(1)
जब हर उम्मीद ,
निराशा की दहलीज़ पर ,
दम तोड़ती है ,
तब ,
फिर कोई दर्द की झाइयों से ,
भरा सुस्त चेहरा ,
निरुत्साही आंखो में उम्मीद पाले ,
रेत के घरोंदे सी ,
आशा के साथ ,
कापँती देह साथ ,
बोझ उठाए ,
बढ़ जाता है ,
एक नए काफिले की ओर ||
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(2)
मेरा मन बुझा बुझा सा रहता है,
मेरा मन कभी अनबुझा सा रहता है,
न कुछ सुनता है ,
न कुछ कहता है,
अपने में गुम रहता है,
मेरा मन बादलो सा घुमड़ता रहता है,
न खिलता है,
न बरसता है
अपने में सहमा रहता है,
मेरा मन वृक्ष सा तना रहता है,
न पतों सा सूखता है,
न फूलों सा खिलता है,
अपने में सिमटा रहता है,
मेरा मन ख्वाबो में चलता है,
न प्रेमी सा मिलता है,
न हरजाई सा बिछुरता है,
अपने मे मचला रहता है,
मेरा मन हवाओ संग दौड़ता है ,
न बूंदों सा बरसता है ,
न कोहासे सा उतरता है ,
अपने में घुला मिला रहता है ,
मेरा मन बुझा बुझा सा रहता है,
मेरा मन अनबुझा सा रहता है....।
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जन्म : 05 मार्च, 1980
जन्म स्थान : कानपुर(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि,परामर्श में डिप्लोमा,एम0 फिल (मनोविज्ञान)
प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लघु कथा आदि का प्रकाशन
सम्पर्क : अर्चना ठाकुर, तेजपुर ,सोनित पुर जिला ,आसाम
arch .thakur30 @gmail .com
man ke udgar ko vyakt karti kavita bahut hi badhia kavita
जवाब देंहटाएंman ki bhavnaye shabddo se achhi tarah likhi archna ji badhai ho
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