( दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा ये आलेख यहाँ पाठक हित में साभार प्रकाशित कर रहे हैं।-सम्पादक )
दिल्ली
का विश्व
पुस्तक मेला
फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला और लंदन
बुक फेयर
के बाद
सबसे ज्यादा
प्रतिष्ठित माना जाने लगा है
। इस
प्रतिष्ठा की वजह भारत की
समृद्ध लेखन
परंपरा तो
है ही
लेकिन एक
और अहम
वजह भारत
में पुस्तकों
का बढ़ता
बाजार है
। हाल
के दिनों
में ये
साबित हो
गया है
कि भारत
विश्व में
अंग्रेजी किताबों
का तीसरा
सबसे बड़ा
बाजार है
। लिहाजा
पूरी दुनिया
के अंग्रेजी
प्रकाशकों की नजर भारत के
बाजार पर
कब्जा करने
या फिर
वहां से
मुनाफा कमाने
पर लगी
है ।
यह परिदृश्य
सिर्फ अंग्रेजी
को लेकर
ही नहीं
है ।
हिंदी और
अन्य भारतीय
भाषाओं का
भी बाजार
भी लगातार
बढ़ रहा
है ।
यह अकारण
नहीं है
कि फ्रैंकफर्ट
बुक फेयर
में दो
बार भारत
को अतिथि
देश का
दर्जा मिला
था ।
एक अनुमान
के मुताबिक
इस वक्त
भारत में
करीब बारह
हजार प्रकाशक
हैं और
हर साल
सभी भाषाओं
को मिलाकर
लगभग एक
लाख नई
किताबें छप
रही हैं
। पुस्तक
मेलों की
अहमियत इस
बात में
हैं कि
वो पुस्तकों
की बिक्री
के अलावा
सभी भाषाओं
के प्रकाशकों
को एक
जगह इकट्ठा
होकर कारोबार
के आदान
प्रदान का
एक मंच
भी मुहैया
करवाता है
। जैसे
फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में लेखकों
के अलावा
उनके एजेंट
और प्रकाशकों
के बीच
कारोबारी समझौता
को ज्यादा
अहमियत दी
जाती है
। वहां
अलग अलग
भाषाओं के
प्रकाशकों के बीच अपनी भाषा
में किताबों
को छापने
को लेकर
कारोबारी शर्तें
तय होती
हैं ।
कॉपीराइट और
लेखकों से
जुड़े अन्य
मसलों पर
विमर्श होता
है ।
इसका फायदा
यह होता
है कि
हर भाषा
के पाठकों
को दूसरी
भाषा की
कृतियों को
पढ़ने और
उससे परिचित
होने का
मौका मिलता
है ।
नतीजा यह
होता है
कि पुस्तक
संस्कृति का
निर्माण होता
है और
उसे मजबूती
मिलती है
।
लेकिन भारत में
पुस्तक मेलों
का उद्देश्य
और स्वरूप
कुछ और
ही होता
चला गया
है ।
हमारे यहां
पुस्तक मेले
अपने उद्देश्यों
से भटककर
उत्सवों में
तब्दील हो
गए है
। इस
साल दिल्ली
में जो
विश्व पुस्तक
मेला आयोजित
हुआ उसकी
थीम भारतीय
सिनेमा के
सौ वर्ष
थे ।
लेकिन सिनेमा
पर चंद
सेमिनारों के आयोजन के अलावा
उस आयोजन
में कुछ
खास देखने
को नहीं
मिला ।
विश्व पुस्तक
मेले के
आयोजनकर्ता नेशनल बुक ट्रस्ट से
प्रकाशकों की नाराजगी दिखी थी
।
ये
नाराजगी सुविधाओं
और आयोजन
की तिथि
और पुस्तक
मेले के
प्रचार में
ढिलाई को
लेकर थी
। लेकिन
प्रकाशकों की शिकायतों से इतर
नेशनल बुक
ट्रस्ट के
निदेशक एम
ए सिकंदर
का दावा
था कि
उन्होंने इस
बार विश्व
पुस्तक मेले
को छात्रों
के बीच
ले जाने
की अनोखी
पहल शुरू
की थी
। इन
आरोपों और
सफाई के
