नयी पुस्तक:डॉ. रेणु व्यास की पुस्तक 'दिनकर:सृजन और चिंतन '

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
अक्टूबर-2013 अंक 
छायांकन हेमंत शेष का है

(चित्तौड़ की डॉ. रेणु व्यास के इस शोध को सिग्नेचर बुक्स इंटरनेशनल प्रकाशन,दिल्ली ने एक पुस्तक के रूप में छापा है. जिसका  है शीर्षक है 'दिनकर:सृजन और चिंतन ' .अपनी माटी परिवार जुडी रेणु जी को उनकी पहली पुस्तक के आने के क्रम में अनंत शुभकामनाएं,पुस्तक की  प्रस्तावना में लिखा गया एक अंश पाठकों के हित में यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं.सम्पादक )

दिनकर
दिनकर अपने युग के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व और साथ ही लोकप्रिय कवि  थे। उनके संपूर्ण कृतित्व के अध्ययन के बाद यह कहने की इच्छा होती है कि वे आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे। पचास से अधिक स्वतन्त्र पुस्तकें उनके कृतित्व पर लिखी जा चुकी हैं। यह किसी कवि की महत्ता दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं। जरा-मरण के भय से मुक्त ऐसे यशःकाय कवि की प्रासंगिकता उनके जन्म की शती बीत जाने पर भी बनी हुई है। वे कवि हैं और राष्ट्रकवि भी; अतः बहुधा उनके कवित्व को ‘राष्ट्रकवित्व’ ढँक लेता है। दिनकर पर रची पचास पुस्तकों के बावज़ूद कई पक्ष ऐसे हैं, जो छूट गए हैं। इसका कारण यह है कि दिनकर युग की सभी विविधताओं को समेटते हुए उसके प्रतिनिधि कवि हैं, जो प्रायः आलोचना की एकांगी दृष्टि के शिकार हो गए हैं। इस शोध में हमारा प्रयास इन छूटे हुए पक्षों पर रोशनी डालने के साथ-साथ दिनकर के संपूर्ण कृतित्व को उनके युग एवं परिवेश के संदर्भ में समग्र दृष्टि से देखने का होगा।

‘संस्कृति के चार अध्याय’ समेत पच्चीस गद्य-कृतियों के रचनाकार होते हुए भी गद्यकार के रूप में तो दिनकर के योगदान का आकलन किया ही नहीं गया। कवि दिनकर का मूल्यांकन भी प्रायः स्टीरियो-टाइप दृष्टि से किया गया। ‘रेणुका’ से दिनकर की काव्य-यात्रा का प्रस्थान-बिंदु माना जाता है। इस संकलन से ही दिनकर देश-प्रेम और क्रांति के कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। ‘हुंकार’ ने इनके बारे में इस धारणा को और भी मज़बूत कर दिया। जब ‘रसवन्ती’ प्रकाशित हुई तो इनके लिए कहा गया कि ये  अपने पथ को भूल कर, भटकाव का शिकार हो गए हैं; यद्यपि दिनकर ने घोषणा की कि उनकी आत्मा ‘रसवन्ती’ में बसती है। सच्चाई तो यह है कि दिनकर में आरंभ से ही ‘इन्द्रधनुष और अंगारों का सहअस्तित्व है। ‘रेणुका’ में भी गर्जन-तर्जन की कविताओं के साथ-साथ कोमल भावों की कविताएँ भी थीं। वैचारिक प्रौढ़ता वाले प्रबन्ध-काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को साहित्य-जगत् में पर्याप्त आदर मिला। ‘रश्मिरथी’ की रचना को ‘द्विवेदी युग’ की ओर प्रत्यावर्तन कहा गया। ‘नीलकुसुम’ व ‘कोयला और कवित्व’ में ‘प्रयोग’ में हाथ आजमाने को भी संदिग्ध दृष्टि से देखा गया। किन्तु ‘उर्वशी’ को लेकर विवाद से साहित्य-जगत् दो खेमों में विभाजित हो गया। कहा गया कि इसमें तो ‘हुंकार’ व ‘कुरुक्षेत्र’ के सामाजिक चेतना वाले कवि का अधःपतन ही हो गया है। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ से ‘अनलधर्मा’ कवि का पुनर्जन्म माना गया। किन्तु इसके बाद कहा गया कि बूढ़े कवि ने ‘हारे को हरिनाम’ लिख कर पलायन पर मुहर लगा दी, जो शतप्रतिशत ‘वैज्ञानिक समाजवादी’ न होने और आस्तिक होने की ‘तर्कसंगत’ परिणति थी, इत्यादि। 

