- 'उम्मीद-ए-सहर की बात सुनाता कठिन समय का साथी:फ़ैज़ अहमद फ़ैज़'
- पुस्तक समीक्षा By पुखराज जाँगिड़
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(‘उम्मीद-ए-सहर
की बात
सुनो’,
संपादक
– शकील सिद्दीकी,
पहला संस्करण
– 2012, पृष्ठ – 260,
परिकल्पना प्रकाशन,
डी-68,
निरालानगर, लखनऊ,
उत्तर प्रदेश - 226020)
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‘फ़ैज़ एक दुर्लभ भावांजलि है जो एक महान कवि
ने दूसरे महान कवि को दी है।’ (फिराक गोरखपुरी)। 2011 फ़ैज
अहमद फ़ैज़ (मूल नाम फ़ैज अहमद खाँ) का जन्म-शताब्दी वर्ष था। फ़ैज़ की पहचान कवि-शायर
के साथ-साथ ‘पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना के ऐतिहासिक
संघर्ष तथा तीसरी दुनिया में जनमुक्ति की हिंसक लड़ाईयों के अग्रणी संस्कृतिकर्मी’ के रूप में है। उनकी रचनाएं संकटों के अथाह समुद्र में भी हमें दुर्दमनीय
साहस प्रदान करती है क्योंकि वे खुद उनकी उनकी इसी अदम्य जिजीविषा से निकली हुई
रचनाएं है। इसीलिए संपादक शकील सिद्दीकी ने उन्हें ‘कठिन समय
का साथी’ कहा और भीष्म साहनी की नजर में उनकी कविताएं ‘हमारे समूचे उप-महाद्वीप में दावानल की तरह दहकी और पिछले पचास वर्षों से
वह मनुष्य की हर पीढी की जुबान पर है...
उनकी कविता लगातार शब्दों को नए अर्थ और
जीवन को नई दृष्टि प्रदान कर रही है।’ फ़ैज के व्यक्तित्त्व
में किताबों का बड़ा योगदान रहा। किताबों से उनकी बेइंतहा मोहब्बत ने उन्हें बचपन
में ही विचारप्रेमी बना दिया था। जन्मजात शिक्षक तो वे थे ही। अफ्रो-एशियाई पत्रिका
‘लोटस’ के संपादन और भुट्टो के शासनकाल
के दौरान उन्होंने लोक-कलाओं पर भी काम किया और किताबों की एक श्रृंखला निकाली। दरअसल
उनका सारा सृजन आमजन को लोक को और उनके संघर्ष को संबोधित है, चाहे वह ‘सुब्हे-आजादी’ की मुक्तिकामी पंक्तियां हो या – ‘बोल के लब आजाद
हैं तेरे/ बोल जबां अब तक
तेरी है/ तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/
बोल कि जां अब तक तेरी है।’ शुरूआती दिनों में क्रिकेटर बनने
की चाह रखने वाले फ़ैज़ की जिंदगी ने करवट बदली और इतना सीखाया कि उनकी अनुभवी
सीखें आज इंसान को बेहतरी के रास्ते की ओर बढा रहा है।
‘उम्मीद-ए-सहर की बात सुनो’ (2012) में फ़ैज़ के जीवन और सृजन संदर्भों को समग्रता में प्रस्तुत करते
24 महत्त्वपूर्ण लेखों व संस्मरणों, 12 नज़्मों, 29 गीतों तथा 25 ग़जलों को चार
खंडों में पिरोया गया है। 260 पृष्ठों के इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि फ़ैज़ की
हमसफर एलिस फ़ैज़ के संस्मरण और शकील सिद्दीकी की एलिस फ़ैज से बातचीत (एक मुकम्मल
इंसान) है जिनमें हम हकीकतन फ़ैज़ को संपूर्णता में हमारे सामने आते है। यासर
अराफात और कृश्न चंदर के संस्मरण व खत तो है ही। फ़ासिज़्म फ़ैज़ और महात्मा गाँधी
पर एक टिप्पणी और एक लेख भी है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि गाँधीजी की हत्या पर
फ़ैज़ विशेष रूप से भारत आए जोकि उस समय बहुत बड़ी बात थी। ‘अंतरराष्ट्रीय
शांति समारोह’(मॉस्को) और ‘अफ्रो-एशियाई
लेखक संघ’(ताशकंद) व्याख्यान फ़ैज़ के वैश्विक दृष्टिकोण को
स्पष्ट करते है। यहाँ किताबें देकर अक्सर भूल जाने वाले फ़ैज के सहज बहाने-‘जब तक कोई इस किताब को पढता रहेगा उसे देने का खतरा मोल लेने में कोई
मुज़ायका नहीं’ जैसी कई सुखद स्मृतियां संचित है। फ़ैज़ का
पारिवारिक और दांपत्य जीवन, विशेषकर उनकी बेटियाँ (सलीमा और मुनिज़ा, जिन्हें वे ‘कबूतर’ कहा करते) उन्हें किस तरह देखती है? फिर जेल-जीवन की त्रासदी और भारत-पाक आजादी में हुई दुर्घटनाओं में
परिवार की स्थिति, एक बड़ा केनवास बनाती है!