बीच विश्व
पुस्तक मेले
में हिंदी
के ह़ल
में एक
बात जो
रेखांकित करने
योग्य थी
वह थी
विमचनों का
रेला ।
पुस्तक मेले
के दौरान
विमचनों की
होड़ लगी
थी ।
हर लेखक
और प्रकाशक
ये सोच
रहा था
कि किसी
भी तरह
से अगर
उनकी किताब
का विमोचन
पुस्तक मेले
में नहीं
हुआ तो
फिर उनका
लेखन बेकार
है ।
ताबड़तोड़ विमोचनों का असर यह
हुआ कि
जो आम
पाठक मेले
में आए
थे वो
बेहद क्फ्यूज
हो गए
। हर
स्टॉल पर
हर दिन
हिंदी का
कोई ना
कोई बड़ा
लेखक किसी
ना किसी
किताब का
विमोचन करते
हुए उस
किताब को
सदी की
महानतम कृति
की श्रेणी
में डालने
का उद्घोष
कर रहा
था ।
हिंदी के
एक बड़े
प्रकाशक के
स्टॉल पर
चो एक
साथ दर्जनभर
पुस्तकों का
विमोचन हुआ
। लग
रहा था
कि अगर
वहां विमोचवन
नहीं हुआ
तो मोक्ष
की प्राप्ति
से वंचित
रह जाएंगे
।
यह बताने का
मेरा मकसद
सिर्फ इतना
है कि
पुस्क मेले
अपने उद्देश्यों
से भटकते
जा रहे
हैं ।
जिन मेलों
पर ये
दायित्व था
कि वो
पाठकों की
रुचि का
परिष्कार करेंगे
और देश
में एक
पुस्तक संस्कृति
का निर्माण
करेंगे वो
पुस्तक मेले
अब लेखकों
के प्रचार
का मंच
बनता जा
रहा है
। पुस्तक
मेलों में
सार्थक संवाद
की गुंजाइश
खत्म होने
लगी है
। कुछ
दिनों पहले
दिल्ली के
प्रगति मैदान
में दिल्ली
पुस्तक मेला
खत्म हुआ
है ।
दिल्ली पु्स्तक
मेले का
आयोजन द
फेडरेशन ऑफ
इंडियन पब्लिशर्स
और इंडिया
ट्रेड प्रमोशन
ऑर्गेनाइजेशन के संयुक्त तत्वाधान में
किया जाता
है ।
एक जमाना
था जब
दिल्ली पु्स्तक
मेले को
लेकर दिल्ली
के लोगों
के बीच
जबरदस्त उत्साह
देखने को
मिलता था
। उस
वक्त प्रकाशकों
की प्रतिभागिता
भी ज्यादा
होती थी
। लेकिन
बाद में
संगठन में
राजनीति और
प्रचारप्रियता के अलावा श्रेय लेने
की होड़
ने दिल्ली
पुस्तक मेले
के रंग
को फीका
करना शुरू
कर दिया
। नतीजा
यह हुआ
कि हिंदी
और अंग्रेजी
के बड़े
प्रकाशकों ने इस मेले से
मुंह मोड़ना
शुरू कर
लिया ।
दिल्ली पुस्तक
मेले को
विस्तार देने
की बजाए
चंद लोगों
ने इसको
अपनी जागीर
बना ली
जिसकी वजह
से दिल्ली
पुस्तक मेला
अपनी आखिरी
सांसे गिनने
लगा ।
रही सही
कसर नेशनल
बुक ट्रस्ट
ने हर
साल विश्व
पुस्तक मेले
के आयोजन
का ऐलान
कर पूरा
कर दिया
। नेशनल
बुक ट्रस्ट
के संयोजन
में अब
हर साल
दिल्ली के
प्रगति मैदान
में फरवरी
में विश्व
पुस्तक मेले
का आयोजन
किया जाएगा
। नेशनल
बुक ट्रस्ट
के इस
फैसले के
बाद माना
जा रहा
है कि
दिल्ली पुस्तक
मेले का
ये आखिरी
आयोजन था
।
उधर कोलकाता पुस्तक
मेले में
भी राजनीति
और कंट्टरपंथ
हावी होने
से उसकी
साख को
बट्टा लगा
है ।
साल के
अंत में
सर्दियों में
लगनेवाला ये
पुस्तक मेला
आम पाठकों
के लिए
होता है
और माना
जाता है
कि ये
विश्व का
सबसे बड़ा
गैर कारोबारी
पुस्तक मेला
है ।
लोगों की
उपस्थिति के
लिहाज से
इस पुस्तक
मेले को