ज़िग-ज़ैग चलने वाला यह मूल्यांकन खंड-दृष्टि का शिकार है। वास्तव में एक ‘दिनकर’ के भीतर अनेक ‘दिनकर’ हैं, जिनमें से किसी एक को पकड़ कर आलोचक, उसी को असली दिनकर सिद्ध करना चाहते हैं और उन्हीं के दूसरे रंगों का उस पथ से भटकाव। दिनकर मानते हैं कि प्रत्येक कवि अपने पूरे जीवन में एक ही काव्य लिखता है और उसकी सभी कृतियाँ इसी के अंग के रूप में संगति पाती हैं। यह कथन दिनकर के स्वयं के संदर्भ में भी सच है। अतः दिनकर के सभी काव्य और गद्य-कृतियाँ मिलकर एक विशाल महाकाव्य का निर्माण करती हैं, जो सभी आंगिक विविधताओं के साथ कवि और चिन्तक दिनकर का समग्र प्रतिनिधित्व करता है। इसी समग्र दृष्टि को अपनाना इस शोध का प्रस्थान-बिन्दु है।

दिनकर पर रची पुस्तकों में सबसे महत्त्वपूर्ण डॉ. सावित्री सिन्हा की ‘युगचारण दिनकर’ है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने उस समय तक रची गई दिनकर की सभी काव्य-कृतियों को अपने अध्ययन में शामिल किया है। दिनकर की काव्य-चेतना को इन्होंने ‘व्यक्तिपरक’ एवं ‘समष्टिपरक’ दो रूपों में विभाजित किया है तथा ‘रेणुका’ से ही इन दोनों रूपों की विद्यमानता स्वीकार की है। दिनकर की कविताओं के राष्ट्रीय स्वर को इन्होंने ‘गाँधी युग की विद्रोही राष्ट्रीयता’ का नाम दिया है और उसे स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी धारा के साथ संबद्ध किया है। इनका यह निष्कर्ष भी उचित है कि दिनकर की राष्ट्रीय कविताएँ तत्कालीन युवक-वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनका मानना है कि ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ में व्यक्त वीरता अन्धी वीरता है और उनकी क्रांति अन्धी क्रांति है। इनके मत में ‘कुरुक्षेत्र’ में दिनकर पहली बार विचारक और द्रष्टा के रूप में सामने आते हैं। लेखिका इस तथ्य को पहचानती हैं कि दिनकर की कविता में बुद्धि भावों को शीतल नहीं बनाती, बल्कि उद्बुद्ध कर उन्हें और दृढ़ता और शक्ति प्रदान करती है। भाव और विचार का यही समन्वय ये ‘उर्वशी’ में भी मानती हैं। किन्तु इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता दिनकर के काव्य के शिल्प-पक्ष का विस्तृत विवेचन है। इनकी पुस्तक ने दिनकर को न सिर्फ कवि, बल्कि ‘कलाकार कवि’ के रूप में प्रतिष्ठित करने में प्रमुख भूमिका निभाई। इनसे पहले दिनकर के आलोचक दिनकर के कथ्य पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखते थे तथा दिनकर स्वयं भी घोषित कर चुके थे कि पच्चीकारी की धीरता उनमें नहीं है। वस्तुनिष्ठता इस पुस्तक की विशेषता है। यही कारण है कि दिनकर पर बाद में लिखी जाने वाली कई पुस्तकों में इस पुस्तक का इस्तेमाल आधार ग्रंथ की तरह किया गया है।

दिनकर की लगभग सभी काव्य-कृतियों का परिचयात्मक विवरण इसमें सम्मिलित है। किन्तु इस पुस्तक में मुख्यतः दिनकर के काव्य की व्याख्या और वर्गीकरण का प्रयास ही अधिक है। दिनकर के काव्य के विश्लेषण में इस पुस्तक की कुछ कमियाँ स्पष्ट नज़र आती हैं - स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत की वैदेशिक नीति के अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का समर्थन करती कविताओं को देखकर ये दिनकर को ‘सरकार का माइक्रोफोन’ तक कह देती हैं। इस शोध में हमारा प्रयास रहेगा कि दिनकर की इन कविताओं को भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन की विरासत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए जहाँ अंतर्राष्ट्रीयता, राष्ट्रीयता की विरोधी नहीं, उसी के अगले चरण के रूप में देखी गई थी। ये दिनकर पर यह आरोप भी लगाती हैं कि भारत-विभाजन से उठी हुई समस्याएँ उनकी दृष्टि से ओझल रहीं। डॉ. सिन्हा यह भूल इसलिए करती हैं क्योंकि वे दिनकर की गद्य-कृतियों को अपने अध्ययन-क्षेत्र से बाहर रखती हैं। हम ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से इनकी ‘बापू’ और ‘हे मेरे स्वदेश’ जैसी कविताओं की तुलना कर इस वक्तव्य की सत्यता परखने का प्रयास करेंगे। 

