आलेख: भारतीय शिक्षा व्यवस्था के उभरते सरोकार/संदीप

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)

 भारतीय शिक्षा व्यवस्था के उभरते सरोकार
संदीप  

चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625)
भारत का हर बच्चा और नागरिक, शिक्षित हो यह सपना है, जिसे आधुनिक भारत के निर्माताओं ने देखा था। महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गाँधी, मदनमोहन मालवीय, अली बंधु, जाकिर हुसैन, डॉ. भीमराव अंबेडकर, डॉ. राममनोहर लेहिया आदि आधुनिक भारत के सभी युगपुरुषों व युगमहिलाओं ने शिक्षा पर जोर दिया और इस दिशा में प्रयास किए। लेकिन अफसोस है कि यह सपना अभी तक पूरा नहीं हुआ और निकट भविष्य में भी पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा है।

किसी भी देश के सारे नागरिकों का शिक्षित होना, उस देश के विकास की पहली शर्त है। इस पर लगभग आम सहमति है। विचारधारा कोई भी हो-साम्यवादी, समाजवादी, गाँधीवादी, उदारवादी या नव-उदारवादी सब इस एक मुद्दे पर सहमत हैं। शिक्षा कैसी हो, इस पर अलग-अलग राय हो सकती है। इसीलिए भारत के संविधान में दस वर्ष के अंदर देश के सारे बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था। इसके बावजूद देश आजाद होने के लगभग 66 वर्ष बीत जाने पर भी यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया। शायद सरकारों में बैठे लोग ;भारत का शासक वर्ग द्ध नहीं चाहते हैं, कि देश के सारे बच्चे भलीभांति शिक्षित हों। विश्व बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय ताकतों ने इसमें दखल देकर मामले को और जटिल बनाया है।

एक तरफ देश में शिक्षा का तेजी से निजीकरण, नव-उदारवादी नीतियों के तहत हो रहा है एवम् शिक्षा को बाजार की लाभ की वस्तु बनाते जा रहे हैं। दूसरी तरफ, सरकारी शिक्षा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। यह महज संयोग है या इसके पीछे सरकार की सोची-समझी नीतियाँ और अन्तराष्ट्रीय ताकतें भी हैं? शिक्षा में भेदभाव बढ़ेगा और शिक्षा महंगी होती जाएगी, तो देश के साधारण बच्चों के लिए शिक्षा में आगे बढ़ने के दरवाजे खुलेंगे या बंद होते जाएँगे? विकल्प क्या है? ऐसे कई मुद्दे जो सवालों के रूप में वर्तमान परिदृश्य में दिखाई पड़ रहे हैं जिनका विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में किया गया हैः-

भारत का संविधान और शिक्षा

हमारे संविधान निर्माता देश के सारे बच्चों को शिक्षा देना बहुत जरूरी मानते थे। संविधान सभा के अध्यक्ष बाबा साहेब अंबेडकर भी शिक्षा पर बहुत जोर देते थे। हमारे संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में यह लक्ष्य रखा गया था कि-‘‘सरकार देश के सारे बच्चों के लिए 14 वर्ष की उम्र तक मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था दस वर्ष के अंदर करने का उद्यम करेगी।’’

अफसोस की बात यह है कि जो काम दस वर्ष के अंदर हो जाना चाहिए था, वह लगभग 66 सालों में आर.टी.ई. एक्ट-2009 में जाकर हुआ। लेकिन इसमें भी यह व्यवहारिक रूप से धरातल पर लागू नहीं हो पाया। लेकिन यह कानून मात्रा एक आदर्श रूपी ही दिखाई पड़ता है और अगर कहीं लागू भी हुआ है तो वहाँ पर शिक्षा की गुणवत्ता का सवाल उभरता दिखाई पड़ता है। इसके पीछे कारण है नव उदारवादी नीति द्वारा जो विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि द्वारा जो धन का वितरण है वह बहुपर्ती स्कूल व्यवस्था के रूप मेें देखा जा सकता है। 

