- 'वाह' नहीं, 'आह' है कविता की कसौटी
(समीक्षा के क्षेत्र में बेबाकी से अपनी बात कहने वाले साथी डॉ ओम निश्चल से हमने आग्रहपूर्वक ये पुस्तक समीक्षा मंगवाई है।जो प्रतिष्ठित पत्रिका शुक्रवार के अंक ,में छप चुकी हैं यहाँ पाठक हित में साभार छपने का मन हुआ है। छंद रहित और नई कविता के इस दौर में कविता का हस्र भी सभी को मालुम है। ऐसे में एक वरिष्ठ कवि की कलम से निकली ये कवितायेँ नव रचनाकारों को दिशा देगी। 'वाह' के अंदाज़ को ही भले से नहीं समझने वाले युग में 'आह' के मर्म को कितने कम लोग जानते हैं।-सम्पादक)
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सुनो चारुशीला
कवि:नरेश सक्सेना
भारतीय ज्ञानपीठ,
18,इंस्टीट्यूशनल एरिया,
लोदी रोड, नई दिल्ली
मूल्य: 100 रुपये।
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'समुद्र पर हो रही है बारिश' के बाद आया नरेश सक्सेना का संग्रह 'सुनो चारुशीला' उनके परिपक्व जीवन का स्मृतिधायी साक्ष्य है। कविता को लोकगीतों
की-सी बंदिश में बॉंधने वाले नरेश सक्सेना का छंद-बोध उनके काव्य में झलकता है। तभी तो राजेश
जोशी इन्हें लय की कुदाल से उत्खनित मानते हैं। यह जरूर है कि अपनी कविताओं में
मदन वात्स्यायन के बाद सीमेंट, कंक्रीट, लोहे, गिट्टी,धातुओं और अभियांत्रिकी से जुड़े
अनुभवों का साझा करने वाले वे हिंदी में दूसरे कवि हैं, पर बकौल कुणाल सिंह, ' ये कहीं से कविता की देह को आहत नहीं करते।' एक जमाने में 'फूले फूल बबूल कौन सुख अनफूले कचनार' 'तनिक देर को छत पर हो आओ/ चॉंद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है।'
तथा 'सूनी संझा, झॉंके चाँद/मुड़ेर पकड़ कर आँगना/ हमें, कसम से नहीं सुहाता---रात-रात भर जागना’ जैसी नेह-पगी पदावलियों के कवि नरेश सक्सेना का यह संग्रह उस वक्त
आया है जब कविता में शब्दों की स्फीति सर चढ़ कर बोल रही है, एक प्रोजैक किस्म की विवरणात्मकता का बोलबाला है। उस पर कवियों को 'वाह' की दरकार तो है, 'आह' की नहीं जबकि नरेश सक्सेना के
लिए कविता की असली कसौटी 'वाह' नहीं, 'आह' है। वे कहते हैं: 'ऐसी हो उसकी तासीर/ फूलों को छुए जैसे ओस/ छुअन ऐसी नहीं/बल्कि
चाकू की तेज धार छुए पके फोड़े को/ताकि रिसना मवाद का शुरू हो/ और वाह नहीं आह
निकले होठों से।' (कविता की तासीर)।
अपनी पत्नी एवं फिल्म निर्देशिका स्व.विजय जी पर लिखी कविता 'सुनो चारुशीला' की आखिरी पंक्तियॉं हैं: क्या कोई बता सकता है/ कि तुम्हारे बिन मेरी एक वसंत ऋतु /कितने फूलों से बन सकती है/ और अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता/ एक तारे से अपना आकाश। --ऐसी सघन सांद्र संवेदना वाले नरेश से आज विजय जी भले ही ओझल हों,उनकी कविताओं के रेशे- रेशे में उनका प्यार-दुलार बोलता है।
एक शिशु-सी सरलता और जल की तरह मित्रों में घुल-मिल जाने
वाली तरलता लिए नरेश जी की कविताओं से एक ऐसी अनिंद्य अनुगूँज आती सुन पड़ती है जो
मिट्टी में खिलौनों, खिलौनों में बच्चों और बच्चों में सपनों की ख्वाहिशों से भरी है।
ऐसे भी कवि हैं पृथ्वी पर