कामेश्वर शर्मा ने ‘रेणुका’ से लेकर ‘रश्मिरथी’ तक की दिनकर की कविताओं की आलोचना ‘दिग्भ्रमित राष्ट्रकवि’ पुस्तक में की है। ‘दिग्भ्रमित’ शब्द ही आलोचक की सहृदयता व सुमनस्कता पर स्वयं द्वारा आरोपित प्रश्न-चिह्न है। इसमें श्री शर्मा की आलोचना का अधिकांश निशाना राज्य-सेवक के रूप में ‘व्यक्ति दिनकर’ हैं, ‘कवि दिनकर’ नहीं। इन्होंने दिनकर को ‘‘भारतीय राजनीति की आतंकवादी धारा के सबसे बड़े साहित्यिक प्रतिनिधि’’ कह कर सम्बोधित किया है। ये लिखते हैं कि दिनकर, ‘जन्मजात आतंकवादी, हिंसावादी और विध्वंसवादी’ हैं। एक ओर तो ये दिनकर की राष्ट्रीयता और क्रांति-चेतना का एकांगी मूल्यांकन करते हैं, वहीं दूसरी ओर ‘रसवन्ती’ की शृंगारिक कविताओं को इस क्रांति से पलायन मानते हैं। वहीं ‘बापू’ एवं गाँधी जी के निधन पर लिखी दिनकर की अन्य कविताओं को ‘मगरमच्छ के आँसू’ की संज्ञा देते हैं। पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा शायद यही होती होगी। प्रस्तुत शोध में हम यह खोजने का प्रयास करेंगे कि स्वाधीनता-संग्राम की अहिंसक धारा की झलक दिनकर के काव्य में कहाँ तक आई है और दिनकर की क्रांति-चेतना पर गाँधी और मार्क्स का कितना असर है।

डॉ. सावित्री सिन्हा के संपादन में ‘राधाकृष्ण मूल्यांकन माला’ के रूप में प्रकाशित पुस्तक ‘दिनकर’ में विभिन्न विद्वानों के 21 लेख संकलित हैं। दिनकर के काव्य को समग्र रूप से समझने में यह लोकतान्त्रिक प्रयास बहुत उपयोगी है, यद्यपि विभिन्न लेखों में विभिन्न विद्वानों में मत-भिन्नता है, जो स्वाभाविक भी है। इसमें संकलित कान्तिमोहन शर्मा का विद्वत्तापूर्ण लेख ‘कुरुक्षेत्र’ के विचार-स्रोत’ दिनकर पर बर्टेंªड रसेल और तिलक के विचारों के प्रभाव का आकलन करता है। यहाँ भी दिनकर के गद्य-साहित्य पर शून्यता मात्र है। डॉ. सत्यकाम वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘जनकवि दिनकर’ में दिनकर को युग का प्रतिनिधि और राष्ट्र का प्रतिनिधि सिद्ध किया है, किन्तु इनकी सबसे बड़ी विशेषता दिनकर के विभिन्न काव्यों में एकसूत्रता लाने वाले तत्त्व की खोज है। डॉ. वर्मा ‘अनल’ को वह तत्त्व मानते हैं जो दिनकर की राष्ट्रीय-क्रांतिकारी कविताओं के साथ-साथ ‘उर्वशी’ जैसी शृंगारिक कविताओं में भी विद्यमान है। ये मानते हैं कि अनलोपासना के रूप में दिनकर की मूल प्रेरणा योद्धा की प्रेरणा है, अन्याय पर चोट करने की प्रेरणा है। किन्तु ‘कुरुक्षेत्र’ में युधिष्ठिर की आलोचना को गाँधी-धर्म की आलोचना मानते हुए डॉ. वर्मा इस भ्रम का शिकार हो गए हैं कि दिनकर गाँधीवाद को निष्कर्मण्यता का दर्शन मानते थे। प्रस्तुत शोध में हम इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने का प्रयास करेंगे कि ‘जीवनभर गाँधी और मार्क्स के मध्य झटके खाने वाले’ दिनकर गाँधीवादी सिद्धान्तों विशेषकर - अहिंसा के संबंध में क्या राय रखते थे ? वे उसे बिलकुल नकारते हैं या इसे परमधर्म के रूप में स्वीकार करते हुए आपद्धर्म के रूप में हिंसा की छूट बनाए रखने का समर्थन करते हैं ?

