विमर्श:साहित्य में दलित चेतनाः एक चिन्तन/बोस्की मैंगी

                 साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
    'अपनी माटी'
         (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
    वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014


आलेख:साहित्य में दलित चेतनाः एक चिन्तन/बोस्की मैंगी
(हिन्दी कहानियों के विशेष संदर्भ में)

चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव 
दलित साहित्य दलित प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति है। जब ‘दलित’ शब्द साहित्य से जुड़ता है तो एक ऐसी साहित्यिक धारा की ओर संकेत करता है जो मानवीय सरोकार और सम्वेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यक्ति बनता है। यह एक ऐसा साहित्य है, जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा और शोषण के विरूद्ध साहित्यिक अभिव्यक्ति दी है। साहित्यकार कोई विशिष्ट व्यक्ति नहीं होता, वह अपने अस्तित्व के लिए पग-पग पर समाज के ऊपर निर्भर करता है। समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होता, दलित साहित्य की मूल भावना यही है। इसलिए यह सामाजिक प्रतिबद्धता का साहित्य है। दलित चिंतको की यह प्रतिबद्धता मानवतावाद और समाजिकता के प्रति न्याय है। 

वास्तव में ‘दलित’ शब्द का अर्थ जाति-बोधक नहीं बल्कि समूह की अभिव्यंजना देता है। सामान्य अर्थो में दलित वह है जो भारतीय समाज व्यवस्था में अस्पृश्य माना गया, बेगार करते, कम मूल्य पर श्रम करते श्रमिक, बंधुआ मजदूर, जिसका आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक शोषण हुआ है वह दलित की परिधि में आता है। दलित चेतना का सरोकार इस प्रश्न के साथ जुड़ा है कि‘मैं कौन हूँ।’ ‘मेरी पहचान क्या है?’  दलित साहित्य केवल दलितों के अधिकार एवं मूल्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक संदर्भों के साथ जुड़कर समूचे समाज की अस्मिता और मूल्यों की पहचान बनता है। दलित साहित्य मुक्ति आन्दोलन का एक हिस्सा है। शब्द की आग से ऊर्जा ग्रहण कर दलित रचनाकारों ने अपने आंदोलन को गहरे सरोकारों से जोड़ा है। इसीलिए दलित साहित्य का केन्द्र बिन्दु मानव है। सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार बाबूराम बागूल का मानना है कि-मनुष्य की मुक्ति को स्वीकार करने वाला, मनुष्य को महान बनाने वाला, वंश, वर्ण और जाति श्रेष्ठत्व का प्रबल विरोध करने वाला दलित साहित्य ही हो सकता है। दलित साहित्य का मूल स्वर ‘विद्रोह चेतना’ का यह वह क्रांतिकारी उभार था, जिसमें दलित-विमर्श की शुरूआत होती है। डॅा. गंगाधर पानतावणे दलित साहित्य को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं‘दलित साहित्य समाज का दर्पण है, जो हमने देखा, अनुभव किया, भोगा, जाना, समझा उसका अंकन उत्कटता पूर्वक किया। दलित्व का निर्मूलन हमारे साहित्य का हथियार है। इसीलिए सर्वव्यापी क्रांति का आह्वान करता है।’  रमणिका गुप्ता का मानना है कि-‘दलित साहित्य कहीं भी और किसी भी रूप में भी मनुष्य पर अत्याचार व शोषण का विरोध करता है। यह साहित्य समाज को मनुष्य के हित में बदलने का पक्षधर साहित्य है। एक नये मानवीय समाज के निर्माण का पक्षधर है, जिसमें रंग, वर्ण, जाति, लिंग या सामाजिक सत्ता के आधार पर मनुष्यों के बीच भेद-भाव न हो। साहित्य, शोषण पर आधारित व्यवस्था का विरोधी है और सच्ची मानव समता पर आधारित व्यवस्था के निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध है।’ 

