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(1)बैलगाड़ियों के पाँव
कितने तेज कदम थे उनके
--समय से भी तेज--
कि समय की पकड़ में भी
वे आ न सके कभी,
यांत्रिक वाहनों को बहुत पीछे छोड़
वे खो गए समय के दायरे से
एकबैक बाहर छलांगकर
तथाकथित इतिहास के अरण्य में
और जाते-जातेमिटाते गए
अपने पाँव के निशाने भी,
ताकि इस सभ्यता की छाया तक
उन निशानों पर हक़ न जमा सके
और हम उन पर चलकर
कोई आदर्श भी न बना सके
सच, पीछे मुड़कर भी न देखा
सोचा भी नहीं
कि हमने उन पर चढ़कर सदियों तक
देशी-विदेशी संस्कृतियोंमें असीम यात्राएँ की थीं
हम तो उनके साथ थे
उन पर आश्रित थे
उनके अपने थे
जब वे गए तो गलियाँ खूँखार सड़कें हो गईं
खेत-खलिहान बहुमंजिलेआदम घोसले हो गए
मोहल्लों के मकान धुआँ उगलती फैक्ट्रियाँहो गईं
पेड़ों के सिर कलम हो गए
और उनके धड़ भट्ठियों में झोंक दिए गए,
गाँव, शहर के पीछे बेतहाशा भागते दिखे
और पगडंडियाँप्रायः द्रुतगामीमोटर-गाड़ियों के नीचे
दब-पिचकर दुर्घटनाग्रस्त हो गईं
सच, कुछ मन-भाए मौसम दूभर हो गए
क्योंकि उनने गौरैयों, नीलकंठों, शुग्गों, मोरों के सपनों में आना छोड़ दिया था
उनकी याद में गीधों तक को उदास देखा है
और वे उन्हें जोहने कहीं ओझल हो गए।
(2)जमींदोज़ पुरखे
देखो!
मेरे पुरखे
दब गए हैं
कहीं
यहीं कहीं
यहाँ वट था
वहाँ झरना था
नीचे तलछट था
प्रभात में संवहनशील मलय था
नीम के घर में गोरैये थे,
बादलों की छत के नीचे
कुलांचे मारते गीध थे,
नीचे आँगन था
हहराते प्रदेश का
देखो!
मेरे पुरखे
दब गए हैं
कहीं
यहीं कहीं
यहाँ उनचास योजन तक
विस्तारित हैं
बेढब मॉल
जिनके कदमों के आगे
हजारों मील तक बिछे हैं
तारकोली कारपेट
और उनके नीचे चींख रहे हैं
कुलबुलाते जंगलों के शव
देखो!
मेरे पुरखे
दब गए हैं
कहीं
यहीं कहीं
जहाँ सोंधी शामें थीं
झरबेरी के घोसलों में
ग़ज़ल गाते बया थे
आम्र-उद्यानों में नृत्यरत कोयलों की
छेड़ी गई पंचम रागनियाँ थीं
जहाँ वृक्ष-स्तंभों पर टिकी
हरियाली छत के नीचे
बाल-गोपालों के लिए
सजीले बरामदे थे
वहाँ ब्रोकर-ट्रेड मार्केटों के नीचे
चिर-निद्रा में सोए हुए हैं
हमारे पुरखे
जो कभी न जग पाएंगे
किसी एकाध कवि के गुहार पर,
उफ़्फ़! मेरे पुरखे
कैसे भूगर्भीय शिलाओं में
चिपट गए हैं
यहाँ-वहाँ
जहाँ-तहाँ
देखो!
मेरे पुरखे
दब गए हैं
कहीं
यहीं कहीं
(3)मन की मुट्ठी में गाँव
मन की मुट्ठी में
जो बूढ़ा गाँव है
बैसाखियों के सहारे
खेत की मेढ़ों पर डगमग चलते हुए
वक़्त की आमरण मार-लताड़ से भी
छूटकर बिखरता-बिसरता नहीं,
पड़ा रहता है
पूरी सक्रियता से
खाते-पीते, सोते जागते
हँसते-गाते, रोते-रिरियाते
शहर के सुदूर परित्यक्त ओसारे में
बिटिया के ब्याह की चिंता में
नीम-तले चिलम सुड़कता गाँव ग़मग़ीन है
करेंट लगने से गीध की मौत पर,
अनाज पछोरता गाँव उत्सव मना रहा है
सूखे इनार में फ़िर पानी आने पर,
पनिहारिनों की गुनगुनाहट सुनता
गाँव झूम-गा रहा है
परधान की किसी मुनादी पर,
गंगा-नहान से लौटता गाँव धर्म-स्नात है
मज़ार पर फ़क़ीर की बरसी में,
लू से अधमरा गाँव खा-अघा रहा है
बाबा के डीह पर भोज-भंडारे में
हाट-मेले से लौटकर
गाँव जमा हुआ है स्टेशन पर
ऊँची हील की सैंडिल पहनी लड़की को देखने
गाभिन गायों वाला गाँव पगुरा रहा है
अलहदी बरखा के बिसुकने पर,
खाली खलिहानों में क्रिकेट मैच खेलता गाँव
सपने पाल रहा है
शहर के साथ लंगोटिया याराना निभाने का
मन की मुट्ठी खुलने पर भी
गाँव पड़ा रहता है सुकून से वहीं,
मन के अछोर परास में
ओझल-अनोझल फिरता रहता है
सिर पर अंगोछा बांधे
मुँह में बीड़ी दबाए
मन की मुट्ठी में
जो बूढ़ा गाँव है
ज़िंदा रहेगा
मन के गेह में
आबाद रहने तक।
डा. मनोज श्रीवास्तव
लिखी गईं पुस्तकें-पगडंडियां(काव्य संग्रह),अक्ल का फलसफा(व्यंग्य संग्रह),चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह),धर्मचक्र राजचक्र(कहानी संग्रह),पगली का इन्कलाब(कहानी संग्रह),परकटी कविताओं की उड़ान(काव्य संग्रह,अप्रकाशित)
आवासीय पता-.सी.66 ए नई पंचवटीए जी०टी० रोडए ;पवन सिनेमा के सामने,
जिला-गाज़ियाबाद, उ०प्र०,मोबाईल नं० 09910360249,drmanojs5@gmail.com)
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