वास्तव में, दिसम्बर 2002 में प्रारंभिक शिक्षा को नागरिकों का मौलिक अधिकार बनाने के लिए भारतीय संविधान में 86वाँ संशोधन पारित किया गया। लेकिन संविधान संशोधन के पहले सन् 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्नीकृष्णन् मामले में एक फैसला दिया था, जिसमें शिक्षा के विषय में संविधान के नीति-निर्देशक तत्व को संविधान के ही अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन के अधिकार के साथ जोड़कर देखा गया। ज्ञान व शिक्षा के बगैर जीवन का अधिकार निरर्थक है, यह सर्वोच्च न्यायालय ने माना। इस प्रकार 1993 के फैसले ने ही 14 वर्ष की उम्र तक के बच्चों को मुफ्रत व अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया था।

ऐसा प्रतीत होता है कि उन्नीकृष्णन् फैसले के प्रभाव एवं उससे निकली जिम्मेदारी को कम करने के लिए ही भारत सरकार ने 86वां संविधान संशोधन पारित किया और अब ‘शिक्षा अधिकार कानून’ संसद ने पास किया है। दिसम्बर 2002 में प्रारंभिक शिक्षा को नागरिकों का मौलिक अधिकार बनाने के लिए भारतीय संविधान में 86वां संशोधन पारित किया गया है। किन्तु सरकार ने इसमें दो तरह की चतुराई की है। एक तो यह मौलिक अधिकार कक्षा 1 से 8 तक सीमित कर दिया है, जबकि नीति-निर्देशक तत्वों में 14 वर्ष की उम्र तक की शिक्षा का प्रावधान था। यानि कि पूर्व प्राथमिक ;कक्षा 1 से पहले कीद्ध शिक्षा की जवाबदारी से सरकार ने पल्ला झाड़ लिया है। इसी तरह कक्षा 9 से 12 तक की शिक्षा को भी मौलिक अधिकार में शामिल करके बच्चे इस दुनिया में आगे बढ़ने लायक नहीं हो पाएंगे। दूसरी चतुराई यह है कि 1 से 8 कक्षा तक की मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा भी ‘उस रीति में दी जाएगी जिसका निर्धारण सरकार कानून बनाकर करेगी।’यानि उस शिक्षा को सुनिश्चित करने का तरीका सरकारों पर छोड़ दिया गया है। इसी रीति को ही तय करने का काम नए शिक्षा अधिकार कानून में किया गया है, जिसमें स्कूलों की कई श्रेणियों एवं गैर बराबरी के साथ शिक्षा के नव-उदारवादी नीतियों के तहत बाजारीकरण की इजाजत दी गई।

नव उदारवादी नीतियों के तहत संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम के तहत साजिश

दरअसल इन परियोजनाओं के लिए विश्व बैंक व अन्य विदेशी संस्थाएँ धन दे रही है। वे जिन देशों को मदद करती है, उनकी नीतियों को भी प्रभावित करती है और मदद के साथ अपनी शर्ते रखती है। मार्च, 1990 में थाईलैंड के जोमतियन नगर में ‘सबको शिक्षा’ पर एक विश्व सम्मेलन हुआ, जिसे विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ ने आयोजित किया था। इस सम्मेलन में ही एक घोषणा भी जारी हुई, जिसे पर भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किए। इसी के बाद भारत में शिक्षा के लक्ष्यों, मानदण्डों और ढाँचे को बदलने का काम शुरू किया।

विश्व बैंक पर दुनिया के बड़े अमीर देशों का वर्चस्व है। विश्व बैंक का अध्यक्ष हमेशा एक अमरीकी होता है। अमीर देशों और उनकी कंपनियों के स्वार्थों को आगे बढ़ाने के काम करने के लिए विश्व बैंक बहुत बदनाम है। नव उदारवादी नीतियों के तहत निजीकरण और बाजारीकरण उसका प्रिय एजेंडा है। भारत के शिक्षा क्षेत्र में भी सरकारी शिक्षा व्यवस्था को कमजोर करके शिक्षा का बाजार बनाना और बढ़ाना उसका मकसद है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जोमतियन सम्मेलन ऐसे समय हुआ जब पूरी दुनिया में नवउदारवादी और वैश्वीकरण के वर्चस्व की शुरूआत हो रही थी। इस के एक वर्ष बाद ही सन् 1991 के भारत में नई आर्थिक नीतियों की शुरूआत हुई। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक का संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम यहाँ पर भी लागू हुआ, जिसमें वित्तीय घाटा कम करने के नाम पर शिक्षा सहित तमाम मदों पर खर्च में कटौती पर जोर दिया गया। विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित आर्थिक सुधारों से लोगों के जो कष्ट बढ़ेंगे, वे बगावत का रूप न लें लें, इसलिए कुछ राहत और सुरक्षा-जाल ;सेफ्रटी नेटद्ध के उपाय भी विश्व बैंक सुझाता है। जिसे सुशासन के नाम पर लागू किया गया था। जिसके तहत शिक्षा के क्षेत्र में खानापूर्ति के लिए स्कूल खोल देना, उनमें पूरे एवं प्रशिक्षित शिक्षक न देना, साक्षरता अभियान आदि उसी प्रकार के उफरी, फौरी तथा भ्रम बनाए रखने वाले उपाय हैं। इनसे भारत के बच्चों को शिक्षा का बुनियादी अधिकार नहीं मिलता।

