नवोदित:अस्मुरारी नंदन मिश्र की कविताएँ

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 दिसंबर-2013 
बम बाबा

मैं अपने बाबा को 
उनकी डायरियों से जानता हूँ 
कोई  साहित्यिक नहीं थे वह 
छोटी मोटी किसानी की  बातें लिखते रहे थे डायरियों में
कभी लिखा- बैल लेने के लिए
आठ सौ रुपये उधार लिये..
तो कभी यह बताया
कि तीसी कुछ दिन और रख पाता
तो मिल सकते थे सही दाम.....

बाबा अपनी छोटी- छोटी चोटों और हारी- बीमारी के बारे में भी
लिखते रहे थे
मसलन-
बलतोड़ हो गया है
नीम और हल्दी चढ़ाने से भी फायदा नहीं है
या किसी तरह से चढ़ जाता आलू का दाम
तो बेचकर करा लेता
फोते का ऑपरेशन...


मेरे किसान बाबा
नहीं पहचानते थे बम
एक बार कटनी के समय
खेत में मिला था कुछ गोल सा
और हाथों में तौलने लगे थे उसे
जबकि कुछ लोग जता रहे थे आशंका
बम होने की
बाबा निश्शंक उनपर ही हँस रहे थे
‘’तुम्हारे बाप- दादाओं ने भी देखा है कभी बम ?’’
सही कह रहे थे बाबा उन खेतीहर मजदूरों से
जिनके खानदान भर को नहीं वास्ता पड़ा था हथगोलों से
उनके हाथों में हसिया और हथौड़े ही रहे थे अब तक..



हसिया से खोदने लगे थे
उस हथगोले को
कि बायाँ हाथ नहीं रहा
(मुश्किल से बचाये गये बाबा)
बायें हाथ के बिना जैसे- तैसे बिताते रहे बाकी जीवन
बम लगने की घटना उनके साथ ऐसे जुड़ गयी थी अभिन्न रूप से
कि वे बम बाबा ही कहलाते रहे बाद में....
उनकी डायरियों से ही जाना
कितना जरुरी है आदमी के लिए उसका बायाँ हाथ--
एक हाथ से तो वे दातून को भी चीर नहीं पाते थे
शायद बायें हाथ के बिना
कुछ बहुत जरुरी काम उनसे न हो पाये हों
कि बायें हाथ की कमी शिद्दत से महसूस करते हुये
एक जगह लिखा
बायें हाथ को बचाने के लिए जरुरी है जानना
कि कैसा होता है
बम....
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माँ और भाषा

गँवई मगही माँ
प्रवाह निभा नहीं पाती सही से
हिंदी में भी
सहज ही शामिल हो गयी हैं
उड़िया तेलगु पड़ोस में
और हिंदी- शिक्षक मैं
इस निवेदन से शुरु करता हूँ
हर बातचीत-
जरा हिंदी में’’


भाषा की ही तरह घुल मिल गयी हैं माँ
और रूढ़ भाषी की तरह मैं
ठिठका अड़ा हूँ पत्थर सा
अपनी सीमा में...


माँ और भाषा दोनों
बहती हुई नदी हैं
बहाव से डरे हम
टुकुर टुकुर ताक रहे हैं धारा
तट पर कर रहे हैं परायण
तैरना सिखाने वाली पोथी का......

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दिल्ली बहुत दूर है

गाँव अमूमन खाली पाँव ही चला करता था
जब कभी चमरौधे जूते डाल लेता
तो बगल का कस्बा भी समझ जाता
कि यह ढब मुझसे भी बड़े किसी शहर से मिलने का
( शहर से मिलने के लिए रूप बदलने ही पड़ते हैं )
और तब वह छोटा कस्बा टोकाटोकी नहीं करता
हाँ, आते- जाते गाँव
उस कस्बे के साथ ले लेता था
चाय की चुस्कियाँ सेब के साथ
वरना जब भी खाली पैर  आया है गाँव
उसके माथे पर भारी बोझ रहे
जो लौटते वक्त
हाथ के झोले में थोड़ी तसल्ली बन
समा जाते