जिनका शब्दों से काम नहीं चलता। 'शब्द' कविता के लिए जरूरी होते हैं पर हर कवि के लिए नहीं।
तमाम खर्चशाह
कवियों से अलग नरेश सक्सेना की कविता भाषा से बाहर घटित होती है। वह कुछ कहके नहीं, कुछ करके दिखाने वाली कविता में भरोसा करते हैं। जैसे वे बादल
लिखें तो बारिश, पेड़ लिखें तो फल, फूल लिखें तो खुशबू, और धरती लिखें तो फसल की आमद हो। तभी तो विनोद कुमार शुक्ल कहते
हैं, उनसे कविता को
सुनना, जीवन के कार्यक्रम
को सुनना है।
नरेश सक्सेना की कविता उन्हीं की एक कविता 'दरवाजा' के निहितार्थ को ध्यान में रख कर कहें तो एक ऐसे दरवाजे की तरह है जिसे कभी भी खटखटा कर भीतर आया जा सकता है। जहॉं दरवाज़े पर ही कान लगाकर कवि की बैठकी को महसूस किया जा सकता हो। यह केवल उनका लखनवी सलीका ही नहीं, उनकी कविता की भी नफ़ासत है जो अपने किसी चाहने वाले को दरवाजे पर ठिठका देख बड़े सलीके से कह उठती है: आइए, तशरीफ रखिए। दरवाज़ा खुला है। मुलाहिजा हो उन्हीं की यह कविता 'दरवाज़ा' जो मेरे इस कहे का ही पद्यानुवाद है:
''दरवाज़ा होना तो किसी ऐसे घर का/ जिस पर पड़ने वाली थपकियों से ही / समझ लेते हों घर
के लोग/कि कौन आया है, परिचित या अपरिचित/ और बिना डरे कहते हों हर बार /खुला है, चले आइए!''
यों तो इस
संग्रह में सभी कविताऍं मार्मिक हैं पर रंग, अजीब बात, ईश्वर की औकात, गिरना, इस बारिश में, देखना जो ऐसा ही रहा, दरवाजा, शिशु, तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो
तथा भाषा से बाहर जैसी कविताऍं ऐसी
हैं जिन पर नरेश सक्सेना की पूरी छाप है। भाषा को निर्भार और मस्ती से बरतने
वाले नरेश सक्सेना की कविता सुभाषितों के गलियारे से होकर नहीं गुजरती, न किसी उच्चादर्श के बखान में यकीन रखती है क्योंकि
कविता का काम तो अंतत: बकौल केदारनाथ सिंह, अंत:करण के
गलियारों को स्वच्छ बनाना है। सपने कवियों को हमेशा भाते रहे हैं। कवि का काम
जैसे कि सपनों के पंखों पर ही उड़ान भरना हो। ऐसी ही बात इच्छाओं के साथ है। ‘अजीब बात’में वे कहते हैं: ‘जगहें खत्म हो जाती हैं/ जब हमारी वहॉं
जाने की इच्छाएं खत्म हो जाती हैं/ लेकिन जिनकी इच्छाएं खत्म हो जाती हैं/ वे ऐसी जगहों में बदल जाते हैं / जहॉं कोई आना नहीं चाहता।‘ इस कविता से जीवन का हाथ पकड़े रहने
की सलाहियत कितने सलीके से कवि ने दी है।
पानी के इस इंजीनियर और एक समय
उच्छ्वास-भर-भर कर सुने जाने वाले गीतों के इस रचयिता की कविता संवेदना-प्रवण
होने के साथ साथ विचारों में भी दृढ़ता से भरी दिखती है। अंधविश्वासों और
अवैज्ञानिकता पर चोट करती हुई वह ईश्वर की औकात बताती है तो अपनी ज़मीन जायदाद से
बेदखल किसानों के ऑंसुओं का आख्यान भी लिखती है। इस बारिश में जैसी कविता के
आरोह-अवरोह में हम अपनी जमीन से बेदखल होते किसानों का विलाप सुन सकते हैं:
' जिसके पास चली गयी
मेरी ज़मीन/उसी के पास अब मेरी /बारिश भी चली गयी /अब जो घिरती हैं काली घटाएं / उसी के लिए घिरती
हैं /कूकती हैं कोयलें उसी के लिए / उसी के लिए उठती