सर्वशिक्षा अभियान की असलियत

सरकार काफी जोर-शोर से ‘सर्व शिक्षा अभियान’ चला रही है और उसमें काफी पैसा भी खर्च कर रही है। इसके पहले जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम ;डी.पी.ई.पी.द्ध और साक्षरता अभियान भी चला है। काफी कमियों के बावजूद आखिर उनसे हमें शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने में मदद ही मिली है।इन परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों को उनके सीमित दायरे में देखेंगे, तो उनकी कई उपलब्धियाँ नजर आएगी और कमियों के बारे में लगेगा कि उन्हें दूर किया जा सकता है। लेकिन हमें इन्हें सम्पूर्णता में भारत की शिक्षा की पूरी तस्वीर के साथ देखना होगा। इन्हीं के साथ भारत में नवउदारवादी नीति के तहत शिक्षा में भी निजीकरण और शिक्षा का बाजार बनाने का काम जोर-शोर से शुरू हुआ। देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने की जिम्मेदारी से सरकार पीछे हटने लगी। सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जानबूझकर उपेक्षित करने, बिगाड़ने और उसके मानदंडों को हल्का करने का काम भी इसके साथ ही हुआ। साक्षरता को स्कूली शिक्षा के विकल्प के रूप में भी पेश किया गया। पूरे शिक्षकों एवं सुविधाओं से युक्त व्यवस्थित शालाओं के स्थान पर एक-दो शिक्षक वाली ‘शिक्षा गारंटी शाला’ तथा प्रशिक्षित-स्थायी शिक्षकों के स्थान पर पैरा-शिक्षकों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति भी इसी अवधि में हुई।

निजी बनाम सरकारी प्रबंध
दरअसल बहुत कुछ सरकार की इच्छा शक्ति पर भी निर्भर करता है। पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने जानबूझकर हर क्षेत्र में सरकारी व्यवस्था बिगाड़ी है और निजीकरण एवम् बाजारीकरण को बढ़ावा दिया है। नहीं तो आज से बीस साल पहले तक सरकारी शिक्षा की हालत इतनी खराब नहीं थी। वहीं सरकार केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों को अच्छे से चला रही है। वास्तव में, आम बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की इच्छा शक्ति और प्रतिबद्धता हमारी सरकार में दिखाई नहीं देती।

स्कूली शिक्षा बनाम् उच्च शिक्षा
संवैधानिक निर्देश का एक और मतलब है, जिसकी ओर आम तौर पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसमें 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की शिक्षा की बात कही गई है, और उम्र की कोई निचली सीमा नहीं बताई है। यानी कक्षा 1 से पहले, जिसे आजकल के.जी., नर्सरी या पूर्व प्राथमिक शिक्षा कहा जाता है, तथा स्कूल से पहले आंगनबाड़ियों, बालवाड़ियों की समुचित शिक्षा की व्यवस्था करना भी सरकार की जवाबदेही है। देश के बहुत सारे बच्चे इससे वंचित रहते हैं। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चों के मस्तिष्क का ज्यादातर विकास इसी उम्र में होता है। इसलिए 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के समुचित पोषण, स्वास्थ्य और पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करना भी सरकार की जवाबदेही है।

