- डॉ ओम निश्चल का आलेख
(यह अंश 'तद्भव' के अंक अक्टूबर, 2012 में किंचित संपादित रूप में छपा है। पाठकों के लिए अपनी माटी द्वारा इस कलेवर में फिर प्रस्तुत है। हम अखिलेश जी के संपादकत्व में प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'तद्भव' और ओम निश्चल के आभारी तो हैं ही। साथ ही युवा कवि अरुण देव के निर्देशन में प्रकाशित समालोचन जैसी वेब पत्रिका के आभारी है जहां ये समीक्षात्मक आलेख पहले छप चुका है उस पर फेसबुकी बहस भी बहुत हद तक आगे बढ़ी है।-सम्पादक)
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खत्म नहीं होती बात बोधिसत्व राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली-110002, मूल्य 200 रूपये |
किसका है भारत यह किसकी है भारती ?
'भारत ललित ललाम यार है/ भारत घोड़े पर सवार है...........।'
अष्टभुजा शुक्ल ने भारत की जो तस्वीर अपनी कविता('दु:स्वप्न भी आते हैं' में संकलित) में खींची है उससे बहु विज्ञापित शाइनिंग इंडिया या अतुल्य भारत का असली चेहरा नजर आता है। अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं में वक्रता और कटाक्ष की जैसी जुगलबंदी है वह उन्हें अनायास नागार्जुन और त्रिलोचन के बगल खड़ा करती है। बोधिसत्व में भी यह ऑंच कम नही है। 'भारत भारती' कविता में भीख के लिए रिरियाती स्त्री को देख उनका यह पूछना कि 'किसका भारत और किसकी यह भारती है'---लगभग विकास की दरों को लॉंघते देश की दुर्दशा पर व्यंग्यबोधक सवाल है। बोधिसत्व का कविता संग्रह 'खत्म नहीं होती बात' देश के हालात पर तज्किरा है। वे बरसों से मुम्बई में हैं पर उनकी कविता आज भी सुरियावॉं, भदोही और इलाहाबाद के अक्षांश और देशांतर पर बुनी जा रही है। वे मुम्बई जाकर अपना गॉंव, कस्बा और शहर नहीं भूल बैठे, बल्कि हर छोटी से छोटी बात कविता में लाना चाहते हैं, यहॉं तक कि अपनी लघुता के बयान के लिए भी वे कविता का मंच ही मुफीद समझते हैं। सच तो यह है कि कविता में स्थानीयता दिनों दिन गायब हो रही है।
कविता कवि की चरितगाथा है, ऐसा माना जाता है। पर आज के तमाम कवि ऐसी कविताएं लिख रहे हैं जिससे उनका लोकेल पता नहीं चलता। पर क्या ऐसा ज्ञानेन्द्रपति के यहॉं है, वीरेन डंगवाल के यहॉं है, लीलाधर मंडलोई के यहॉं है, लीलाधर जगूड़ी के यहॉं है, अरुण कमल के यहॉं है? शायद नहीं। उनकी कविताऍं पढ़ते हुए यह दावे से कहा जा सकता है कि कवि किस जगह से बोल रहा है। अपनी बोली बानी की धमक से लेकर उस इलाके की अपनी खुशबू उनकी कविताओं में मिल सकती है। ज्ञानेन्द्रपति के यहां हम बनारस और गॉंगेय छवियों का कोलाज देख सकते हैं तो वीरेन डंगवाल की भाषा से अनुमान लगता है कि वे किस जगह की आबोहवा में रम कर कविता लिख रहे हैं। आखिर उनकी ‘फ्यूँली’(वसंत के मौसम में पहाड़ी झाड़ियों में दिखता एक पीला फूल) और 'गंगा-स्तवन' पढ़ कर किसे उनका पता ढूढ़ने की जरूरत होगी।
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बोधिसत्व जी |
बोधिसत्व के इस संग्रह में देशज अनुभवों की
दुनिया है। खेत में झर गए गेहूँ और गौरैया के रिश्ते की दुनिया है। यह दुनिया
भिखारी रामपुर से होते हुए सुरियावॉं, भदोही और इलाहाबाद की भी है। यह उस आदमी
की कविता लगती है जो गॉंवों कस्बों से जुड़ा है या कम से कम जिसका कवि मन अभी ऐसे
