कविताएँ:हेमंत शेष

जून-2013 अंक 

(हमारी वैश्विक विरासत के दर्शन के ज़रिये इतिहास में झांकते हुए गहरे अवबोध की खुशबू देती ये कविताएँ  महज केवल  कविताएँ ही नहीं हैं।अतीत के बखान के साथ ही आज के यथार्थ को बयान करने का ये अंदाज़ हेमंत शेष की अपनी विशिष्टता लगती है।देशाटन की उनकी आदत से उपजी ये कवितायेँ हमारे जून अंक की बड़ी उपलब्धि मानते हुए यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं।उन्हें शुक्रिया इस बात का भी कि अपनी माटी की शैशवास्था में वे अपनी रचनाएं हमें दान कर रहे हैं-सम्पादक)

रणथंभोर

जब तक इसे देखें यह एक दृश्य है
पहाड़ किसी कछुए की पीठ
बढ़ी हुई हजामत जंगली घास
चकित चितकबरे हिरण
आसमान एक तम्बू लगातार

किसी नींव के बगैर
मैं बिल्कुल नई हवा में
खड़ा हूँ: अभी-अभी जन्मा

बुझती जा रही है दिन की लालटेन
और वापस लौटने की मजबूरी
सामने है

हर दृश्य से क्यों लौटना होता है
जानता नहीं अभी
लौट कर जब जाऊँगा
हवा का रंग देख कर चख कर जंगल का स्वाद
सूंघ कर वन-इच्छाओं की गंध
क्या ले जाऊँगा साथ
क्या कहूँगा मित्रों से

दुनिया की
जिसे कुछ घंटे पीछे छोड़ गया था कैसी होगी शक्ल
क्या साथ ले जा सकते हैं हम
यहां से अद्भुत संस्मरण केवल या पूरे नौ सौ साल

ये पत्थर या सोचते हैं हमारे बारे में
नीलगायों की प्यास को ले कर 
तालाब की धारणा क्या है
झड़बेरियों के पुष्प बिना प्रयास फूटते हैं
वे ही यहां सबसे ज्यादा वाचाल हैं
सबसे ज्यादा लाल

झींगुर अविराम बातें कर रहे हैं
और पेड़ों पर रिस रहा है अंधकार
खरबूजे की कटी हुई फाँक की याद दिलाता
चन्द्रमा उदित हुआ चाहता है

बस कुछ ही क्षण और कुछ ही देर में
यह कविता खत्म हो जाएगी
बिना उपसंहार

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द्वारकाधाम: तीन कविताएं

एक

यों कहने को तो मारी जा चुकी हैं
ओखा के सागर की मछलियां
पर धरती के नथुनों में छोड़ गया है
अजस्त्र दुर्गंध
उनकी अनसुनी चीखों का शाप

दो

डालते ही समुद्र 
तुम्हारा हाथ झटक देता है
इसी ने गुपचुप निगले हैं
न जाने कितने ही साम्राज्य और सभ्यताएँ
लहर आती है सागर से तट तक
लौट कर जाती नहीं वही फिर समुद्र में
तुम समयातीत होते हो
हर समुद्र के सामने
फिर यह लहर तो कच्छ के सागर की है
इसके लिए
सचमुच बहुत छोटा है
तुम्हारा हाथ


तीन

काल के निस्सीम सागर में
निरीह पृथ्वी के बचे हुए टुकड़े की सूरत में
कच्छ की खाड़ी के किनारे
लहरों पर लगभग टँगा दिख रहा है आर्यावर्त का 
चौथा-धाम

हे पार्थ
तुम केवल एक टापू या ‘बेट’ कह कर इस क्षण के बाद
इसे अनदेखा न कर सकोगे

भयावह है यह देखना
बेट-द्वारका अब एक जगह भर है
जिस तक पहुँचने के लिए वैष्णवजन
जैटी पर समुद्र के थपेड़े खा रही नौकाओं में
चढ़ रहे हैं
सोने के महलों और कंगूरों को बहा कर
ले जा चुकी हैं अनन्त गर्भ में लहरें
इतिहास की रेत में उनके अक्स झिलमिला रहे हैं
तीर्थयात्रियों को नहीं इन सब से सरोकार
वे द्वारकाधीश के दर्शनों के बाद
काल्पनिक मोक्ष की आभा से दीप्त
डगमगाती हुई काठ की नावों में ठसाठस भरे वापस
अब ओखा की तरफ लौट रहे हैं

अक्सर हमारे उत्कर्ष का अन्त ऐसा ही
दारूण होता है हर इतिहास में
दीप्तिमान् और दयनीय पीछे छूटते
ओ महान् द्वारकाधाम

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किला जयगढ़: सात कविताएं

1

नीलचिड़ियों के भीतर से बीत रही
कोई दुपहरी नहीं
एक खाली पड़ी बावड़ी है-यह दिन

वर्ष बुर्जों और गोखों में छिप कर
बैठ गए हैं
घायल छापामार योद्धाओं की तरह

ढलती धूप में
बज रहे हैं
सूखी चट्टानों के कंकाल

किस ब्रह्मराक्षस की प्रतीक्षा में है
सदियों से
काल-भैरव ?
दिया-बुर्ज पर अब कोई नहीं जलाता रोशनियाँ
दो सौ सत्तर बरस से
ठण्डी पड़ी है
यहीं
संसार की सबसे बड़ी तोप-
‘जयबाण’ !

2

कितना भी गहरा खोदो
हाथ नहीं लगता खजाना
अगर वह वहाँ नहीं बचा

निश्चय ही कोई
बीजक गलत था, उसका
काल नहीं . . . .

कुंड का चालीस हाथ गहरा काला जल
जयगढ़ के चौक में खड़ा
हर लालच का मुँह चिढ़ाता रहेगा अब से
हर इतिहास में


3

ठीक मेरी ही तरह
भूलभुलैया की चक्करदार दीर्घाओं की
गुत्थी सुलझा कर तुम भी
कहीं तो पहुंचोगे अन्ततः
शायद उसी पछतावे और अवसाद पर

बरसों से दीवारें जहाँ थीं
वहीं हैं, आज भी

व्यंग्य से देखता रहता है
लक्ष्मी-विलास की बेजान शाही तस्वीरों को
टेढ़ा काल-भैरव !


4

सतबहनें क्या खोज रही हैं
इस रेत में ?
कोई स्मृतिचिन्ह नहीं
व्यस्त सैलानियों के लिए
पुराने पत्थरों की
सिर्फ एक और इमारत है यह

कवियों के लिए
आत्मा के उजाड़ में
झाँकने की समयातीत खिड़की


5

जल गई है
घास 
और हवा में उजड़ी हुई धूप के चकते
हिल रहे हैं
ढूंढार चट्टानों पर खड़ा है
हताश जयगढ़

वैभवशाली इतिहास के पटाक्षेप पर
यहीं से दिखती होगी
‘जयबाण’ की नाल को कभी
आमेर की सुरम्य घाटी
अब जयपुर शहर की धुंधुआती आकाश-रेखा ही देख सकता हूँ
प्रसन्नता है मुझे
इस क्षण
सवाई जैसिंह का दुःख मेरे दुःख से बहुत कम है


6

अगर न भी जलाएं
इसकी देहरी पर 
धूपबत्ती या दिया
यह शिव मंदिर, शिव मंदिर ही कहलाएगा
भविष्य के जयगढ़ में भी
काल नहीं सुनता किसी की भी प्रार्थना
कल हम सुनेंगे
न जाने किस किस के एकांत ?


7

प्रिय विद्याधर,
आप किस लोक में हैं ?
शस्त्र और शास्त्र अंततः हार ही जाते हैं
और 
बुर्ज एकाएक
टिकट-खिड़कियों में बदल दिए जाते हैं
सिर्फ लोहा बूढ़ा होता है
कपाटों का
और
एक अट्टहास गूंजता रहता है
बरसों तक
ठहरी हुई हवाओं में।


(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।इससे पहले के मासिक अंक अप्रैल और मई यहाँ क्लिक कर पढ़े जा हैं।आप सभी साथियों की तरफ से मिल रहे अबाध सहयोग के लिए शुक्रिया कहना बहुत छोटी बात होगी।-सम्पादक




हेमंत शेष
(राजस्थान में प्रशासनिक 
अधिकारी रहे साथ 
ही साहित्य जगत का एक बड़ा नाम है।
लेखक,कवि और कला समीक्षक
 के नाते एक बड़ी पहचान।
इनके कविता संग्रह  'जगह जैसी जगह' 
को बिहारी सम्मान भी मिल चुका है।
अब तक लगभग तेरह पुस्तकें 
प्रकाशित हो चुकी है।
हाल के दस सालों में सात 
किताबें संपादित की है।
साथ ही
 'राजस्थान में आधुनिक कला' 
नामक 
एक किताब जल्द आने वाली है।
'कला प्रयोजन' पत्रिका के 
संस्थापक सम्पादक हैं।
सम्पर्क सूत्र
40/158,मानसरोवर,जयपुर-302002
फोन- 0141-2391933 (घर),मो:09314508026
ईमेल-hemantshesh@gmail.com




2 टिप्पणियाँ

  1. अति सुंदर, लाजवाब रचनाएं हैं

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  2. बहुत उम्दा कवितायेँ ..... इतिहास को बखानती हुई एक नए और अद्भुत अंदाज में ......हेमंत जी बहुत बधाई इतनी खूबसूरत कविताओं के लिए

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