‘दिनकर: एक सहज पुरुष’, दिनकर के दामाद शिवसागर मिश्र द्वारा लिखी गई प्रामाणिक संस्मरणात्मक जीवनी है। निकट संबंधी होने के बावज़ूद निष्पक्षता लेखक की विशेषता है। परिशिष्ट में दिनकर के पत्रों का संकलन इसकी महत्ता को और भी बढ़ा देता है। ‘कवि’ की पृष्ठभूमि में स्थित ‘व्यक्ति दिनकर को जानने-समझने की दृष्टि से यह बहुत उपयोगी है। ‘दिनकर: व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी के संपादन में विभिन्न विद्वानों एवं राजनेताओं द्वारा दिनकर के निधन पर श्रद्धांजलियों का संकलन है। डॉ. दिवाकर ने ‘दिनकरनामा’ नाम से छह खण्डों में दिनकर की महाकाय जीवनी आत्मकथा की शैली में लिखी है। दिनकर-साहित्य के अतिरिक्त उनसे संबंधित व्यक्तियों से भेंट और उनसे संबंधित सभी स्थानों पर भ्रमण से इन्होंने इसे प्रामाणिकता प्रदान करने का प्रयास किया है। इसी क्रम में इन्होंने दिनकर की अब तक अनुपलब्ध कृति ‘विजय-सन्देश’ भी खोज निकाली है। तथ्यों से भरपूर होने के कारण यह दिनकर पर शोध के लिए आधार-सामग्री का काम कर सकती है। किन्तु रचनाओं के गंभीर विश्लेषण की इसमें कमी है। दिनकर के आत्मकथन के रूप में जीवनी का स्वरूप-निर्धारण करने के कारण कहीं-कहीं दिनकर की आत्मप्रशंसा दर्शायी गई है, जो अखरती है।

डॉ. शंभु नाथ ने दिनकर के व्यक्तित्व और रचना-कर्म के अन्तर्विरोधों को ‘धूप-छाँही दिनकर’ में विद्वत्तापूर्ण तरीके से विश्लेषित किया है। इन्होंने दिनकर के परस्पर विरोधी पक्षों को उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के ही विभिन्न पहलुओं के रूप में चित्रित किया है। किन्तु डॉ. शंभु नाथ पुस्तक के निवेदन में ‘समग्रता’ के दावे के बावज़ूद एक ही व्यक्ति के इन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले पक्षों में एकसूत्रता नहीं ढूँढ पाते और पूरी पुस्तक दिनकर के अंतर्विरोधों का आख्यान मात्र बन जाती है। प्रस्तुत शोध-ग्रंथ में हम दिनकर के व्यक्तित्व-कृतित्व के द्वंद्वों के स्रोत को खोज कर उनमें अंतर्व्याप्त एकसूत्रता को तलाशने का प्रयास करेंगे। 

डॉ. नगेन्द्र ने ‘कालजयी कृतियाँ’ में तुलसीदास से लेकर अज्ञेय तक गद्य-पद्य दोनों में हिन्दी साहित्य के इतिहास की कालजयी कृतियों पर अपनी लेखनी चलाई है, जिसमें दिनकर की दो कृतियाँ - ‘कुरुक्षेत्र’ व ‘उर्वशी’ भी शामिल हैं। दिनकर के बारे में डॉ. नगेन्द्र की धारणा है कि दिनकर द्वंद्व का कवि है, समाहिति का कवि नहीं है। इसका कारण भी वे स्वयं ही देते हैं कि द्वंद्व उनका अनुभूत है, समाधान अनुभूत नहीं है। समाहिति की कमी को वे काव्य के सम्पूर्ण प्रभाव को उत्पन्न करने में बाधा मानते हैं। हम इस शोध में यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या समाधान पेश करना कविता के लिए अनिवार्य है या फिर द्वंद्वात्मकता अपने आप में ही उसका सौन्दर्य हो सकती है, जिस प्रकार प्रसाद के नाटकों और कहानियों में है ? 

डॉ. शंभुनाथ ने ‘दिनकर: कुछ पुनर्विचार’ में वैदिक और पौराणिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में दिनकर की कृतियों पर नयी रोशनी डाली है। डॉ. जयसिंह ‘नीरद’ की पुस्तक ‘दिनकर के काव्य में परंपरा और आधुनिकता’ एक विशालकाय शोध-प्रबंध है, जिसका शीर्षक ही पुस्तक के निष्कर्ष का द्योतक है और इसकी अपनी सीमा है। केवल एक पक्ष ‘परंपरा और आधुनिकता’ को केंद्र में रखते हुए लिखी गई यह पुस्तक दिनकर के कृतित्व पर स्वतःसीमित है। इन्होने ‘उर्वशी’ पर एक स्वतंत्र पुस्तक भी लिखी है। स्व0 डॉ. इंद्रनाथ मदान के संपादन में द्वारिकाप्रसाद सक्सेना द्वारा लिखित पुस्तक ‘दिनकर का काव्य’ भी एक समृद्ध आलोचना-ग्रंथ है, जिसके लगभग 80 पृष्ठों में दिनकर-साहित्य के 800 उद्धरण-संदर्भ दिए गए हैं; यह भी अपने में एक ‘रिकॉर्ड’ है। लेकिन, इस पुस्तक में दिनकर-काव्य का विश्लेषण सहृदयता, सोद्देश्यता और तर्क-संगति को दर्शाता है। इस पुस्तक में दिनकर के काव्य में युगचेतना, राष्ट्रीय भावना, सांस्कृतिक चेतना, सौन्दर्यबोध, प्रेम भावना, कामभावना, जीवन-दर्शन और रचना-शिल्प का विवेचन किया गया है। साथ ही दिनकर की चुनी हुई रचनाएँ भी इसमें संकलित की गई हैं। डॉ. पी. आदेश्वरराव ने ‘दिनकर: वैचारिक क्रांति के परिवेश में’ दिनकर की क्रांति-चेतना की पृष्ठभूमि ढूँढी है। श्रीमती एस. के. पद्मावती ने ‘कवि ‘दिनकर’: व्यक्तित्व और कृतित्व’ में दिनकर के समग्र काव्य को अपना विषय बनाया है।

