आलेख By शैलेन्द्र चौहान
जब मुक्त मंडी
की अवधारणा
के तहत
उच्च शिक्षा
को सरकार
की पकड़
से मुक्त करना पड़ा, तो
बिना किसी
सोच-समझ
और दृष्टि
के निजीकरण
के इस
रास्ते को अपना लिया गया।
लिहाजा कुकुरमुत्ते
की तरह
निजी विश्वविद्यालय
खुलने लगे। ऐसे अनेक व्यापारी
विश्वविद्यालय खोल बैठे, जिन्हें अपनी
काली कमाई
को सफेद करना था।
पिछली सदी
के अंतिम
वर्षों में
छत्तीसगढ़ में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़
इसका अद्भुत
नमूना है।
निजी विश्वविद्यालयों
का खुलना गलत नहीं
है, लेकिन
उनका नियमन
जरूर होना
चाहिए।
वह तो भला हो प्रोफेसर यशपाल का,
जो वह
फर्जी विश्वविद्यालयों
के खिलाफ
सर्वोच्च न्यायालय में गए
और बड़ी
मुश्किल से
उन पर
रोक लग
पाई। खैर
उसके बाद थोड़ा नियमन हुआ।
लेकिन जब
ज्ञान आयोग
ने कहा
कि देश
को 1,500
विश्वविद्यालयों की जरूरत
है, तो
एक बार
फिर निजी
विश्वविद्यालयों और संस्थानों की बाढ़
आने लगी।
आज उच्च
शिक्षा एक
भारी उद्योग
बन गया
है।
अब भी देश में
450 ही विश्वविद्यालय
हैं। चीन
या अन्य
विकसित देशों
की तुलना में यह संख्या
कहीं कम
है। इसलिए
उच्च शिक्षा
का विस्तार
जरूर हो,
लेकिन सोच-समझकर।janपिछले
दिनों ब्रिटेन
से एक
अच्छी व्
उत्साहवर्धक खबर आई। वहां के कुछ
प्राध्यापकों ने यह फैसला किया
कि वे
मिल-जुलकर
एक ऐसा विश्वविद्यालय खोलेंगे, जहां
मुफ्त में
शिक्षा दी
जाएगी। वे
लोग भी हमारी-आपकी तरह
महंगी होती
जा रही
उच्च शिक्षा
से दुखी
थे, लिहाजा
40 अध्यापकों ने यह
फैसला किया
कि वे
मुफ्त विश्वविद्यालय
खोलेंगे और
उसमें वॉलंटियर बनकर बिना
मेहनताने के
पढ़ाएंगे। अभी इस विश्वविद्यालय के छात्रों को डिग्री
नहीं मिलेगी,
लेकिन उन्हें
स्नातक, परास्नातक
और डॉक्टरेट स्तर की
एकदम वैसी
ही शिक्षा
दी जाएगी,
जैसी कि
ब्रिटेन के
आला दर्जे के संस्थानों
में दी
जाती है।
उनकी इस
मुहिम से
जुड़ने वालों
की संख्या दिनोंदिन बढ़
रही है।
यह विचार केवल
ब्रिटेन के
कुछ अध्यापकों
के मन
में आया
हो, ऐसा
नहीं है। जिस तरह से
दुनिया भर
में शिक्षा
महज व्यवसाय
या
'पण्य वस्तु' (कमोडिटी) बन गई है,
उसने यह
चिंता पैदा
कर दी
है कि
आने वाली
पीढ़ियों का आखिर क्या होगा? क्या शिक्षा सचमुच
गरीब की
पहुंच से
बहुत दूर
छिटक जाएगी जैसे की
लक्षण अब
स्पष्ट नजर
आने लगे
हैं?
भारत ही नहीं, यूरोप-अमेरिका में
भी यह
आम धारणा
है कि
उच्च शिक्षा
महंगी हो
रही है। शिक्षा-ऋण बेतहाशा
बढ़ रहा
है। उसकी
वसूली दिन-प्रतिदिन मुश्किल
होती जा रही है। इस तरह मुक्त
मंडी की
अवधारणा भी
धराशायी हो
रही है।
सपना यह
था कि मुक्त मंडी
यानी बाजारवाद
में सब कुछ बाजार
की शक्तियां
नियंत्रित करेंगी। जिसके पास
प्रतिभा होगी,
वह आगे
बढ़ेगा और
प्रतिभाहीन व्यक्ति पिछड़ता जाएगा, भले
ही वह
कितना ही
अमीर क्यों
न हो।
लेकिन हो
इसके उलट रहा है। जिसके
पास धन
है, पूंजी
है, वह
पढ़ रहा
है और
आगे बढ़
रहा है। बाकी लोग वंचित
रहे जा
रहे हैं,
भले ही
वे कितने
ही प्रतिभावान
क्यों न हों। इस व्यवस्था
में भी
प्रतिभाएं उसी तरह से वंचना
की शिकार
हैं जैसे कि इससे पहले
गत शती
के नौवें
दशक तक
की व्यवस्था
में थीं।
उसमें
धन का ऐसा नंगा नाच
नहीं था।
लेकिन यह
शिक्षा आज
पूरी तरह, नए सिरे
से संपन्नऔर विपन्न वर्ग
पैदा कर
रही है।
पिछले साल अमेरिकी
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा
था कि
‘मेरा सपना
है कि हर नागरिक को
विश्वस्तरीय शिक्षा उपलब्ध हो। यदि
यह एक
काम भी
हम कर
पाए, तो बहुत बड़ी
उपलब्धि होगी।’
ऐसे ही
मकसद से
वर्ष 2009 में अमेरिका के कैलिफोर्निया नगर में
पीपुल्स यूनिवर्सिटी
नाम से