वर्तमान हिन्दी का दलित लेखक अपनी रचना के माध्यम से निरंतर नये मानदण्ड निर्मित कर रहे हैं। यह साहित्य समाज के दुःख-दर्द से जूझकर मनुष्य की लड़ाई लड़ता है। इसके उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए मोहनदास नैमिशराय कहते हैं-‘शोषक वर्ग के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए समाज से समता, बंधुता तथा मैत्री की स्थापना करना ही दलित साहित्य का उद्देश्य है।’  हिन्दी में रचित दलित साहित्य इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। साहित्य में सर्वप्रथम मराठी में दलित विमर्श आया। हिन्दी में दलित साहित्य की गूँज सन् 1980 के बाद ही सुनाई देनी शुरू हुई और आज यह लेखन मुख्य धारा में है। इसका अनुमान हंस के संपादक राजेन्द्र यादव की इस बात से लगाया जा सकता है कि ‘यदि हमारा साहित्य इसके लिए जगह नहीं छोड़ता तो वह शीघ्र ही अप्रसंगिक हो जायेगा।’  यादव जी का यह कथन हिन्दी में दलित चिन्तन की सशक्त अभिव्यक्ति और प्रबल हस्ताक्षेप को रेखांकित करता है। डॅा. वीरेन्द्र सिंह यादव अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य के विविध आयाम’  में दलित चिंतन एवं परम्परा को साहित्य लेखन के संदर्भ में एक विशेष निष्कर्ष निकालते हुए यह कहते हैं कि वर्तमान हिन्दी साहित्य में दलित  विमर्श की तीन धाराएँ परिलक्षित होती है। प्रथम श्रेणी  में वे लेखक आते हैं जिनका जन्म दलित जातियों में हुआ है। जिनके पास स्वानुभूति का विराट संसार है। दूसरी श्रेणी में सवर्ण लेखक आते हैं। जिन्होंने दलितों का चित्रण सौंदर्य की विषय-वस्तु मानकर किया है।  तीसरी श्रेणी उन प्रगतिशील लेखकों की है जो दलितों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त कर उन्हें सर्वहारा की स्थिति में देखते हैं। दलित हित चिंतन का साहित्य कौन-सा है। यह अभी तक विवाद का विषय बना हुआ है। इस साहित्य लेखन में जातिगत विभाजन केन्द्र में है। दलित साहित्य और दलित चिंतन से जुड़े अधिकांश मनीषियों का मानना है कि वास्तविक दलित साहित्य वही है जो दलितों द्वारा लिखा गया है। गुलामी की यातना को जो सहता है वही इसे जानता है और जो भोगता है वही पूरा सच कहता है सचमुच राख ही जानती है, जलने का अनुभव कोई और नहीं। 

हिन्दी दलित साहित्य में स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व प्रेमनंद, निराला, यशपाल प्रमुख कहानीकार हैं। स्वांतत्रयोत्तर कथाकारों में मार्कण्डेय, अमरकांत, राजेन्द्र यादव, नैमिशराय, ओम प्रकाश बाल्मीकि, पुन्नी सिंह, प्रेम कपाड़िया, डॅा. दयानंद बटोही, डॅा. तेज सिंह, बाबूलाल खंडा, रामचंद आदि चर्चित रचनाकार है। महिला कथाकारों में उषा चन्द्रा, रमणिका गुप्ता, रजत रानी ‘मीनू’, मैत्रेयी पुष्पा, सुभद्रा कुमारी आदि प्रमुख हैं। प्रेमचंद साहित्य द्वारा छुआछूत, जात-पात आदि का विरोध करते हैं। उनकी कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ में ब्राह्मणवाद पर प्रहार दर्शाया गया है। ‘सदगति’ में चमारों पर हो रहे शोषण का सजीव अंकन हुआ है। वही ‘पूस की रात’, ‘कफन’ में दलित संवेदना की झलक दिखायी पड़ती है। इसके अतिरिक्त ‘मन्त्र’, ‘दूध का दाम’, ‘मन्दिर’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘लांछन’, ‘सौभाग्य के कोड़े’, ‘शूद्र’, ‘झूठ’, ‘मुक्तिमार्ग’ ऐसी कहानियाँ है जिनसे पता चलता है कि प्रेमचंद दलित आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान देते हैं। वास्तव में प्रेमचंद की रचनाओं में दलित शब्द सीमित न होकर शुद्र, अछूत, धोबी, चमार, भंगी, उपेक्षित वर्ग तक विस्तृत है, जो शोषित है, पद दलित है। इस पर टिप्पणी करते हुए करूणा शंकर उपाध्याय ने कहा है-‘जब हम दलित विमर्श के आलोक में प्रेमचंद के कथा साहित्य पर पुनः दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि उसके विस्तृत कैनवास में भारतीय समाज का हरेक अंग उपस्थित है। इसके भीतर प्रविष्ट होते ही धर्म से पीड़ित, समाज द्वारा उपेक्षित, गांव के सीमान्त पर फैंका गया तथा कथित अछूत समाज, रोटी, कपड़ा, मकान के लिए जद्दोजहद  करता हुआ मजदूर वर्ग तथा जीवन की तमाम सुविधाओं से वंचित और युगों से पद दलित अमानवीय स्थितियों में जीने के लिए बाध्य अभिशप्त मनुष्यता अपने समूचे पाप-पुण्य के साथ उपस्थित मिलेगी।’  