ही देसी अनुभवों में विश्रांति पाता है। वह कविता लिखते हुए पाता है कि कोई
ग्रामवधू आनने वाले के पीछे चली जा रही है हर तरह की थकान को पीछे छोड़ते हुए। वह
ऐसे जा रही है कि उसे जाना ही है पुरुष के पीछे पीछे। यह गॉंव का एक प्रचलित दृश्य
है। एक कविता 'हम दोनो' में पिता
के साथ खेत सींचने का वर्णन है। पर खेती किसानी का यह सबक सीखने के बाद एक दिन
पुत्र गॉंव से निकल भागता है और पिता भी नहीं रहे। तब से खेत परती पड़े हैं कौन
जोते बोए। यह एक भयानक दृश्य उकेरा है बोधिसत्व ने। गॉंवों के प्राय: संयुक्त
परिवार बिखर चुके हैं। जिसे भी निकल भागने की सुविधा है वही गांवों से भाग रहा है।
आधुनिक सभ्यता ने सबको शहरी बना दिया है। एक एक कर लोग भाग रहे हैं, पंजाब की ओर, मुम्बई या अन्य शहरों महानगरों की ओर।
तालीमयाफ्ता लोगों ने शहरों में ठिकाना खोज
लिया है। गांव के गांव खाली पड़े हैं। कोई वृद्धा जरूर अपने जीते जी दिया बाती
करने के लिए घर की रखवाली करती पड़ी होगी। यही आम दृश्य है गांवों का।
अनियंत्रित विकास ने गॉंव के लोगों को पलायन पर
मजबूर कर दिया है। खेती में बसर नही होता अब। ऐसी ही एक कविता है ‘लाल भात’। एक भयानक खबर की तरह यह कविता दूर तक
हमारे भीतर के अस्तित्व को हिला देतीहै। ‘लाल भात’ किसी जमाने में गरीब के खाने का एक मात्र भोजन हुआ करता था। देसी चावल
जो माड़ ज्यादा छोड़ता था पर मिठास गजब की होती थी। फिर धीरे धीरे तमाम अन्य अन्नों
की तरह लाल भात वाले धान उपजाने बंद हो गए। उनकी जगह महक वाले धानों ने ले ली। वे
खेत खलिहान, तीज त्योहार सब जगह से विदा हो गए। कविता का अंत
एक भयानक अफसोस के साथ यह बताता है कि केवल लाल भात ही नहीं, सब कुछ जो देसी है, कम उपजाऊ या लाभकारी है सब कुछ धीरे धीरे
बिला गया। देसी बैल, देसी गाऍं, देसी
भैंसें, देसी कुत्ते, देसी बीज
सब कुछ के खत्म किए जाने का दौर है यह। एक मुहिम के तहत उन्नत नस्ल के जानवर और
उत्तम किस्म के बीज लाए जा रहे हैं, जो भी देसी है उसे धीरे धीरे खत्म होना
है। हालॉंकि बोधिसत्व की यह चिंता कोई नई नहीं है, ज्ञानेन्द्रपति
की कविता ‘बीज व्यथा’ इसी कुटिल षडयंत्र पर बहुत पहले प्रहार कर चुकी
है।
एक योजनाबद्ध तरीके से देसी बीजों पर प्रतिबंध लगाकर विदेशी बीजों को भारत में लाया जा रहा है। एक तरह से उन बीजों के पेटेंटीकरण से देसी बीजों के बोने पर भी प्रतिबंध लगाए जाने की नौबत आ गई है। इस मुहिम ने देसी स्वादों वाले अनेक मौलिक बीजों को जैसे खेत खलिहानों से खदेड़ दिया है। हमारी स्मृति में भी वे देसी स्वाद वाले अन्न नही रह गए हैं अब। ज्ञानेन्द्रपति ने ‘संशयात्मा’ की कई कविताओं : खेसारी दाल की तरह निंदित, लुप्त होती प्रजातियों के अंतिम वंशधर, एक शोकाकुल स्वागत, दिनांत पर आलू आदि में विलुप्त होती वस्तुओं, प्रजातियों की व्यथा का निरूपण किया है। राजेश जोशी की सुपरिचित कविता ‘विलुप्त प्रजातियॉं (चॉंद की वर्तनी) भी इस विलोपन का ही जैसे शोकगीत हो। बोधिसत्व की चिंता भी गौरतलब है: ‘जो बचे हैं देसी उन्हें खत्म होना है/ जैसे लाल भात गया थाली से/ अदहन रसोई से/ कोठिला से, खेत से...। नव ब्याहताओं दुल्हनों के कोंछ से भी। ‘(लाल भात)