यही सही है कि उच्च शिक्षा की प्राथमिकता दूसरी है और हमें सबसे पहले देश के हर बच्चे को कक्षा 12 तक की शिक्षा मिले, इसे सुनिश्चित करना होगा। सारे बच्चों को उच्च शिक्षा में जाने की जरूरत भी है। कक्षा 12 तक की शिक्षा पूरी करके वे समाज की विभिन्न गतिविधियों ;जैसे खेती, पशुपालन, मैकेनिक, खेल, संगीत, कला, विभिन्न प्रकार के शिल्प और उद्योग आदिद्ध में जा सकते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उच्च शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है। वह भी महत्वपूर्ण है और उसमें भी सरकार को ही महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी। यदी यह शिक्षा निजी हाथों में रही जैसा कि तेजी से हो रहा है तो काफी महंगी होती जाएगी और देश के लगभग 90 प्रतिशत बच्चे इससे वंचित होते जाएंगे। देश में गैर-बराबरी को बनाए रखने और बढ़ाने का यह बहुत बड़ा जरिया बना रहेगा।

यह जरूरी है कि उच्च शिक्षा की प्रकृति-पाठ्यक्रम और चरित्र में काफी बड़े बदलाव करने होंगे। आज हमारी उच्च शिक्षा काफी हद तक पश्चिमी देशों की नकल पर आधरित है और बहुत हद तक देश की परिस्थितियों व जरूरतों से कटी हुई हैै। इसे ज्यादा प्रासंगिक व ज्यादा जमीनी बनाने की जरूरत है और इस वर्चस्व को समाप्त करने की आवश्यकता है। हमारे शास्त्रों को भी नए सिरे से लिखने की जरूरत है। यह भी सही है कि इसी तरह के बदलाव स्कूली शिक्षा की विषयवस्तु व पद्धति में भी करने की जरूरत है।

ट्यूशन-कोचिंग का बाजार
आज कोचिंग देश के सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाले व सबसे तेजी से बढ़ते हुए उद्योगों में से एक हो गया है। लेकिन यह कोई गर्व या खुशी की बात नहीं है। न ही प्रगति का लक्षण है। यह सारा पैसा विद्यार्थियों-युवाओं के पालकों की जेब से निकल रहा है। यह लूट है। बहुसंख्यक युवाओं के लिए इन प्रतिस्पर्धाओं के दरवाजे बंद हो रहे हैं या प्रतिस्पर्धा ज्यादा गैर-बराबर हो रही है, क्योंकि उनके परिवार के पास कोचिंग के लिए लाखों रूपया नहीं है।यह जो गलाकाट प्रतिस्पर्धा का भयंकर माहौल है, यह भी काफी अस्वस्थ और दमघोंटू है। भारत के बच्चों और युवाओं की बहुत सारी उम्र और उर्जा इनके लिए रट्टा लगाने मेें बरबाद होती है। लाखों बच्चे असफल होते हैं तथा कुंठित व हीन भावना के शिकार होते हैं।

दरअसल कक्षा 12 की परीक्षा में प्राप्त अंकों को ही उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए आधार बनाना चाहिए तथा इनके लिए अलग से परीक्षाएँ लेने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। इसके लिए उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली में कोई जरूरी सुधार लगे तो किए जा सकते हैं। तब कोचिंग की जरूरत ही खत्म हो जाएगी और कोचिंग संस्थानों पर प्रतिबंध लगाया जा सकेगा।

शिक्षक व गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के साथ समझौता
पैरा शिक्षक का मतलब समझिए अर्ध-शिक्षक। पिछले कुछ समय से हमारी राज्य सरकारों ने शिक्षामित्र, शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, गुरूजी, अतिथि, शिक्षक, लोक शिक्षक, लोकमित्र, विद्या उपासक, विद्या वालंटियर आदि विभिन्न नामों से ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति शुरू कर दी है, जो अस्थाई होते हैं, प्रशिक्षित नहीं होते हैं और जिन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है। पुराने किस्म के प्रशिक्षित और पर्याप्त वेतन वाले शिक्षकों की नियुक्ति बंद कर दी गई है तथा उनके खाली पदों पर पैरा-शिक्षकों की ही नियुक्ति की जा रही है। अब स्कूलों में आधे से ज्यादा शिक्षक इसी तरह के हैं। इनका वेतन बहुत कम है- एक हजार रूपए मासिक से लेकर पाँच हजार रूपए मासिक तक। एक तरीके से सरकार ने इनकी नियुक्ति करके एक कंजूस बनिये की तरह पैसा बचाने का काम किया है। उसने शिक्षा के काम को ठेके और मजदूरी में बदल दिया है। ‘अतिथि शिक्षक’ की नियुक्ति तो दैनिक मजदूरी पर ही की जाती है- जितने दिन वह पढ़ाएगा / पढ़ाएगी उतने दिन की मजदूरी उसे मिलेगी। वह भी कई बार बहुत देर से मिलती है। कोर्स पूरा होने पर उनकी फरवरी में छुट्टी कर दी जाती है।इतने कम वेतन और रोजगार की अनिश्चितता के हालत में यदि शिक्षक मन लगाकर ठीक से बच्चों को नहीं पढ़ा पाता है, तो उसको ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। ऐसा लगता है कि सरकार ने गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोलने की खानापूर्ति तो कर दी है, लेकिन वास्तव में उन्हें शिक्षित करने की कोई इच्छा एवं प्रतिबद्धता उसमें दिखाई नहीं देती।