गाँव और कस्बे का यही छोटा सा संसार था
मित्रता पुरानी थी
लेकिन मेल गाहे- बगाहे ही हो  पाता था
गाँव इतना भी स्वतंत्र नहीं था
कि जब चाहे चला आये
और जब चाहे चला जाये
आते ही गाँव बताता
पटवन में लगा रहा इन दिनों,
निराई के समय नहीं निकल सकता
कटाई में देर हो जाती तो फसल कैसे पहुँचती खलिहान तक
ऐसे समय कस्बा
हाटों के रूप में गाँव तक पहुँच कर
उसकी कुछ सहायता कर  जाता

गाँव के अपने किस्से होते
कस्बे के अपने
कस्बा उसे दिखाता
रात को भक कर देने वाली नयी बिजली बत्ती
और कभी चलाता अपनी बनती- बिगड़ती सड़क पर
न जाने क्यों
ऐसे समय एक आह भरकर रह जाता गाँव

यूँ गाँव हरदम ही मिलता रहना चाहता था अपने मित्र से
लेकिन बरसातों में ऐसा हो नहीं पाता था
जब कभी किसी तरह गाँव पहुँचता कस्बा
तो बताता आने की कठिनाई
कस्बा महसूस करता
मिलने की खुशी पर
आने की कठिनाई हावी है
कि चारों तरफ पानी ही पानी है
पगडण्डी डूब चुकी है
पैर सँभाल- सँभाल कर कमर भर पानी में
चला है गाँव
कई बार पैर फिसले और छाती भर पानी में पहुँच गया
कस्बा तब देखा करता
किस हसरत से निहार रहा होता उसकी सड़क को
गाँव

इधर कस्बे से गुजरने लगी है रेल
कस्बे ने सोच रखा था दिखाऊँगा मित्र को
छुक-छुक करती,
दूर से ही धुआँ उड़ाती
सीटी बजाती
आती रेल
और एक दिन गलबहियाँ डाले आ गये दोनों
काफी इंतजार के  बाद हो ही गयी सूचना
पटरियाँ भी ठक-ठक-कट-कट कर
देने लगी चेतावनी
दोनों ही उत्सुक थे
कस्बा अपनी खुशी में
और गाँव अपने कुतूहल में
कि आई रेल और धड़ाधड़ निकल गयी
कस्बे ने हाथ पकड़कर परे खींचा गाँव को
जो सारी उत्सुकता के बावजूद
पढ़ नही पाया था
कि क्या लिखा था रेल पर

कि कहाँ जाती है वह...
सिर्फ एक शब्द हवा में लहराते से पकड़े थे उसने
‘’दिल्ली’’
अपने मित्र से पूछा गाँव ने
यह दिल्ली कहाँ है?

अब भाई! कस्बा भी तो बेचारा कस्बा ही न ठहरा
वह भी क्या जवाब देता
बस इतना ही कह सका-
दिल्ली बहुत दूर है
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एक कविता गौरैया के नाम

वैन्डिलेटर के रास्ते
मेरे बंद कमरे में
एक चिड़िया पहुँची-
एक छोटी सी गौरैया
(गनीमत थी - छत के पंखे बंद थे)

आई,
कुछ देर फुदकी
थोड़ी चहचहाहट बिखेर उड़ गयी फिर
मुक्त आकाश में
उसी रास्ते अपने को सुरक्षित निकाल

आई थी शायद दाने की तलाश में
ठिकाने की तलाश में
यूँ ही सुस्ताने कुछ देर
या आई थी वह मुझसे मिलने ही
मुझे जगाने और बतिआने कुछ देर
या कोई अपना ताज़ा गीत लेकर सुनाने ही..

जो भी हो
बहुत दिनों के बाद मैंने एक कविता लिखी
छोटी गौरैया के नाम

इस बंद शहर में
यूँ ही बेवजह
कोई कहाँ आता है किसी के पास जो..


अस्मुरारी नंदन मिश्र
शिक्षक ,कवि 
परिकथा और साखी,संवदिया 
के युवा कविता में कविता प्रकाशित
केंद्रीय विद्यालय रायगड़ा,
म्युनिसिपल कॉम्पलेक्स
रायगड़ा,ओडिशा-765001
मो.नं.-- 9692934211
ई-मेल asmuraribhu@gmail.com
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2 टिप्पणियाँ

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    उत्तर
    1. कविता जो आपमें अधूरापन ला दे, कुछ ऐसी अनुभूति दे जाय जिसे समझने में एक और कविता बना जाय। ये कविताएं ऐसी थी जो मेरे भीतर कुछ और कविताएं रच गयी.........

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