एक योजनाबद्ध तरीके से देसी बीजों पर प्रतिबंध लगाकर विदेशी बीजों को भारत में लाया जा रहा है। एक तरह से उन बीजों के पेटेंटीकरण से देसी बीजों के बोने पर भी प्रतिबंध लगाए जाने की नौबत आ गई है। इस मुहिम ने देसी स्वादों वाले अनेक मौलिक बीजों को जैसे खेत खलिहानों से खदेड़ दिया है। हमारी स्मृति में भी वे देसी स्वाद वाले अन्न नही रह गए हैं अब। ज्ञानेन्द्रपति ने ‘संशयात्मा’ की कई कविताओं : खेसारी दाल की तरह निंदित, लुप्त होती प्रजातियों के अंतिम वंशधर, एक शोकाकुल स्वागत, दिनांत पर आलू आदि में विलुप्त होती वस्तुओं, प्रजातियों की व्यथा का निरूपण किया है। राजेश जोशी की सुपरिचित कविता ‘विलुप्त प्रजातियॉं (चॉंद की वर्तनी) भी इस विलोपन का ही जैसे शोकगीत हो। बोधिसत्व की चिंता भी गौरतलब है: ‘जो बचे हैं देसी उन्हें खत्म होना है/ जैसे लाल भात गया थाली से/ अदहन रसोई से/ कोठिला से, खेत से...। नव ब्याहताओं दुल्हनों के कोंछ से भी। ‘(लाल भात)
बोधिसत्व की काव्यभाषा ने अपने पूर्ववर्तियों से
बहुत कुछ सीखा है। इसी संग्रह में निराला और त्रिलोचन पर उनकी कविताएं इस बात का
परिचायक हैं कि उनका अपने पूर्वज कवियों के प्रति आदर का बोध है। हाल में प्रकाशित
उनकी ‘स्वाहा’ कविता पढ़
कर नागार्जुन के प्रति उनकी प्रणति प्रमाणित होती है तो त्रिलोचन की कविता कला से
भी उन्होंने सीखने की कोशिश की है। और तो और, त्रिलोचन
की आलोचना तक से वे विचलित हो उठते हैं जिसका तीखा प्रत्याख्यान उनकी एक कविता
में देखा जा सकता है। उम्र के आखिरी छोर पर आ पहुँचे त्रिलोचन यदा कदा होश खो
बैठते थे और वे अपनी पुत्रवधू की देखरेख में थे। हिंदी जगत में इसे लेकर कुछ जब
कुछ अनर्गल प्रलाप किए जाने लगे तो बोधिसत्व के कवि ने मर्माहत होकर इसकी खबर इन
शब्दों में ली: --
उस पर विचार के नाम पर
दुर दुर करो,कहो वाम पर
धब्बा है त्रिलोचन
कहो त्रिलोचन कलंक है।
भूल जाओ कि वह जनपद का कवि है
गूँज रहा है उसके स्वर से दिग-दिगंत है।
मरने दो उसको दूर देश में पतझड़ में
तुम सब चहको भड़ुओ तुम्हारा तो
हर दिन बसन्त है।
बोधिसत्व की इन कविताओं में एक घरेलूपन है।
संबंधों की कद्र करते हैं वे। संग्रह की पहली ही कविता नाना की याद में है तो अन्यत्र
नानी को भी याद किया है उन्होंने। दीदी पर एक अलग ही कविता है। अल्लापुर के गली
मुहल्लों में रहने वाली लड़कियों में सब का हाल चाल लेते हुए वे अब तक अविवाहित
रह गयी ममता की चर्चा किए बिना नहीं रहते। वे यहॉं पिता को याद करते हैं। उनका न
होना तो उन्हें दुख पहुंचाता ही है, यह बात और पीड़ित करती है कि उनके न रहते
ही उनकी सारी चीजें भला कहॉं बिला गयीं ? न कुर्ते
रहे न चुनौटियॉं, न सरौते, न गमछे, न पोथियॉं, न डायरी, न कलमें, न जूते, न घड़ी, न
टोपियॉं----जैसे किसी साजिश के तहत तुम्हारी चीजों को मिटा दिया गया हो, कवि कहता है।
गॉव की औरतें उन्हें याद आती हैं तो कुछ इस तरह कि वे कभी एक खास तरह की मिट्टी से अपने बाल धुला करती थीं। यह अपनी बहनों को याद करने के बहाने गॉंव की गरीबी का ही एक खाका खींचने जैसा है। एक कविता तो उन्होंने राजा दशरथ की बेटी शांता को लेकर लिखी है। उसके बारे में कहते हैं कि जब वह पैदा हुई तो अयोध्या में बारह वर्षो तक अकाल पड़ा। तब दशरथ ने पंडितों की सलाह पर उसे श्रृंग ऋषि को दान में दे दिया। उसी ऋषि के पुण्य प्रताप से वे बाद में चार संतानों के पिता बने पर बड़े होकर राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न