डॉ. छोटेलाल दीक्षित की पुस्तक ‘दिनकर का रचना-संसार’ का शीर्षक जितना भव्य है, उस तुलना में अन्तर्वस्तु छोटे-मोटे 12 निबंधों में सिमट गई है। दीक्षित ने दिनकर-काव्य की शक्ति, सीमा, राष्ट्रीयता, मिथक-चेतना और बिंब-विधान की चर्चा की है, इससे अधिक कुछ नहीं। डॉ. दीक्षित ने इनके समग्र कृतित्व को सम्मिलित तो किया है किन्तु गद्य-कृतियों में से मात्र ‘संस्कृति के चार अध्याय’ को शामिल किया है, वह भी परिचयात्मक रूप में ही। धर्मपाल सिंह आर्य द्वारा लिखित ‘दिनकर का वीर काव्य’ भी एक परिसीमित दिशा में किया गया शोधकार्य प्रतीत होता है, जिसमें उनके वीर-काव्य की काव्यशास्त्रीय निकष पर स्थूल और सतही परीक्षा की गयी है। आर्य ने ‘दिनकर का वीर काव्य’ में दिनकर के काव्य को भारतीय रस-सिद्धान्त की विभावानुभावव्यभिचारी भावों की कसौटी पर परखा है। संपूर्ण पुस्तक आलम्बन-उद्दीपनादि के अनपेक्षित सैद्धान्तिक विवेचन को दिनकर की रचनाओं पर लागू करने तक सीमित हो गई है। ‘कवि दिनकर के साहित्य में दलित, पीड़ित तथा शोषितों का चित्रण और उनके उत्थान का स्वर’ डॉ. डाहयाभाई जी. रोहित का प्रकाशित शोध-प्रबंध है, जिसमें हिन्दी साहित्य में दलित-चेतना के परिप्रेक्ष्य में दिनकर के काव्य और गद्य-साहित्य में दलित चेतना के चित्रण को रेखांकित किया गया है। दिनकर विषयक एक और शोध-प्रबंध निधि भार्गव द्वारा लिखित ‘दिनकर-काव्य में क्रांतिमंत चेतना’ शीर्षक से प्रकाशित है, जिसमें विषय के अनुरूप राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक क्रांतियों के संदर्भ में दिनकर-काव्य की विवेचना की गई है जो दिनकर के कृतित्व का एक खंड-परिचय है और कोई समग्र प्रभाव नहीं छोड़ता। ‘दिनकर का व्यक्तित्व और उनका काव्य’ में कमलेश गौड़ ने दिनकर की प्रबंधकृतियों सहित सम्पूर्ण काव्य को अपना विषय बनाया है, किन्तु गीतकार के रूप में दिनकर का मूल्यांकन इसकी प्रमुख विशेषता है। डॉ. अश्विनी वशिष्ठ ने अपने शोध-प्रबंध ‘दिनकर के काव्य में मानव-मूल्य’ में दिनकर के काव्य में सबसे प्रमुखता प्राप्त मानव-मूल्यों का विवेचन किया है। इन्हीं मूल्यों के कारण दिनकर के काव्य में महाकाव्यात्मक औदात्य है। 

छायावादोत्तर युग में काव्यभाषा को जीवन और धरती के निकट लाने में दिनकर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ‘दिनकर की काव्यभाषा’ पुस्तक में डॉ. यतीन्द्र तिवारी ने दिनकर की भाषा का परिश्रम-पूर्वक सूक्ष्म विश्लेषण किया है। दिनकर की काव्यभाषा का काव्यशास्त्रीय, व्यावहारिक, व्याकरणिक और शाब्दिक विवेचन अनेक उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए किया गया है। दिनकर की काव्यभाषा का ध्वनि-विवेचन भी इस पुस्तक में किया गया है। इसके साथ ही भाषा के जरिए दिनकर के काव्य में झाँकती संस्कृति और लोकजीवन को भी इन्होंने रेखांकित किया है। डॉ. सरला परमार ने ‘दिनकर की काव्यभाषा: शैलीवैज्ञानिक अध्ययन’ में भी कवि की भाषा को अध्ययन का विषय बनाया है। नीरज ठाकुर ने दिनकर के लोकप्रिय काव्य ‘रश्मिरथी’ को विषय बनाया है। ‘रश्मिरथी: उदात्त तत्त्व के निकष पर’ में ठाकुर ने कर्ण के चरित्र के औदात्य का विश्लेषण किया है तथा सम्पूर्ण प्रबन्ध-काव्य को भी उदात्त तत्त्व की कसौटी पर कसते हुए विषय की गरिमा, प्रेरणा-प्रसूत आवेग, समुचित अलंकार-विधान तथा उत्कृष्ट भाषा को रेखांकित किया है। ‘उर्वशी: विचार और विश्लेषण’ में सं. डॉ. वचनदेव कुमार ने इस चर्चित कृति पर विभिन्न विद्वानों के 20 लेखों का संकलन किया है। इन लेखों में ‘उर्वशी’ के प्रतिपाद्य और कला पर विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई आलोचनाएँ व प्रतिक्रियाएँ हैं। इन सभी के बीच हम जिज्ञासु कोशिश करेंगे कि ‘उर्वशी’ मूलतः है क्या ? डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के ‘उर्वशी’ पर विवादास्पद लेख का परीक्षण भी हम इस शोध में करेंगे।

