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अरुण देव |
"12 नवंबर, 2012
बधाई समालोचन..
यह उन दिनों की बात है जब मैंने समालोचन पढ़ना शुरू किया था।समालोचन और सबद
मेरी प्रिय पत्रिकाएँ थीं।फिर मेरा परिचय ई पत्रिका जानकी पुल से हुआ।
प्रतिलिपि को जाना। एक के बाद एक कई अच्छे ब्लॉग खुलते गए। शिरीष मौर्य का
अनुनाद,असुविधा,गीत का अपना ब्लॉग, बुद्धू बक्सा ..
समालोचन पढ़कर
मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि इसके पेज में किताबों की ख़ुशबू नहीं है या पन्ने
पलटने की सुपरिचित आवाज़ की कमी है,जो निगाहों के स्पर्श से स्पंदित होती है
या भीगती है। समकालीन कविता, कहानी और आलोचना को मैंने इसी झरोखे से देखना
शुरू किया।
करीब दो साल पुरानी बात है। मैंने अपनी कविताएँ सबद
के लिए भेजीं।मुझे तब कविता का क ख ग भी पता नहीं था। बाद में जब समालोचन
पर लगातार कई पोस्ट पढ़ीं और मुख्य धारा को पहचानने व बूझने की समझ पैदा हुई
तो अपने उस बचपने पर हंसी आई और खीज भी। शायद संपादक भी हँसे होंगे।
मैं हर तीसरे दिन अरुण की वॉल पर जाती और देखती कि आज क्या पोस्ट है
..धीरज से उसे पढ़ती और मन ही मन संपादक की इज्जत करती। अरुण को व्यक्तिगत
रूप से मैं नहीं जानती थी तब। आदतन एक दिन जब मैं अरुण की वॉल पर गई तो
वहां नयी पोस्ट नहीं थी। थोड़ी बेचैनी महसूस हुई। अगले दिन का इंतजार किया
..उस दिन भी वही पुरानी पोस्ट ..उसके अगले दिन भी।रहा नहीं गया तो संपादक
को सन्देश डाला कि पोस्ट अभी तक बदली नहीं है और मैं समालोचन की नियमित
पाठक हूँ। अरुण से यह मेरा पहला परिचय था।
समालोचन को लेकर मैं
बहुत possessive होती चली गई। ठीक उस तरह जैसे बचपन में और युवा होने तक घर
में आने वाली पुस्तक, पत्रिका को मैं सबसे पहले हड़पने की फिराक में रहती
थी। बड़े भाई से कई बार मार भी पड़ जाया करती थी। अपनी उम्र के सैतालीसवें
पड़ाव पर एक बार फिर मैं वहीँ लौट आई हूँ ....हाँ, यहाँ बड़े भाई पीटने को
नहीं खड़े हैं।
समालोचन से मैंने बहुत कुछ सीखा ..पढ़ने का धीरज
पाया।पुरानी आदत थी ..वह छूट गई।अकसर एक साथ कई किताबें शुरू करने की। एक
साथ कई किताबें खरीदने की। इस चक्कर में कई किताबें 20 पृष्ठ से आगे पढ़ी ही
नहीं गईं। उनमें आज तक bookmark लगा हुआ है।कोर्स भी मैं ऐसे ही पूरा किया
करती थी।पर इधर एक साल में बदलाव आया है।बूढ़े तोते ने अपनी उतावली पर रोक
लगाई है।
लेखन का सलीका,उसकी अपनी एक विशिष्ट बुनावट,उसकी ध्वनियाँ
सामान्य से अलग होती हैं ..उसकी केमिस्ट्री और शब्दों की एल्केमी मैं यहाँ
से, समालोचन से सीख रही थी। ..दिन की शुरुआत यहीं से होती है और फिर शाम तक
कोई अधूरी छूटी पुस्तक चल रही होती है ..आने वाले दस वर्षों तक चश्मा नहीं
चढ़ेगा ..इस बात का अहंकार तो कर सकती हूँ और इस बात का अभिमान कि अपनी
भाषा के सशक्त हस्ताक्षरों को काफी करीब से देख रही हूँ ..उन लेखकों,
आलोचकों को पढ़ पा रही हूँ जो अहमदाबाद के इस अलग-थलग कोने में दिखाई-सुनाई
नहीं पड़ते। हिंदी की पत्रिकाएँ भी यहाँ दिखाई नहीं देतीं। जिन पत्रिकाओं को
मंगवाने की जुगत लगाई ..पैसा भी खर्च किया वह डाक विभाग मुझ तक नहीं
पहुंचा पा रहा है।हिंदी का यह पाठक आज नेट के माध्यम से कम से कम 23 साल
पहले छूटी भाषा से जुड़ पा रहा है।पढना भी एक लत होती है।लिखना भी एक लत ही
है।कहीं भी कुछ भी मिल गया पढ़ लिया या लिख लिया;पर अच्छी पत्रिकाएँ आपको
एलीमिनेशन सिखाती हैं। क्या पढना है?कितना पढना है?क्यों पढना है? इनकी
अंदरूनी व्यवस्था आपको अनुशासित करती है।नेट की पत्रिकाओं को मैं कम नहीं
आंकती।कम से कम इनमें पेपर की बचत है।आसानी से आपको मिल रही हैं।नियमित रूप
से आप पढ़ रहे हैं।बहुत सारा नहीं ..
