियां अपने परिवार वालों के साथ इस शिल्प में हाथ बंटा रही हैं। उच्च शिक्षा तथा जागरुकता के मद्देनजर अब 21 वीं सदी में परिदृश्य और महिलाओं में सोच बदलने लगा है और अब अधिकांश घरों में पढ़ी-लिखी बहुऐं हैं जो अपने पतियों के साथ इस हुनर में अच्छी खासी भूमिका का निर्वाह करती हैं। 

एक कुटुम्ब, एक कस्बा और एक गली-नौ राष्ट्रीय पुरस्कार

एक कौटुम्बिक हस्त शिल्पियों के प्रयास से यह कला विश्व प्रसिद्ध हुई। ऐसे उदाहरण यदि अन्य शिल्प को लेकर देखें तो पता चलता है कि उन शिल्पों पर परिवार का नहीं कौम का, या एक  समूह का और एक क्षेत्र विशेष का अधिकार होता है। परन्तु थेवा शिल्प की बात ही निराली है। एक कुटुम्ब, एक कस्बा और एक गली में होनहार लोगों का होना अचरच भरा है। यह कार्य आज भी पहले से अधिक सिद्दत के साथ चल रहा है। पहले ये शिल्पी कम पढ़े-लिखे होते थे, परन्तु अब तो इस कारोबार में स्नातक, अधिस्नातक, इंजीनियर और बिजनेस मेनेजमेंट के डिग्रीधारी युवा भी आ रहे हैं। अब इस वंश वृक्ष से 20-22 लोग इस शिल्प में संलग्न हैं। 

थेवा अब फैशन की इबारत में

अब थेवा शिल्प ने न केवल बाज़ार में अपनी जगह बना ली है परन्तु अब यह फैशन की इबारत में बदलने लगा है। यहां के शिल्पी इस कला के पारम्परिक स्वरूप को बनाये हुए समकालिक स्वरूप देने में सफल हो रहे हैं फलतः फेशन बाज़ार में इसकी मांग बढी है। इस शिल्प में बीते युग की विरासत तो मौजूद है, परन्तु शिल्पियों की चेष्टा और क्रियाशीलता के फलस्वरूप महिलाओं की मांग को ये पूरी कर रहे हैं और महिलाएँ अपने को अन्य से भिन्न और आकर्षक दिखने की होड़ से थेवा की और रंग-मेल (मेचिंग) की चाहत की वजह से इस शिल्प की मांग बढी है।  यह उनके बजट में आने वाले ऐसे सोने के आभूषणों को बैंक लॉकर में भी नहीं रखना चाहती है, बल्कि अपने वस्त्रों के रंगों के साथ आभूषणों के मेल को भी देखना चाहती है। दो दशक पूर्व थेवा के आभूषणों की मांग नहीं थी, परन्तु अब देश में ही नहीं विदेश से भी मांग आने लगी है तथा अमरीका, ब्रिटेन और संयुक्त अरब गणराज्य देशों के आयात के आदेश बड़े ज्वैलरों को मिलने लगे हैं। 

रचना प्रक्रिया

थेवा कला के लिए शिल्पी 24 केरेट सोने को 23 केरेट का बनाते हैं, तथा सोने को आग में तपा कर शुद्ध कर 40 गेज का सोने का पतरा बनाया जाता है।  सोने के पत्तर पर अपेक्षित आकार तक निरन्तर कूटने की  प्रक्रिया को ‘थेरना’ और ‘थरना’ कहा जाता हैं। थेवा के चारों ओर एक चांदी के तार की एक बाउण्ड्री बनाई जाती है जिसे ‘वादा’ कहते हैं।  इसके उपरान्त राल जो गौंद की तरह वृक्षों से मिलता है उसे कुछ रसायनों और तेल के मेल से सख्त लेई जैसा पेस्ट बनाया जाता है और ताप क्रिया से इसे पिघला कर एक लकड़ी के आधार पर फैला दिया जाता है। फिर सोने के पतरे को इस राल पेस्ट पर चिपका दिया जिस पर टांकल जो विशेष प्रकार की कलम होती है, चित्रकारी की जाती है। सोने के पतरे पर चित्राकृतियां बनाने के कार्य को कण्डारना कहा जाता है।  इसकेे उपरान्त  जाली तैयार की जाती है जिसे चीरना बोलते हैं।  एसिड में डुबो कर सोने की परत का इंप्रेशन काँच पर लिया जाता है। तथा विशेष गुप्त विधि के सहारे काँच को सोने और चांदी के फ्रेम के अन्दर फिट कर दिया जाता है।  शिल्प को चांदी के बनेे फ्रेम (घर) में लगाया जाता है।  समुचित शिल्प की साफ-सफाई और पूर्णता हो जाने चांदी के आधार (घर) पर सोने की पालिश की जाती है तथा तैयार शिल्प पर मोती फांदने, गूंथने  तथा सजावट का काम किया जाता है।  