सद्यःप्रकाशित डॉ. खगेन्द्र ठाकुर की पुस्तक ‘दिनकर: व्यक्तित्व और कृतित्व’ जिसके कुछ अंश पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व ही ‘आलोचना’, ‘तद्भव’, ‘परिकथा’, ‘साक्ष्य’ और ‘आजकल’ में आलेखों के रूप में भी प्रकाशित हो चुके हैं, कवि की जन्मशती पर उनके पुनर्मूल्यांकन का गंभीर प्रयास है। इन्होंने माना है कि दिनकर की शक्ति और विशिष्टता यह है कि आधुनिक कविता में किसी एक प्रवृत्ति और धारा के साथ न होकर भी वे आधुनिक कविता के विकास में अपनी सार्थकता और महत्ता सिद्ध करते हैं। इसमें आलोचक ने मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं में अभिव्यक्त राष्ट्रीयता से दिनकर की कविताओं की राष्ट्रीयता की विशिष्टता को रेखांकित किया है; लेकिन, ये भी दिनकर की राष्ट्रीयता को भारतीय स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी धारा तक सीमित कर देते हैं। इनका यह भी आरोप है कि अन्याय के खि़लाफ संघर्ष में जनता की भूमिका दिनकर की कविताओं में कहीं नहीं है एवं इनके काव्य में स्वच्छन्दतावाद ऊपर से प्रगतिशील दिखने के बावज़ूद, यथास्थितिवादी बन कर रह जाता है । डॉ. ठाकुर मानते हैं कि दिनकर में आरंभ से ही एक ओर तो उत्तेजना और आक्रोश भरी राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना और दूसरी ओर ‘सुन्दरता का आनन्द लेने की प्रवृत्ति, दोनों का सह-अस्तित्व है। किन्तु, डॉ. ठाकुर परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली इन दोनों प्रवृत्तियों में कोई अंतःसूत्र नहीं ढूँढ पाते, और ‘चक्रवाल’ में कवि की अर्धस्वीकारोक्ति को ही अंतिम प्रमाण मानकर निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि दिनकर के काव्य में राष्ट्रीयता और सामाजिक चेतना बाह्य प्रवृत्तियाँ हैं। इस शोधग्रंथ में हमारा प्रयास होगा कि दिनकर के काव्य के इन विपरीत ध्रुवों के मध्य अंतःसूत्रता तलाश की जाये। 

मोहनकृष्ण बोहरा ने ‘एलियट और हिन्दी साहित्य-चिन्तन’ नामक आलोचनात्मक पुस्तक में दिनकर के काव्य पर एलियट के प्रभाव का विस्तृत विवेचन किया है, यद्यपि उन्होंने भी माना है कि कुछ प्रसंगों में दिनकर और एलियट के मध्य की यह समानता समान परिस्थियों के कारण संयोगतः भी हो सकती है।दिनकर पर प्रकाशित उपर्युक्त चर्चित पुस्तकों के अलावा उल्लेख-योग्य कुछ अन्य पुस्तकें इस प्रकार हैं - दिनकर के काव्य/ लालधर त्रिपाठी, दिनकर: सृष्टि और दृष्टि/गोपालकृष्ण कौल, रामधारी सिंह दिनकर/ मन्मथनाथ गुप्त, दिनकर की काव्य-साधना/ प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव, दिनकर: एक पुनर्मूल्यांकन / विजेन्द्रनारायण सिंह, राष्ट्रकवि दिनकर/ डॉ. गोपालराय, दिनकर और उनकी काव्यकृतियां/ शिवचंद्र शर्मा, भारतीय साहित्य के निर्माता: रामधारी सिंह दिनकर/ विजेन्द्रनारायण सिंह, दिनकर की काव्य-साधना/ नेमिचंद्र जैन ‘भावुक’, युगकवि दिनकर/ मुरलीधर श्रीवास्तव, राष्ट्रीय कवि दिनकर और उनकी काव्यकला/डॉ. शेखरचन्द्र जैन, रश्मिरथी-समीक्षा/ सुधांशु..........इत्यादि।