इसी क्रम में निराला कृत ‘चतुरी चमार’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘कुल्लीभाट’ आदि प्रसिद्ध दलित कथा रचनाएँ है जिनमें दलित चेतना का सजीव अंकन हुआ है। वही यशपाल कृत ‘परदा’ कहानी भी दलित चेतना से ओत-प्रोत गहरी संवेदना का सृजन करती है। राहुल जी की ‘पुजारी’, ‘प्रभा और सुमेर’ भी दलित संवेदना को वाणी देने वाली कहानियां है। एक साहित्यकार अपनी रचनाओं में यथार्थ को सामने लाने में विश्वास रखता है। वह जात-पात का विरोध, शोषण, अन्याय, अत्याचार आदि का प्रतिरोध और समतामूलक समाज की स्थापना पर बल देता है। सदियों से समाजिक विसंगतियों ने उसे विद्रोही बना दिया है। इसी संदर्भ में रमणिक जी ने ठीक कहा है कि-”दलित कहानी सदियों से चली आ रही इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाती, बल्कि कुछ सवाल भी पूछती है।“  

दलित रचनाकारों की कहानियों में जहाँ सामाजिक बदलाव का स्वर है वहीं आक्रोश का भाव भी है, जो सदियों से उन्हें सहना पड़ा है। उदय प्रकाश की ‘टेपचू’ कहानी में टेपचू दलित पात्र है जो अन्याय के विरूद्ध खड़ा है। रमणिका गुप्ता की ‘बहू-जुठाई’ में शोषण के खिलाफ संघर्ष की यथार्थ झांकी प्रस्तुत हुई है। मार्कण्डेय की ‘हल्योग’ में चमार का अध्यापक बन जाना एक अनहोनी घटना को दर्शाया है। ओम प्रकाश वाल्मीकि का ‘सलाम’ एक चर्चित कहानी संग्रह है। इस संग्रह की सभी कहानियाँ दलितों के जीवन संघर्ष-व्यथा को प्रस्तुत करती है। राजेन्द्र यादव कृत ‘दो दिवंगत’ में सवर्णों के संकीर्ण दृष्टिकोण का प्रमाण मिलता है। हिन्दी साहित्य के अन्य कहानीकारों में दयानन्द बटोही कृत ‘सुरंग’ और ‘सुबह से पहले’ में दलित विरोधी चेतना, एवं दलित छात्रों से भेदभाव का अंकन हुआ है। प्रेम कापडिया ने ‘हरिजन’ कहानी में देवदासी प्रथा और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा किया है। इसी तरह रामचंद्र की ‘पलायन’, भागीरथ मेघवाल की ‘सूरज की चिता’, सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात’, ‘छूत कर दिया’, श्यौराज सिंह बेचैन की ‘अस्थियों के अक्षर’, ‘शोध प्रबंध’, ‘रावण’, मोती राम की ‘खुरपी’ चर्चित कहानियां है जो दलित चेतना के मुख्य संदर्भों को प्रस्तुत करती है। वास्तव में ‘दलित साहित्यकार जहाँ अपनी कृतियों में समानता, भाईचारे और आजादी का लक्ष्य हासिल करने हेतु जाति, नस्ल या रंग के आधार पर किसी भी विभेद को नकारता है, वही वह धर्म, सत्ता दर्शन अथवा जन्म के आधार पर किसी श्रेष्ठता अथवा निकृष्टता की अवधारणा को भी अस्वीकारता है। वह केवल दलित के लिए नहीं पूरे समाज के इन विभेदों को मिटाना चाहता है।  श्री जय प्रकाश् कद्रम के शब्दों में  ‘बीसवीं सदी के हिन्दी कथा साहित्य का उज्जवल पक्ष यही है कि कुलीनता और अभिजात्य की परिधि से बाहर निकलकर उसने समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्य की पीड़ा दर्द को समझने की चेष्टा के साथ अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष को भी प्रतिपाद्य बनाया है।’  

बोस्की मैंगी 
प्रवक्ता हिन्दी विभाग 
हिन्दु कन्या महाविद्यालय, 
धारीवाल (गुरदासपुर)  
ई-मेल:boskybosky2@gmail.com