विश्व का
सबसे बड़ा
पुस्तक मेला
माना जा
सकता है
। पिछले
साल एक
अनुमान के
मुताबिक इस
कोलकाता बोई
मेला को
देखने और
किताबें खरीदने
के लिए
तकरीबन बीस
लाख लोग
मेला स्थल
पर आए
थे ।
कोलकाता पुस्तक
मेले की
प्रतिष्ठा इस बात को लेकर
भी ज्यादा
थी कि
वहां हर
विचारधारा के लेखकों की किताबों
को जगह
मिलती थी
। लेकिन
इस बार
जिस तरह
से तस्लीमा
नसरीन की
किताब को
लेकर सरकार
और आयोजक
कट्टरपंथियों के आगे झुके वो
शर्मनाक है
। तस्लीमा
की किताब
निर्बासन का
लोकार्पण की
इजाजत नहीं
देने की
चारो ओर
आलोचना हुई
थी ।
ये लोकार्पण
तस्लीमा की
अनुपस्थिति में किया जाना था
। लेकिन
कट्टरपंथियों के दबाव में झुके
आयोजकों को
ममता सरकार
ने भी
विमोचन नहीं
कराने की
सलाह दी
। इस
घटना की
विश्व भर
के साहित्यक
हलके में
जमकर आलोचना
हुई ।
सिर्फ देश
के चंद
प्रगतिशील लेखकों ने चुप्पी साध
ली थी
।
पुस्तक मेलों का
घटता आकर्षण
और जयपुर
लिटरेचर फेस्टीवल
जैसे आयोजनों
की बढ़ती
लोकप्रियता से बड़े सवाल खड़े
होने लगे
हैं । अब वक्त आ
गया है
कि हमें
इसपर गंभीरता
से विचार
करना चाहिए
कि हमारे
देश में
दिल्ली ,कोलकाता,
पटना जैसे
विश्व प्रसिद्ध
पुस्तक मेलों
के प्रति
लोगों का
आकर्षण कम
क्यों होता
जा रहा
है ।
पुस्तक मेलों
की बजाए
जयपुर लिटरेचर
फेस्टिवल, गोवा लिट फेस्ट, चेन्नई
लिटरेचर फेस्टिवल
आदि कैसे
विस्तार पा
रहा हैं
। क्या
पाठकों की
रुचि का
परिष्कार हो
गया है
और अब
वो सुख
शांति से
अपने प्रिय
लेखकों को
सुनना और
उनसे संवाद
करना चाहते
हैं ।
क्या इन
पुस्तक मेलों
में पाठक
अपने लेखकों
से संवाद
कायम करने
का सुख
नहीं पा
रहे हैं
जो उन्हें
लिटरेचर फेस्टिवलों
की ओर
खीच रहा
है ।
इन बातों
पर हिंदी
के प्रकाशकों
और लेखकों
को गंभीरता
से विचार
करना होगा
।
हिंदी
पट्टी में
खासकर छोटे
शहरों में
पुस्तक मेलों
की एक
अहमियत है
। अगर
समय रहते
छोटे शहरों
में पुस्तक
मेलों के
अस्तित्व को
बचाने का
प्रयास नहीं
किया गया
तो पुस्तक
संस्कृति को
भारी नुकसान
होगा ।
नेशनल बुक
ट्रस्ट की
स्थापना के
उद्देश्यों में पुस्तक संस्कृति को
बढ़ावा देना
भी शामिल
है ।
इस दिशा
में नेशनल
बुक ट्रस्ट
को पहल
करनी होगी
ताकि देशभर
में नई
पीढ़ी के
बीच पुस्तकों
से प्रेम
करने की
प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जा
सके ।
एनबीटी को
महानगरों से
निकलकर लगातार
छोटे शहरों
में पुस्तक
मेलों का
आयोजन करना
होगा और
उन मेलों
में बड़े
लेखकों की
उपस्थिति सुनिश्चित
करवानी होगी
ताकि पाठकों
को संवाद
का मौका
मिल सके
। अगर
ऐसा हो
सके तो
हम भाषा
और संस्कृति
के प्रति
अपने दायित्वों
को सही
तरीके से
निभा पाने
में सफल
हो पाएंगे
।
बहुत सुन्दर, सार्थक प्रस्तुति!
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