‘हिन्दी अनुशीलन’ पत्रिका के दिसम्बर-मार्च 2005 अंक में डॉ. पुष्पारानी गर्ग ने ‘गद्यकार दिनकर’ लेख में दिनकर की सभी गद्य-कृतियों का संक्षिप्त किंतु सारग्राही परिचय दिया है।सबसे अंत में किन्तु बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है - साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘रामधारी सिंह दिनकर रचना-संचयन की कुमार विमल द्वारा लिखी 33 पृष्ठों की भूमिका। ये मानते हैं कि दिनकर के काव्य की मुख्य भाव-भूमि सामाजिक असन्तोष के प्रतिरोध में ‘अनल-धर्मिता’ से जुड़ी हुई है। ‘कुरुक्षेत्र’ को आधुनिक युद्ध-काव्य की कसौटी पर परखते हुए इसका विस्तृत विवेचन इस भूमिका में वर्णित है। सामाजिक न्याय के पक्ष में खड़े दिनकर की प्रगतिशीलता को भी इन्होंने रेखांकित किया है। दिनकर के काव्य पर डी. एच. लोरेन्स के प्रभाव का भी इन्होंने विवेचन किया है। 

अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गुलाल’ में दिनकर के ‘रश्मिरथी’ के कुछ अंशों के प्रयोग ने दिनकर के काव्य की प्रासंगिकता तो सिद्ध की ही है, साथ ही एक नये माध्यम में दिनकर के काव्य के रचनात्मक उपयोग की संभावनाओं की ओर भी संकेत किया है।दिनकर के कृतित्व पर लिखी गयी इतनी सारी पुस्तकों की परीक्षा से यह तथ्य सामने आया है कि इन पुस्तकों में से लगभग सभी उनके काव्य और व्यक्तित्व की आलोचना पर सघनता से केंद्रित हैं। जबकि प्रस्तावित शोधकार्य का लक्ष्य उनके काव्य के साथ गद्य-साहित्य की विशाल राशि का साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से सम्यक् अध्ययन और परिशीलन करना भी है। यह कार्य दिनकर के काव्य और गद्य-साहित्य के अन्वयात्मक अन्तःसूत्र तलाशने का एक नया प्रस्थान-भेद सिद्ध होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।पूर्वोक्त इतनी सारी पुस्तकों में, दिनकर की 25 महत्त्वपूर्ण गद्य-कृतियों पर विवेचन-शून्यता और उपेक्षा खेदजनक है, जिसकी पूर्ति प्रस्तुत अनुसंधान का विनम्र ध्येय और संकल्प है। उन पुस्तकों में ‘कवि दिनकर’ पर सब मुग्ध हैं, पर ‘चिंतक और विचारक’ दिनकर पर या तो उनका ध्यान नहीं गया है या उन्होंने इसमें अपनी कोई रुचि नहीं दिखाई है, जो दिनकर-साहित्य के प्रति निश्चित ही एक बड़ी उपेक्षा व कमी है, जिसकी पूर्ति इस शोधकार्य के विनीत प्रयास से की जानी है। प्रस्तावित अनुसंधान का प्रमुख उद्देश्य रामधारी सिंह दिनकर के काव्य और गद्य- दोनों विधाओं पर लिखित करीब 55 पुस्तकों का साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सहृदयतापूर्वक अध्ययन कर, उनके योगदान का आकलन और मूल्यांकन करना है। 