शिक्षा अधिकार कानून की खामियाँ
भारत सरकार ने तो शिक्षा के अधिकार का कानून बनाया है। जिसे संसद में ‘बच्चे के लिए मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा अध्किार विध्ेायक, 2009’ पास किया गया है। यह कानून बन जाने से कोई भी नागरिक शिक्षा का अधिकार पाने के लिए अदालत की शरण ले सकेगा और सरकार को मजबूर कर सकेगा। दूसरी ओर नवउदारवादी नीतियों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता दिखाई पड़ रहा है कि सरकार शिक्षा का अधिकार नहीं देना चाहती जिसके कारण दोनों दृष्टिकोणों में विरोधाभास दिखाई पड़ता है।

ऐसे कई विरोधाभास आज मौजूद हैं। सरकार द्वारा बनाये गए कानून में कई खामियाँ हैं। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में बढ़ती विषमता, भेदभाव और बाजारीकरण की प्रवृत्ति पर इसमें रोक नहीं लगाई गई है या फिर जो उपाय किए गए हैं,वे लचर और अप्रभावी है। सरकारी शिक्षा में दो कमरे-दो शिक्षक वाले स्कूल यानि अपर्याप्त शिक्षक और एक शिक्षक द्वारा कई कक्षाओं को पढ़ाया जाना तथा पैरा-शिक्षक की व्यवस्था को दूर करने के बजाय एक तरह से उस पर वैधता की मुहर लगाने का काम यह कानून करता है। सरकारी शिक्षकों को चुनाव, जनगणना जैसे अनेक कामों में लगाने पर कोई रोक इस कानून में नहीं है। नतीजा यह है कि यह कानून बन जाने के बाद भी देश के बहुसंख्यक गरीब बच्चों के लिए अधूरी, अधकचरी, घटिया और उपेक्षित शिक्षा व्यवस्था चालू रहेगी। दूसरी ओर अमीरों के बच्चे निजी स्कूलों में शिक्षा की बेहतर व्यवस्था में पढ़ते रहेंगे। अमीर-गरीब की खाई और बढ़ती जाएगी। शिक्षा की भूमिका देश के बच्चों में मेलजोल व सामंजस्य बढ़ाने की होनी चाहिए, वास्तव में इससे ठीक उल्टा हो रहा है।

यदि मुनाफा कमाने वाले निजी स्कूलों को चलने दिया जाता है तो वे इन प्रावधानों से बचने के तरीके निकाल लेंगे। जैसे केंपिटेशन फीस बिना रसीद के लेंगे या ट्यूशन फीस बढ़ा देंगे। महंगे निजी स्कूलों में गरीब बच्चों की मात्रा ट्यूशन फीस ही सरकार देगी। उनमें बाकी कई तरह के शुल्क और खर्च होते है, जिन्हें देना गरीब परिवारों के लिए मुश्किल होगा। यदि मान लिया जाए कि इन स्कूलों मंे 25 प्रतिशत सीटों पर गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ सकेंगे, तो भी समस्या हल नहीं होने वाली है। वर्तमान में देश में स्कूल जाने की उम्र ;6 से 14 वर्ष की आयु के समूहद्ध के करीब 19 करोड़ बच्चे हैं। लगभग 4 करोड़ बच्चे मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों में दाखिला मिलेगा। बाकी 1 करोड़ बच्चों का क्या होगा? वे घटिया, बिगड़ती, उपेक्षित, अधूरी, अधकचरी सरकारी शिक्षा को भोगने के लिए क्यों अभिशप्त हैं?