हैं / धरती के सीने से सोंधी सुगंध/ अब नहीं मेरे लिए/हल नही बैल नही/ खेतों की गैल नहीं/ एक हरी बूँद नहीं/ तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं/ कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए /जिसकी नहीं कोई जमीन/उसका नहीं कोई आसमान।' इस
कविता के जरिए जैसे नरेश सक्सेना ने भूमंडलीकरण और सुधारों के
फलस्वरूप बढ़ते पूँजीवादी प्रभुत्व के बीच कारपोरेट घरानों के नाम औने पौने
ज़मीनें सौगात में दे दिए जाने से पैदा हालात पर एक कवि का शोकगीत लिख दिया है। पृथ्वी
को बिल्डरों की मेज पर एक अधखाये फल के रूप में देखने वाले कुमार अम्बुज से एक
कदम आगे बढ़ कर यह कविता वंचितों की एक असाध्यगाथा में बदल गयी है।
ग्वालियर में जन्मे नरेश के जेहन में कैशोर्य में बीते
दिनों की यादें तरोताज़ा हैं तो बुंदेलखंडी लोकगीतों की अंतर्धारा उन्हें हर वक्त
मस्ती और मार्मिकता से अभिषिक्त किए रहती है। जंगलों, नदियों, पठारों और बीहड़ों की नीरवता ने
उनके एकांत को गीत-संगीत से भरने में मदद की है, उनके मिजाज को लोकवार्ताओं से मॉंजा है और उनके भीतर एक ऐसी लगन
पैदा की है जो भीतर की 'कशिश' और 'आह' से निकलती है और एक मार्मिक कविता में बदल जाती है।
अचरज नहीं कि उनकी कविता में उत्सवता
नहीं, कारुणिकता मिलती है। जीवन के निर्मम सच को उन्होंने
लोकधुनों के कैनवस पर लिखी 'उसे ले गए'
जैसी कविता से उजागर किया तो उत्तर भूमंडलीकरण के दु:स्वप्न को 'इस
बारिश में' जैसी कविता में मुखर किया है। कविता
उनके लेखे वह है 'जो बुरे वक्त में काम आए,
जो हिंसा को समझ और संवेदना में बदल दे। ऐसी कविता जो हमें बच्चों-जैसा सरल और
निश्छल बना दे, कुतूहल और प्रेम से भर दे।'
इधर उन्होंने कविता का जो वाचिक रसायन तैयार किया है और
जिस पाठ से वे कविताप्रेमियों विमुग्ध कर देते हैं उसके पीछे संगीत की अनूठी
बंदिशें हैं। शमशेर, नागार्जुन या निराला की कविताओं में
ऐसी बंदिशों की पहचान करते हुए वे कविता में संगीत से संगत के हामी दिखते हैं।
बोलचाल की लय को उन्होंने अपनी कविता की सीमाबद्धता नहीं,
ताकत बनाया है। इसीलिए उर्दू से नाता तोड़ती, अपने मुहावरों,
शब्दावलियों और वैज्ञानिक समझ से कटती हिंदी और लगातार गिरती हिंदी लेखक की
हैसियत पर अपनी भूमिका में चिंता जताई है। उनकी इस बात में दम है कि विज्ञान,गणित,
इंजीनियरिंग,संगीत,कविता
और अन्य कलाओं का जीवन से गहरा जुड़ाव है जिनकी आंतरिक संगति को विस्मृत नहीं
किया जाना चाहिए।
जैसा कि मैंने कहा है, वे इंजीनियर होते हुए भी तमाम
वैज्ञानिक संरचनाओं और तकनीकी क्रियाओं के बीच कविता की संरचनाएं पैदा कर लेते हैं
और सिफत यह कि कविता का प्रवाह उनके इस तकनीकी और अभियांत्रिकी कौशल से अवरुद्ध
नहीं होता। पांडित्य और पाखंड से मुक्त हमारे आधुनिक संवेदन को वे कविता की सहज
भाषा में लिखते और व्यक्त करते हैं। पतन के इस शर्मनाक दौर में भी उनकी कविता 'गिरना'
इस सलीके से मनुष्य को गिरना सिखाती है कि अपने गिरने और पतन पर गर्व हो उठे। उदाहरण
के तौर पर: ''गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की
तरह/रीते पात्र में पानी की तरह गिरो/ उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए/गिरो