महिला कहानीकार में अमृता प्रीतम, मन्नू भण्डारी, महाश्वेता देवी, उमा चंद्रा, कुसुम वियोगी, मैत्रेयी पुष्पा आदि प्रमुख ने दलित साहित्य लेखन में अपना योगदान दिया। सुभद्रा कुमारी चौहान का दलित प्रेम इन पंक्तियों में दर्शनीय है‘मैं अछूत मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है, किन्तु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है।’  मैत्रेयी पुष्पा के कथा साहित्य का परिवेश ग्रामीण, पिछड़ा और दलित समाज है। ‘छुटकारा’ कहानी अस्पृश्यता की समस्या पर आधारित है। ‘मन नांहि दस बीस’ में भी जाति-भेद, अस्पृश्यता पर प्रकाश डाला गया है। ‘अछूत स्त्रियाँ मन्दिर में’ लेख में मैत्रेयी पुष्पा लिखती है‘मन हुआ देखे तो सही, जिन मन्दिरों में जाने से हमें रोका जाता है, वहाँ है क्या? वे देवी-देवता कैसे हैं जो हमारे चेहरे-मोहरे देखे बिना ही बहिष्कार पर उतर आए। हम बेजुबान रहे, नहीं कह सके कि यह पक्षपात आदमी ने बनाया है कि भगवान तुमने?’  इस प्रकार लेखिका ने अपनी लेखनी के माध्यम से दलितों पर हो रहे अन्याय का यथार्थ पक्ष समाज के समक्ष प्रस्तुत कर उसे दूर करने के लिए एवं सोचने के लिए बाध्य किया है। इसी क्रम में उषा चंद्रा की कहानी ‘लोकतन्त्र में बकरी’ में संदेश दिया है कि दलितों की समाजिक आर्थिक दशा तभी सुधर सकती है जब उनके बच्चे खूब पढ़े और औरतों को भी समाज में बराबरी का दर्जा प्राप्त हो। 

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी की दलित कहानियां वर्तमान समस्त विसंगतियों एवं विद्रूपताओं का चित्रण ही नहीं करती बल्कि समाज में फैली कुरीतियों, शोषण, अन्याय से मुक्ति के विद्रोह और संघर्ष कर समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयासरत है। अतः दलित साहित्य को संकीर्णता का साहित्य मानना हमारी भूल होगी। क्योंकि साहित्य का काम समाज की संवेदनाओं को झकझोंर कर उसमें प्रगतिशील चेतना का संचार करना एवं उसे एक दिशा देना है। इस दृष्टिकोण से वर्तमान हिन्दी दलित कथा साहित्य इस काम को पूरी श्रद्धा एवं निष्ठा से अंजाम दे रहा है। 

संदर्भ सूची

  1.         हिन्दी आलोचना का दलित पक्ष (लेख): रूपेश कुमार सिंह
  2.  . दलित साहित्य की अंतः धारा और उसका सामाजिक यथार्थ (लेख)ःओम प्रकाश वाल्मीकि
  3.  . वही
  4.  . दलित साहित्य की परिभाषा और सीमाएँ (लेख): रमणिका गुप्ता  
  5.  . साहित्य और संस्कृति मंे दलित अस्मिता की पहचान के सवाल: मोहन नैमिशराय, नया पथ,             अंक 24-25, जुलाई-सितम्बर 1977, पृ.104-105.  
  6.  . दलित साहित्य बौद्धिक विमर्श के केन्द्र में हैं (लेख): राजेन्द्र यादव, संपा: पुन्नी सिंह, कमला                    प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा, भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ.280.  
  7.  . प्रेमचंद: साहित्य और संवेदना: पी.वी. विजयन (सं.) पृ.88.  
  8.  . दलित-चेतना: साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार: रमणिका गुप्ता, पृ.93.  
  9.  . दलित अस्मिता का विमर्श (लेख): ज्ञानेन्द्र कुमार, पृ.74. शब्द योग सितम्बर 2009. 
  10.  . हिन्दी कहानियों में दलित चेतना (लेख): सुरेन्द्र प्रसाद, युद्धरत आम आदमी, अंक 90, जनवरी-             मार्च 2008. 
  11.  . सुभद्रा कुमारी का दलित प्रेम: प्रभात दुबे, पृ.114, अक्षरा, जनवरी-फरवरी 2011.
  12.  . खुली खिड़कियाँ: अछूत स्त्रियाँ मन्दिर में ; मैत्रेयी पुष्पा, पृ.32. 

1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही अच्छा लेख है। जो दलित विमर्श को विस्तार से स्पष्ट करता है।

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