केन्द्र सरकार ने 11वीं पंचवर्षीय योजना में 6000 मॉडल स्कूल खोलने का फैसला किया है, जिनमें 2500 स्कूल ‘सार्वजनिक-निजी सहभागिता’ से खोले जाएंगे। इनके लिए निजी एजेंसियों से निविदाएं बुलाई जाएंगी और सरकार उनको जमीन, भवन निर्माण एवं उपकरण आदि के लिए धन उपलब्ध कराएगी। खास तौर पर शहरों में सरकारी स्कूलों के पास काफी जमीन है, जो अब बहुत कीमती हो गई है। उस जमीन पर पूँजीपतियों की नजर है। सरकारी ;जनता केद्ध संसाधनों से निजी फर्मों द्वारा मुनाफे कमाने का यह एक और उदाहरण होगा। किंतु सवाल यह है कि इनमें कितने बच्चों को शिक्षा मिल पाएगी? देश के बाकि 12 लाख स्कूलों और करोड़ों बच्चों का क्या होगा? ये मॉडल स्कूल या निजी स्कूल देश के बच्चों की शिक्षा की बेहतर व्यवस्था का विकल्प नहीं हो सकते।

देश के सारे बच्चे शिक्षित कैसे हो अर्थात् शिक्षा की पहुँच कहाँ तक सम्भव हो पाई है?

आर.टी.ई. एक्ट-2009 के बाद हमारे देश ने शिक्षा में बहुत प्रगति की है। गाँव-गाँव में स्कूल खुल गए हैं, 90 प्रतिशत बच्चे स्कूल जाने लगे हैं, साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ गया है। उच्च शिक्षा में भी काफी प्रगति हुई है। कई नए विश्वविद्यालय, ढेर सारे इंजीनियरिंग कॉलेज, मुक्त विश्वविद्यालय आदि अब मौजूद हैं, जिसे आगे बढ़ने के कई अवसर खुल गए है। सूचना तकनालॉजी के मामले में तो हम नंबर एक पर पहुँच गए है। क्या इसे हम प्रगति नहीं मानते?

हम मानते हैं कि प्रगति हुई है, लेकिन यह प्रगति नाकाफी, खोखली और दिखावटी है। कुछ मायनों में तो अब हम उल्टे गिरावट की दिशा में जा रहे है। स्कूल तो गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती में खुल गए हैं, लेकिन उनमें पढ़ाई नहीं होती है। कई स्कूलों में एक ही शिक्षक है। जहाँ ज्यादा शिक्षक है, वहाँ भी एक या दो किसी न किसी कारण से गैरहाजिर रहते हैं। इनमें से ज्यादातर ‘पैरा-शिक्षक’ है, जो पूरी तरह से प्रशिक्षित व स्थायी नहीं है। स्कूलों में बच्चों की दर्ज संख्या कुछ हद तक दिखावटी और आँकड़ें बढ़ाने के लिए है, वास्तव में उससे काफी कम बच्चे स्कूलों में मिलते हैं। फिर ये आँकड़ें तो राष्ट्रीय औसत के हैं। देश के कई पिछडे़ इलाकों में शिक्षा की हालत ज्यादा खराब है। गाँव में, लड़कियों में, दलितों में, आदिवासियों में अभी भी काफी बड़ी संख्या स्कूल नहीं जाती है। जो जाते हैं, उनमें भी काफी बच्चे बीच में ही स्कूल छोड़ देते हैं। स्कूल में पढ़ाई का स्तर भी बहुत खराब है।

स्कूल जरूरी है या अन्य?

यदि हम शिक्षा को जरूरी मानते हैं, उसे प्राथमिकता देते हैं, तो धनराशि कोई बड़ी समस्या नहीं है। कोठारी आयोग ने यह सुझाव दिया कि सरकार कुल राष्ट्रीय आय के 6 प्रतिशत के बराबर राशि शिक्षा पर खर्च करे। लेकिन यह आज तक नहीं हो पाया। वर्ष 2000-01 में केन्द्र व राज्य सरकारों का शिक्षा खर्च कुल राष्ट्रीय आय का 3.19 प्रतिशत था। यह बढ़ने के बजाय 2007-08 में घटकर 2.84 प्रतिशत रह गया है। भारत दुनिया में अपनी राष्ट्रीय आय में से शिक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का नबंर 115वाँ है। यह शर्मनाक है। भारत को दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनाने का दावा करने वाली भारत सरकार इस मामले में होड़ और बराबरी क्यों नहीं करती? अनपढ़, अशिक्षित, अज्ञानी नागरिकों का देश कैसे महाशक्ति बनेगा?