एक मुफ्त
ऑनलाइन यूनिवर्सिटी शुरू की
गई। इसमें
छात्रों से
कोई ट्यूशन
फीस नहीं
ली जाती है, सिर्फ पाठ्य
सामग्री की
लागत भर
ली जाती
है। यहां
पाठ्य सामग्री
का स्तर तो ऊंचा
है, लेकिन
क्लास रूम
जैसा अनुभव
नहीं। यहां
भी प्राध्यापक लोग स्वयंसेवक ही
हैं, यानी
जो लोग
बिना मेहनताने
के पढ़ाना
चाहते हैं, वे ही यहां
सेवा दे
रहे हैं।
यह अच्छी
बात यह
है कि
उन्हें ऐसे
अध्यापक मिल रहे हैं।
असल में ऐसे
लोगों की
कमी नहीं
है, जो
घोर पूंजीवाद
के
इस युग में भी मुफ्त सेवा देने
को तत्पर
हैं। ऐसे
लोगों की
दुनिया में
सचमुच कमी
नहीं है, जो परोपकार
के भाव
से अपना
ज्ञान और
अनुभव बांटना
चाहते हैं।
इसलिए यदि आप किसी
नेक काम
के लिए
पवित्र भाव
से आगे
बढ़ते हैं,
तो लोग
आपकी मदद के लिए
स्वत: आगे
आ जाते
हैं। आखिर
पंडित मदनमोहन
मालवीय ने
गुलामी के उस दौर
में चंदे
से एक
राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खड़ा किया ही।
आजादी से पहले ही
गुरुकुल कांगड़ी
बना, डीएवी
आंदोलन खड़ा
हुआ। दुर्भाग्य
से
स्वतंत्रता के बाद
उच्च शिक्षा
को घोर
उपेक्षा का
शिकार होना
पड़ा। स्कूली शिक्षा में
तो कुछ
प्रयोग हुए
भी, कॉलेज
और विश्वविद्यालय
स्तर पर कोई खास काम
नहीं हुआ।
हमने यह
समझ लिया
कि सरकार
ही हमारी
भाग्य विधाता है, और हम
हाथ पर
हाथ धरे
बैठे रहे।
मसलन, दिल्ली
या उसके
आसपास उच्च शिक्षा एक बड़े
उद्योग के
रूप में
विकसित हो
गई है।
इसी तरह
उत्तराखंड में देहरादून और
हरिद्वार के
आसपास ही
ज्यादातर विश्वविद्यालय
और निजी संस्थान हैं। बाकी
इलाके ऐसे
संस्थानों से वंचित हैं। पूंजी
की भी
अपनी एक सामाजिक जिम्मेदारी
होती है,
पर निजी
विश्वविद्यालयों के रूप में उग आई ज्यादातर दुकानें
आम जनता
को लूटने
के अड्डे
बन गई
हैं। इससे
पहले कर्णाटक एवं महाराष्ट्र
में तकनीकी
शिक्षा का
व्यवसाय खूब
पहला फूला। इंजीनियरिंग और मेडिकल
कॉलेज धड़-धड़ खुलने
लगे। आज
देश में
जितने हायर सेकेंडरी स्कूल नहीं
हैं उतने
इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। मैनेजमेंट की शिक्षा का भी
यही हाल
है। पर
ये लोग
सिर्फ पढ़े
लिखे बेरोजगार
युवा भीड़ कड़ी करने में
सहायक हो
रहे हैं
रोजगार दिला
पाना इनके
वश में
नहीं हैं।
फिलहाल सरकार के
सामने दो
चुनौतियां हैं- एक तो शिक्षा
को अनाप-शनाप ढंग से महंगे होने
से रोकने
की और
दूसरी, उसकी
गुणवत्ता बनाए
रखने की।सरकार को यह बात
समझनी चाहिए
कि ज्यादातर
निजी विश्वविद्यालयों
का ध्येय
मुनाफा कमाना है। वे
ऐसी ही
जगह विश्वविद्यालय
खोलना चाहते
हैं, जहां
के लोगों के पास खर्च
करने को
पर्याप्त पैसा
हो। वे
गरीब-गुरबों,
गांव-देहातों
या दूर-दराज के
लोगों के
लिए विश्वविद्यालय
नहीं बनाना
चाहते। जो
लोग पहले से ही धनी
हैं, वे
उन्हीं के
बच्चों को
पढ़ाना चाहते
हैं। इसलिए
उच्च शिक्षा के क्षेत्र
में एक
बड़ी खाई
पैदा हो
गई है। शिक्षा
को महज
मुनाफेका धंधा समझने
की प्रवृत्ति
ठीक नहीं
है। विदेशी
विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे खुल चुके हैं। यदि देसी
विश्वविद्यालयों को संभालना ही इतना मुश्किल पड़ रहा
है, तो
विदेशी विश्वविद्यालयों
को संभालना
और भी
मुश्किल हो जाएगा।
आलोचक और वरिष्ठ कवि है
जिनका नया संस्मरणात्मक उपन्यास कथा रिपोर्ताज
पाँव ज़मीन पर बोधि प्रकाशन जयपुर से
प्रकाशित हुआ है.उनके बारे में विस्तार से
संपर्क ३४/242 प्रतापनगर,सेक्टर
3 जयपुर.303033 ;राजस्थान
ई-मेल shailendrachauhan@hotmail.com,
मो-07838897877
संपर्क : 34/242, सेक्टर- 3, प्रतापनगर, जयपुर- 302033
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