इस संग्रह में कई रचनाएं ऐसी है जो ‘हिंदुस्तानी’ में पहली बार प्रकाशित हुई है। इसका अधिकांश गद्य हिंदुस्तानी में है और
स्वागत योग्य है। हिंदी और उर्दू को एक साथ पढना एक रोचक अनुभव है। फ़ैज़ को फ़ैज़
की तरह हिंदी में पढा ही नहीं जा सकता अगर आप उर्दू से मुखातिब नहीं है। ऐसे में
अनुवादकों की जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ जाती है और इस संकलन के अनुवादकों बखूबी
इसका निर्वहन किया है। जटिल उर्दू शब्दों का तर्जुमा हिंदी में दिया गया है। इसमें
1941 में छपे फ़ैज के पहले कविता संग्रह ‘नक्शे-फ़रियादी’ की भूमिका भी है जिसे कविता के प्रति उनका समर्पण स्मरणीय है।
संकलन-संपादक शकील सिद्दीकी के शब्दों में कहूं तो आज
फ़ैज़ की लोकप्रियता एक ख़ास तरह की रागात्मकता का रूप ले चुकी है और उसने भौगोलिक
सीमाओं के साथ-साथ काल की सीमाएं भी तोड़ दी है। संकलन हाल ही में हमसे जुदा हुए ‘वसुधा’ के संपादक कमलाप्रसाद को समर्पित है, जिन्होंने सबसे पहले फ़ैज़ केंद्रित
अंक निकाला। ‘मत-ए-लौहो क़लम छिन गयी तो क्या गम है, कि ख़ने
दिल में डुबो ली हैं उँगलियां मैंने।’ वे इंकलाबी रूमानियत
और सांगीतिकता के कवि है। सृजनात्मक छटपटाहट उनके सृजन के मूल में है इसीलिए वे
अंधेरे में भी रोशनी की तलाश कर लेते है। वे भारत में प्रतिशील आंदोलन के पुरोधा
रहे है। उनकी रचनाएं और उनका हमें हर तरह के फासीवाद की शिनाख्तगी में मदद करती
है। इसी विरोध ने उन्हें ब्रिटिश सेना से जोड़ा और दूसरे विश्वयुद्ध में वे सैनिक
के वेश में युद्ध-पीड़ितों की सहायते कर रहे थे।
समीक्षक पुखराज जांगिड
ब्रह्मपुत्र छात्रावास,
पूर्वांचल,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
लिए यहाँ क्लिक करिएगा.
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‘मुझसे पहली
सी मोहब्बत मिरे महबूब न माँग’ ने कविता को नया ढंग दिया है,
उसने भारतीय कविता को नये विजन से संपृक्त किया है। देवीप्रसाद त्रिपाठी ने अपनी
कविता ‘रोशनी की आवाज’ में फ़ैज़ की
कविता को ‘प्रेम से क्रांति’ और ‘कूए-यार से सूए-यार’ की तरफ जाती कविता बताया है तो
उनकी आवाज को ‘रोशनी की आवाज’ और उनके
जीवन को ‘प्रकाशपर्व’ यूं ही नहीं कहा
है।
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