कभी भी उस बहन से मिलने श्रृंग ऋषि के आश्रम नहीं गए। एक बहन के प्रति यह दृष्टि संबंधों को महत्व देने वाले कवि में ही मिल सकती है। वह मिथक से भी मोती खोज लाता है। बोधिसत्व बहुत कैलकुलेटिव कवि और उत्तरदायी कवि हैं। उनके यहॉं कलावादी कवियों की कवायद नहीं दिखती। वे चाहते हैं कि उनकी कविता लोगों तक पहुँचे। इसके तईं वे कुछ कविताओं में छंदों का विधान भी रचते हैं। कल की बात, बिटिया का कहना, किसकी दिल्ली, कब तक जिन्दा है हाथी, नया खेत और गॉंव की बात ऐसी ही कविताऍं हैं। यह कहीं न कहीं अपने को उन कवियों की परंपरा से जोड़ना है जिन्होंने कविता में छंद को कभी अलगाववादी दृष्टि से नहीं देखा क्योंकि वह सदैव उसकी सन्निधि में ही पली बढ़ी है। इस सबके बावजूद बोधिसत्व की छवि मेरे मन में उनके दूसरे संग्रह हम जो नदियों का संगम हैं तथा दुख तंत्र से ही बनती है। शायद इसीलिए, उतने ऊँचे आसन पर इसे प्रतिष्ठित कर पाने में मुझे असुविधा हो रही है।
गॉव की औरतें उन्हें याद आती हैं तो कुछ इस तरह कि वे कभी एक खास तरह की मिट्टी से अपने बाल धुला करती थीं। यह अपनी बहनों को याद करने के बहाने गॉंव की गरीबी का ही एक खाका खींचने जैसा है। एक कविता तो उन्होंने राजा दशरथ की बेटी शांता को लेकर लिखी है। उसके बारे में कहते हैं कि जब वह पैदा हुई तो अयोध्या में बारह वर्षो तक अकाल पड़ा। तब दशरथ ने पंडितों की सलाह पर उसे श्रृंग ऋषि को दान में दे दिया। उसी ऋषि के पुण्य प्रताप से वे बाद में चार संतानों के पिता बने पर बड़े होकर राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न कभी भी उस बहन से मिलने श्रृंग ऋषि के आश्रम नहीं गए। एक बहन के प्रति यह दृष्टि संबंधों को महत्व देने वाले कवि में ही मिल सकती है। वह मिथक से भी मोती खोज लाता है। बोधिसत्व बहुत कैलकुलेटिव कवि और उत्तरदायी कवि हैं। उनके यहॉं कलावादी कवियों की कवायद नहीं दिखती। वे चाहते हैं कि उनकी कविता लोगों तक पहुँचे। इसके तईं वे कुछ कविताओं में छंदों का विधान भी रचते हैं। कल की बात, बिटिया का कहना, किसकी दिल्ली, कब तक जिन्दा है हाथी, नया खेत और गॉंव की बात ऐसी ही कविताऍं हैं। यह कहीं न कहीं अपने को उन कवियों की परंपरा से जोड़ना है जिन्होंने कविता में छंद को कभी अलगाववादी दृष्टि से नहीं देखा क्योंकि वह सदैव उसकी सन्निधि में ही पली बढ़ी है। इस सबके बावजूद बोधिसत्व की छवि मेरे मन में उनके दूसरे संग्रह हम जो नदियों का संगम हैं तथा दुख तंत्र से ही बनती है। शायद इसीलिए, उतने ऊँचे आसन पर इसे प्रतिष्ठित कर पाने में मुझे असुविधा हो रही है।
समीक्षक
बैंकिंग क्षेत्र में वरिष्ठ प्रबंधक हैं.
अवध विश्वविद्यालय से साठोत्तरी हिन्दी कविता पर शोध.
अपनी माटी पर आपकी और रचनाएं यहाँ
मार्फत : डॉ.गायत्री शुक्ल, जी-1/506 ए, उत्तम नगर,
नई दिल्ली-110059, फोन नं. 011-25374320,मो.09696718182 ,
ईमेल:omnishchal@gmail.com पूरा परिचय यहाँ
Is Tippni ko fir se padhen.
जवाब देंहटाएंकविता में बोधिसत्व का जलवा देखना हो तो दुख तंत्र पढ कर देखें। स्त्री की त्रासदी को एक नए गल्प के कैनवस पर बुनने का जैसा सलीका बोधि के पास है वैसा हिंदी कविता में बहुत कम देखने को मिलता है।
zarur
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