विशिष्ट अतिथियों को राजसोनी परिवार की भेंट

थेवा कृतियां ब्रिटिश शासन काल में भी उपहार में दी जाती रही और अब भी केन्द्र और राज्य सरकारें विशिष्ट लोगों के उपहार के लिए थेवा कृतियां दी जाती हैं।  प्रतापगढ़ के सांवतसिंह, दलपतसिंह, दीपसिंह, उदयसिंह, मानसिंह, रामसिंह प्रमुख राजा रहे थे और इन्होंने अपने ब्रिटिश शाही मेहमानों को प्रतापगढ़ राज्य की ओर से थेवा शिल्प की कृतियाँ भेंट की थी। महाराजा दौलतसिंह के काल में सन् 1850 के आसपास क्विन विक्टोरिया को थेवा कृति की एक प्लेट भेंट की गई थी तो वर्ष 1974 में ईरान के शाह व उनकी पत्नी के राजस्थान आगमन पर यहां के तत्कालीन राज्यपाल रघुकुत तिलक ने थेवा कला से सुसज्जित एक इत्र मंजूषा की कलाकृति दी थी। 1981 में प्रिंस चार्ल्स के विवाह भेंट देने के लिए राजसोनी परिवार से सेंट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज ने एक बाक्स बनवाया था।  

1983 में प्रगति मैदान में  एक कलात्मक शृंगारदान ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ को राजस्थान मण्डप के अवलोकन के दौरान भेंट किया गया। 1983 में राष्ट्रमण्डल की महिला नेत्री कर्णफूल भेंट किए। थेवा शिल्प के पुराने नमूने जापान, ईरान, इटली, अमेरिका, कनाडा, रूस, बेल्जियम, स्वीट्जरलैण्ड तथा लन्दन के संग्रहालयों में शोभा बढ़ा रहे हैं। जयपुर के अलबर्ट हाल रामनिवास बाग संग्रहालय में थेवा शिल्प के लगभग 200 वर्ष प्राचीन नमूने रखे हैं। सन् 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को रामनिवास राजसोनी ने थेवा कृति ‘पेडेंट’ भेंट किया था। इनके पुत्र राजेन्द्रकृमार के साथ तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीवगांधी को बांसवाड़ा तथा चित्तौड़ में थेवा कृतियां भेंट की। अमरीकी राष्ट्रपति की पत्नी को थेवा कृति से रूबरू कराया।

(समस्त चित्र स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी के द्वारा लिए गए हैं हम उनके आभारी हैं कि उन्होंने 'अपनी माटी' को यह चित्र भेंट किए.-सम्पादक )
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नटवर त्रिपाठी
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़ 
म़ो: 09460364940
ई-मेल:-natwar.tripathi@gmail.com
नटवर त्रिपाठी

(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं। पूरा परिचय 

3 टिप्पणियाँ

  1. थेवा जैसी हस्त शिल्प कलाओं के संरक्षण और प्रचार की दिशा में इस प्रकार के ज्ञानवर्धक लेख स्वागत के योग्य हैं. लेखक को बधाई.

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  2. publication on such social cites will promote those who wants to express what they see and feel in different life span.

    thanks

    natwar tripathi

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  3. Bhut hi badhiya ..umda sbdo ka prayog...or chews kala k bare me bhut hi achi jankari mili apk dwara 🙏

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