- सफदर हाशमी के शहादत दिवस 1 जनवरी
- सफदर की याद में ‘चौराहे पर’ नाटक
ऐसी ही प्रतिबद्धता और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का साहस ही नुक्कड़ नाटकों को अन्य कला विधाओं से अलग करता है। रंगमंचीय तामझाम से दूर, थोड़ी.बहुत साज.सज्जा के साथ बिल्कुल छापामार तरीके से कलाकारों का किसी चौराहे, नुक्कड़, मुहल्ले, स्ट्रीट कार्नर या किसी जन संकुल क्षेत्र में इकठ्ठा होना और अपने अभिनय द्वारा जन जागृति का संदेश देना - नुक्कड़ नाटक की यही पहचान है। आंदोलनों से ऊर्जा लेना तथा अपनी कला द्वारा आंदोलनों को गति देना, यह नुक्कड़ नाटक की खासियत है। कहा जाय तो नुक्कड़ नाटकों का जन्म जन आंदोलनों से जुड़ी कला विधा के रूप में तथा नाटक को जनता तक पहुँचाने की जरूरत के रूप में हुआ।

हम देखते हैं कि हिन्दी भाषी प्रान्तों से लेकर पंजाब तक नुक्कड़ नाटक खेले गये। गुरुशरण सिंह, राजेश कुमार, रमेश उपाध्याय, शिवराम, आतमजीत, शम्सुल इस्लाम, अनिल मिश्रा, राधाकृष्ण सहाय, हरी जैसे दर्जनों लेखकों ने नुक्कड़ नाटक लिखे। जनम, जसम, दस्ता, हिरावल, नवचेतना, दिशा, ललकार, लहर, जागर जैसी सैकड़ों की संख्या में नाट्य दल अस्तित्व में आये। न सिर्फ शहरों व महानगरों में, बल्कि कस्बों व गांवों में भी नाट्य दलों का गठन हुआ। यह दौर था जब नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन ने आंदोलन का रूप ले लिया था और 80 से लेकर 90 के बीच यह अत्यन्त लोकप्रिय कला माध्यम था जिसे जनता के बीच अच्छी.खासी लोकप्रियता हासिल थी। इसे नुक्कड़ नाट्य आंदोलन का असर ही कहा जायेगा कि रंगमंच से जुड़े कई कलाकार व निर्देशक भी उन दिनों नुक्कड़ नाटक से जुड़ गये।
पर आज नुक्कड़ नाटकों की हालत वैसी नहीं है। कोई आंदोलन नहीं है। यहाँ सन्नाटा जैसी स्थिति दिखाई पड़ती है। आमतौर पर नुक्कड़ों पर नाटक के नाम पर जो प्रदर्शन हो रहा है, उसका नुक्कड़ नाटक जैसी जन नाट्य विधा से कुछ भी लेना देना है। इस लोकप्रिय कला माध्यम का उपयोग आज सरकारी.गैरसरकारी कम्पनियों व संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है जिनका मकसद अपने उत्पाद व कार्यक्रम का प्रचार करना है। जहाँ तक सत्ता व व्यवस्था के चरित्र की बात है, वह कहीं से भी जन पक्षधर नहीं हुई है। बल्कि उसका चरित्र और भी जन विरोधी हुआ है। फिर नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में पसरा ऐसा सन्नाटा क्यों ? यह प्रतिबद्ध कलाकारों के समक्ष सवाल भी है और चुनौती भी।
आज का दौर ऐसा है जब दुनिया को युद्धों में झोंका जा रहा है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, भ्रष्टाचार कैंसर का रूप ले चुका है, आम आदमी मंहगाई व बेरोजगारी से परेशान है, महिलाओं पर हिंसा बढ़ी है, मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं और शोषण व अन्याय पर आधारित इस पूँजीवादी व सम्राज्यवादी व्यवस्था को विकल्पहीन बताया जा रहा है तब नये विकल्पों की तलाश कला व संस्कृति की अनिवार्यता बन गई है। भले ही नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन ठहराव का शिकार हो लेकिन आज जिस तरह जन आक्रोश जगह जगह फूट रहे हैं, देश की जनता स्वतः स्फूर्त तरीके से सड़कों पर आ रही है, इस हालात ने नुक्कड़ नाटक विधा के पुनर्जीवन के लिए फिर से जमीन तैयार कर दी है। इस दिशा में प्रयास भी शुरू हो गये हैं।

यही नहीं नुक्कड़ नाटकों की कला, इसकी विषय वस्तु व विचार पक्ष को लेकर विमर्श भी चल रहा है। इस विमर्श को केन्द्रित करते हुए अरविन्द कुमार के संपादन में ‘नुक्कड़ पर नाटक’ शीर्षक से पुस्तक आई है जिसमें इस जन नाट्य विधा के विविध पहलुओं विचार किया गया है। इसकी मान्यता है कि नुक्कड़ नाटक कला व विचार का आंदोलन है। यह नुक्कड़ की नई संस्कृति के निर्माण की कोशिश है जहाँ आदमी वर्ग, वर्ण, जाति, संप्रदाय के घेरे से बाहर निकलता है। इन कोशिशों को देखते हुए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले दिनों में हमें नुक्कड़ों और चौराहों पर विचार और आंदोलन के ऐसे नाटक देखने को मिले जो आम आदमी की समस्याओं व संघर्ष की कहानी कहते हो तथा उन्हें जागरूक बनाने वाले हों।
राजाजीपुरम,
लखनऊ - 226017 है.
मो-09807519227
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें