कविताएँ:चंद्रेश्वर

जुलाई-2013 अंक 

नाटक का अजूबा दृश्य कोई

ये किसी घर के भीतर का दृश्य है या फिर
किसी नाटक का अजूबा दृश्य
चार चेहरे दिखते हैं
चार दिशाओं में
चारों जुटे हैं संवाद में
दूर-दराज़ के लोगों के साथ
जिन्हें कभी देखा-सुना नहीं
अपने आसपास हीं रच डाली है इन्होनें
संवादहीनता की स्थितियां

इस दृश्य को देखकर खौफ में हूँ मैं
हूँ बेहद विचलित
मुश्किल हो रहा संभाल पाना
खुद को ऐसे में !
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हमारा मसीहा नहीं कोई

नरेन्द्र मोदी हो या राहुल गाँधी
या कोई ओर
हमारा मसीहा नहीं कोई भी
इस विपदा में
सब के सब मोहरे हैं
बदलते वक्त की सियासत के
अब और कितना छला जा सकता है हमें !
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आदमी की पहचान

रिश्ते पहचान होते हैं
आदमी की जिंदादिली के
वो मायने रखते हैं
टूटने,बिखरने,स्थिर होने के बीच भी
कुछ रिश्ते पल भर के होते हैं
तो कुछ बने रहते हैं ताज़िंदगी
कहीं किसी हिंदी कहानी में  पढ़ा एक वाक्य
कौंधता है जेहन में बार-बार कि
तयशुदा होती है ज़िन्दगी में
हर रिश्ते की एक मियाद !
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अजीब दृश्य है यह

अजीब दृश्य है यह
तेज़ रफ़्तार पहाड़ी नदियों की प्रलय-धारा की तरह
हहराता आगे की ओर बढ़ता
मिटाता जाता असंख्य पहचानों, इंसानी बस्तियों
जंगल, पहाड़,श्रम, खेत की फसलों, भाषाओँ, बोलियों ...
साहित्य, संस्कृतियों, इतिहास और इन्सान होने की गरिमा को
सब कुछ को तहस-नहस करता हुआ

अजीब दृश्य है यह
बदलता हुआ
हमारे आस-पास की भूमि को समतल में

चीज़ों और उच्च तकनीक से लदे-फदे
हम सब खोते जाते अपनी स्मृतियाँ, नसीहतें
जो पुरखों ने सौपीं थीं हमें
प्यार और जतन से
ज़िन्दगी की जंग बखूबी लड़ते हुए! 
                           []

यह एक सही वक्त नहीं है क्या

यह एक सही वक्त नहीं है क्या
पीछे पलट कर देखने का
सोचने का
क्या सचमुच हमने बना नहीं डाला
विकास को विनाश का पर्याय!
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हिमालय का गुस्सा

बेहद दुःखद है
हिमालय का गुस्सा
उतारू होना इसकी नदियों का
बदला लेने के लिए

इस गुस्से में शामिल होना
धरती और आकाश का
तड़तड़ाहट के साथ
फट रहे बादलों का बदल जाना
प्रलयंकारी दृश्य में
दुःखद है

आखिर चीटीं भी आती है गुस्से में
जब पड़ता है खतरे में उसका वजूद
वह मार डालती है विशालकाय हाथी को
हिमालय तो हिमालय है फिर भी!
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कितने आसपास

अभी धूप थी कितनी तेज़
अब हो रही बारिश मूसलाधार
अभी-अभी दिख रही थी बादलों में
आकृतियाँ तरह-तरह की
इच्छा हो रही थी शामिल होने की उनमें

अभी-अभी फट पड़े बादल
गुस्से में चीखते हुए

कितने आसपास हैं
सृजन और संहार !
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मनुष्य-लीला

हम बार-बार उजड़ते हैं
तो बसने की कहानियां भी दुहराते हैं
बार-बार
ये और कुछ नहीं बस
लीला है मनुष्य की
अपरम्पार !
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यही है वो चीज़

हजारों लाशों के ऊपर बैठे आदमी के भीतर भी
बची रहती है उम्मीद
किसी कोने में
वह मौत को बदलना चाहता है
ज़िन्दगी में
यही है वो चीज़
जो आदमी को बनाती है
आदमी!
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ख़बरें जो बची रह जाती हैं

हज़ारहा अख़बारों, टी.वी., न्यूज़ चैनलों में रही
ख़बरों के अलावा भी
बची रह जाती हैं
कुछ ख़बरें
दमन, पीड़ा और प्रतिरोध की
वे बची रहेंगी अब भी
छटपटाती, सिसकती और चीखती
किसी कोने-दराज़ में दबी...
जबकि जमाना है सोशल मीडिया का भी

उन ख़बरों तक नहीं पहुँच पायेगा
जब कोई
तब किसी कवि की निगाह जाएगी ज़रूर
उन पर
फिर वह दर्ज करेगा उन्हें
शिद्दत से अपनी कविता में !
                    []

चंद्रेश्वर 


30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म। पहला कविता संग्रह 'अब भी' सन् 2010 में प्रकाशित। एक पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' 1994 में प्रकाशित। 'इप्टा आन्दोलन : कुछ साक्षात्कार' नाम से एक मोनोग्राफ 'कथ्यरूप' की ओर से 1998 में प्रकाशित। वर्तमान में बलरामपुर, उत्तर प्रदेश में एम.एल.के. पी.जी. कॉलेज में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर। 

पता- 631/58 ज्ञान विहार कॉलोनी,कमता, चिनहट, लखनऊ,उत्तर प्रदेश, पिन कोड - 227105, मोबाइल नम्बर- 09236183787

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