दिनकर हिन्दी आलोचना में अधिकतर एकांगी दृष्टि के शिकार रहे हैं। अधिकांश आलोचकों ने इनके कवित्व को उनके राष्ट्रकवित्व से जोड़कर देखा है एवं कोमल भावनाओं वाली उनकी कृतियों को ‘असली’ दिनकर का भटकाव घोषित किया है। कुछ ने इन्हें ओज और प्रेम का कवि तो कहा है किन्तु इन दोनों विपरीत रूपों में संगति ढूँढने में विफल रहे हैं। हमारा प्रयास होगा कि दिनकर के काव्य के इन दोनों रूपों में अन्तःसूत्रता खोजी जाए। प्रगतिशील दृष्टि के बावज़ूद आलोचकों द्वारा इन्हें इस वर्ग में स्थान क्यों नहीं दिया गया ? इसके पीछे के कारणों को ढूँढने का प्रयास करेंगे। इनकी पुण्यतिथि पर 24 अप्रेल 1998 को दिनकर भवन, बेगूसराय में दिए गए व्याख्यान में प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने भी दिनकर की जिन कृतियों को ‘हाइलाईट’ किया है, वे हैं - ‘उर्वशी’ , ‘हारे को हरिनाम’ और ‘शुद्ध कविता की खोज’। इससे पूर्व ‘कविता के नये प्रतिमान’ में भी नामवर जी ने ‘उर्वशी’ की चर्चा की थी। प्रगतिशील आलोचकों द्वारा दिनकर की प्रगतिशील सोच की कविताओं को जो पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया गया, उसका कारण कहीं जान-बूझ कर बहिष्कार तो नहीं ? क्या इसका कारण यह तो नहीं कि दिनकर किसी वामपंथी पार्टी से बँधे नहीं रहे और मार्क्सवाद को भारतीय बनाकर स्वीकार किया ? इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढने का हम प्रयास करेंगे। दिनकर के काव्य का शिल्प पक्ष भी अल्पविवेचित रहा है। इनके काव्य के शिल्प पक्ष में प्रतीकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘अर्धनारीश्वर’, ‘स्वर्ग’, ‘मिट्टी’ जैसे प्रतीक जो इनके काव्य में और गद्य-कृतियों में भी बार-बार आते हैं, उनके विवेचन का भी हम प्रयास करेंगे। दिनकर की गद्यरचनाओं में भी प्रायः वे ही चिन्तन-बिन्दु हैं, जो उनके काव्य में हैं। अतः हम इन दोनों के मध्य अंतःसंबंध खोजते हुए अध्ययन करेंगे कि गद्य-रचनाओं ने इनके काव्य को किस प्रकार पुष्ट किया है और काव्य में उठाए गए सामयिक प्रश्न किस तरह गद्य-कृतियों में भी उत्कंठित हुए हैं ?

डॉ.रेणु व्यास
हिन्दी में नेट चित्तौड़ शहर 
की युवा प्रतिभा
इतिहासविद ,विचारवान लेखिका,
गांधी दर्शन से जुड़ाव रखने
 वाली रचनाकार हैं.
वे पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही 
रेडियो पर प्रसारित होती रहीं हैं,
उन्होंने अपना शोध 'दिनकर' के 
कृतित्व को लेकर पूरा किया है.

29,नीलकंठ,सैंथी,
छतरीवाली खान के पास
चित्तौडगढ,राजस्थान 
renuvyas00@gmail.com
दिनकर ‘युग के प्रतिनिधि कवि’ हैं। अतः यह आवश्यक है कि उनकी रचनाओं को उनके युग की पृष्ठभूमि में समझने का प्रयास किया जाए। राष्ट्रीयता दिनकर के काव्य और गद्य-कृतियों की प्रमुख प्रवृत्ति है; अतः भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में इन्हें देखना उपयोगी होगा। दिनकर की कृतियों में सांस्कृतिक चिंतन पर भारतीय नवजागरण एवं पश्चिम के चिंतकों के प्रभाव का आकलन भी इस शोध-कार्य का एक अंग है। दिनकर के चिन्तन की अनेकान्तता और विविधता और इससे उपजे द्वंद्व का विवेचन करते हुए हम उस एकसूत्रता को खोजने का प्रयास करेंगे जो दिनकर के समग्र कृतित्व को एक इकाई के रूप में अन्तर्ग्रथित करती है। इसके साथ, प्रस्तुत शोधकार्य का यह भी प्रयोजन है कि दिनकर के व्यक्तित्व का पहले से अधिक सूक्ष्मता, धीरता और उदारता के साथ अंकन किया जाय और उनके युग और परिवेश की सम्यक् आख्या करते हुए साहित्य और संस्कृति के अंतःसंबंधों का विवेचन करने के साथ उनके चिंतक और विचारक रूप की भी विश्वसनीय व्याख्या व पहचान की जाय। 

साहित्य और संस्कृति को विवेचन-दृष्टि की सुविधा के लिए भले ही अलग मान लें, परन्तु व्यापक मानवीय प्रयोजन की दृष्टि से साहित्य, संस्कृति का ही अंग है। इस उदात्त योजना के साथ, दिनकर के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर प्रदेय, स्थान और महत्त्व को सुनिश्चित करते हुए हमारे इस अनुसन्धान का समापन होगा। इस बीच, हम सतत अनाग्रही, निष्पक्ष किन्तु सहृदय और सकारात्मक बने रहने का प्रयत्न करेंगे।

1 टिप्पणियाँ

  1. रेणु दीदी आपको बिना बताएं हम अनुज आपसे कितना कुछ सीख रहे हैं.कभी फुरसत में सब मिल बैठेंगे तो बताएँगे।यहाँ सिर्फ इतना कि आपके कायल होने की हद तक हम आ पहुंचे हैं इस बारी फिर से दिनकर पर आपकी लिखी पुस्तक आपके साथ ही हमारे लिए भी आल्हाद का विषय है.अरे हाँ पार्टी/शार्टी का विषय भी है.जीवन में बहुत आगे बढ़ने की कामनाओं के साथ पहली किताब मुबारक-माणिक

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