आंसू की एक बूँद की तरह/किसी के दुख में/गेंद की तरह गिरो खेलते बच्चों के
बीच/......बारिश की तरह गिरो,सूखी धरती पर/पके हुए फल की तरह
/धरती को अपने बीज सौंपते हुए गिरो।''
मनुष्यता की एक एक भंगिमा को
अपनी ऑंखों से आत्मसात करने वाले, सॉंसों की धौंकनी से अपने अनुभवों
की भाषा में प्राण फूँकने वाले नरेश सक्सेना ने बहुत कम लिखा है, पर कम लिख कर यह सिद्ध किया है कि यह दरअसल उतना कम भी नहीं है। उनकी
कविता का घनत्व उसके आयतन और भार से बहुत-बहुत ज्यादा है।
।। संग्रह से कुछ चयन ।।
।।अजीब
बात।।
जगहें खत्म
हो जाती हैं
जब हमारी
वहॉं जाने की इच्छाएं
खत्म हो
जाती हैं
लेकिन जिनकी
इच्छाएं खत्म हो जाती हैं
वे ऐसी
जगहों में बदल जाते हैं
जहॉं कोई
आना नहीं चाहता
जिस पर
जिन्दगी गुजार देते हैं लोग
और रास्ते
पॉंवों से ही निकलते हैं
पॉंव शायद
इसीलिए पूजे जाते हैं
हाथों को
पूजने की कोई परंपरा नहीं
हमारी
संस्कृति में
ये कितनी
अजीब बात है।
।।ईश्वंर की
औकात।।
वे पत्थरों
को पहनाते हैं लँगोट
पौधों को
चुनरी और घाघरा पहनाते हैं
वनों, पर्वतों और आकाश की नग्नता से होकर
आक्रांत
तरह तरह से
अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं
देवी-देवताओं
को पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके
मंदिरों का
उद्धार करके
इसे वातानुकूलित करवाते हैं
इस तरह वे ईश्वर
को उसकी औकात बताते हैं।
।। इस बारिश
में।।
जिसके पास
चली गयी मेरी ज़मीन
उसी के पास
अब मेरी
बारिश भी
चली गयी
उसी के लिए
घिरती है
कूकती हैं
कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए
उठती है
धरती के
सीने से सोंधी सुगंध
हल नही बैल
नही
खेतों की
गैल नहीं
एक हरी बूँद
नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं,
कजरी
मल्हार नहीं मेरे लिए
जिसकी नहीं
कोई जमीन
उसका नहीं
कोई आसमान।
।।शिशु।।
शिशु लोरी
के शब्द नहीं
संगीत समझता
है
बाद में
सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ
समझता है
समझता है सबकी मुस्कान
सभी के
अल्ले ले ले ले
तुम्हारे
वेद पुराण कुरान
अभी वह
व्यर्थ समझता है
अभी वह अर्थ
समझता है
समझने में
उसको, तुम हो
कितने
असमर्थ, समझता है
बाद में
सीखेगा भाषा
उसी से है, जो है आशा।
।।रंग।।
सुबह उठ कर
देखा तो आकाश
लाल, पीले, सिंदूरी और गेरूए रंगों से रंग गया था
पड़ोसी ने
चिल्लाकर कहा
'अभी तो और मजा आएगा' मैंने कहा
बारिश आने
दीजिए
सारी धरती
मुसलमान हो जाएगी।
तिहत्तर
वर्षीय कवि को
इसके लिए
साधुवाद देना चाहिए तो
इंतजार किस बात का, उठाइये
मोबाइल और
डायल कीजिए:
09450390241,
क्या पता वे
मूड में हों तो
आप उनसे कम
से कम
'इस बारिश में'
कविता सुनाने का
इसरार तो कर ही डालें)
समीक्षक
बैंकिंग क्षेत्र में वरिष्ठ प्रबंधक हैं.
अवध विश्वविद्यालय से साठोत्तरी हिन्दी कविता पर शोध.
मार्फत : डॉ.गायत्री शुक्ल, जी-1/506 ए, उत्तम नगर,
भाई मानिक जी, मजा आ गया, इसे जिस तरह आपने सजा कर छापा है, वह काबिलेतारीफ है।
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