समालोचन को मैं
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की कलात्मक साहित्यिक पत्रिका कहूँगी जिसका जीवन से
सीधा सरोकार है।कभी कोई चित्र किसी कहानी या कविता में set induction की
तरह आता है कि बहुत देर तक आप(यानी पाठक) इस चित्र पर ठहरते हैं और फिर
कृति तक आते-आते शब्द सफ़रनामा बन जाते हैं। प्रत्यक्षा की कहानियों में
चित्रों के संयोजन ने गहरी छाप छोड़ी।चित्र केवल बच्चों को ही प्रभावित करते
हैं क्या? फिर यहाँ आये इन चित्रों का अपना अर्थ है।चित्र यहाँ एक ख़ास
चित्रकार को एक ख़ास लेखक के साथ जोड़ रहे हैं।एक ख़ास तस्वीर आपको ख़ास माहौल
में ले जा रही है।
मैं शुक्रगुज़ार हूँ उन सभी हिंदी नेट पत्रिकाओं
की जिनके माध्यम से मैं फिर से जीवन और साहित्य से जुडी।अपने एकांत में
मैंने नीलेश को खूब पढ़ा।अनामिका पर मैं लट्टू हुई।अनीता वर्मा को धीरे-धीरे
आत्मसात किया।सविता सिंह को दोहराया।प्रत्यक्षा ने मुझे विस्मय दिया और
अभी तक कृष्णा सोबती की शाहनी के दर्द में डूबे एक किरदार (शाहनी का किरदार
अकसर मैं खुद में पाती हूँ।)को अल मस्ती सिखाई मनीषा ने। सुमन जी के
मिथकों में मैं आज की नयी औरत को देखती रही।
मैं जानती हूँ
'समालोचन' आप अरुण की संतान सदृश हैं , जिसके लिए अरुण ने अपने लेखन का समय
तुम्हें दिया है। अरुण के भीतर का कवि कभी म्लान होता नहीं दीखता, शायद
इसका कारण तुम्हारे प्रति अरुण का अगाध प्रेम हो ..उन लेखकों के प्रति अरुण
का प्रेम हो या पाठकों के प्रति गहरा लगाव, या इससे भी आगे साहित्य के लिए
निस्पृह भाव से समर्पण जो उन्हें ऊर्जावान बनाता रहा है।
समालोचन तुम्हारे प्रति मेरी अपनी भी प्रतिबद्धताएं हैं, बतौर पाठक ।
बहुत सारी उम्मीदों के साथ
युवा कवयित्र
अहमंदाबाद में निवास
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमन के सुन्दर दीप जलाओ******प्रेम रस मे भीग भीग जाओ******हर चेहरे पर नूर खिलाओ******किसी की मासूमियत बचाओ******प्रेम की इक अलख जगाओ******बस यूँ सब दीवाली मनाओ
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंत्यौहारों की शृंखला में धनतेरस, दीपावली, गोवर्धनपूजा और भाईदूज का हार्दिक शुभकामनाएँ!
अपर्णा जी का लेख काफ़ी नॉस्टैल्जिक है. वे इन दिनों बहुत ही अच्छा लिख रही हैं. उन्हें बधाई.
जवाब देंहटाएं'समालोचन' को वर्षगांठ पर हार्दिक शुभकामनाएं और अनेक बधाइयाँ.
कमलानाथ