हमारी सरकारे सेना व हथियारों पर बहुत खर्च कर रही है। हवाई जहाजों, हवाई अड्डों, फ्रलाई ओवरों, पाँच सितारा होटलों पर भी बहुत खर्च करती है। जो पूँजीपतियों के हितों को साधने का काम करती है और जो बाजार में निजीकरण को बढ़ावा देकर किया जा रहा है। वर्ष 2010 में दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों पर वह कुल मिलाकर 80,000 करोड़ रुपए खर्च किये गये है, जो इस बात को साबित करती है। जबकि देश के बच्चों की स्कूली शिक्षा पर यह जरूरी खर्च क्यों नहीं किया जाता है?

कुछ सुझाव
प्रो. कृष्ण कुमारके अनुसार आर.टी.ई. एक्ट-2009 के संदर्भ में कहते हैं कि हर अच्छी चीज का विरोध तो होता ही है। जिनके स्वार्थ और विशेषाधिकार प्रभावित होते हैं ;पूँजीपतियों के रूप में निजी स्कूलों के मालिकों के रूप मेंद्ध उनकी ओर से विरोध होना स्वाभाविक है। लेकिन इस प्रणाली में देश के ज्यादातर लोगों को फायदा है, पूरे देश को शिक्षित करने एवम् आगे बढ़ाने का इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है, यह समझ में आने पर विरोध काफी कम हो जाएगा।जहाँ जनहित और पूरे देश के भविष्य का सवाल है, वहाँ कुछ नियम-कानून तो बनाने ही पड़ेंगे। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हमेशा एक सीमा होती है और जनहित में उन पर कुछ बंदिशें भी लगाना पड़ता है। आखिर हमने सड़क पर चलने के भी नियम बनाए हैं और किसी भी नागरिक को मनचाहे ढंग से सड़क पर चलने की आजादी नहीं दी जा सकती। पर्यावरण संरक्षण के भी कानून बनाए हैं तथा प्रदूषण फैलाने की आजादी पर अंकुश लगाए है। जो नवउदारवादी समाज में समता आधरित समाज कल्याणकारी अवधरणा को दर्शाती  है। जरा यह भी सोचिए की बच्चों की शिक्षा के मामले में वर्ग, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव पर अलग-अलग स्कूलों की इजाजत देकर क्या हम एक गंभीर अपराध् नहीं कर रहे हैं और भारत राष्ट्र की कल्पना पर ही कुठाराघात तो नहीं कर रहे हैं? इन बच्चों के आपस में मेलजोज और सहशिक्षा की संभावनाएँ खत्म करके क्या देश की एकता को मजबूत करने के अवसर नहीं खो रहे हैं?
फिर जिसे आप मनचाहा स्कूल चुनने की आजादी कह रहे हैं, वह तो थोड़े से पैसे वालों के लिए ही है। बहुसंख्यक गरीब लोग तो अपने बच्चों को सरकारी या घटिया सस्ते निजी स्कूल में भेजने को मजबूर है। उनके लिए चुनने की संकल्पना कहाँ है?

जबकि अमरीका-यूरोप के अनेक देशों में बहुत हद तक समान स्कूल प्रणाली ही चल रही है। जी-8 में शामिल दुनिया के सबसे ताकतवर और विकसित आठ मुल्कों ;संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, जापान, रूस, ्रफांस, जर्मनी व इटलीद्ध में से ब्रिटेन को छोड़कर अन्य सभी में सरकारी धन पर चलने वाली उम्दा गुणवत्ता की मजबूत सार्वजनिक स्कूल प्रणाली है। ब्रिटेन में भी पिछले लगभग 40 सालों के जनदबाव के कारण सार्वजनिक स्कूल प्रणाली मजबूत हुई है। अमरीका मे तो डेढ़ सौ सालों से सार्वजनिक स्कूल प्रणाली है, जहाँ अमीर-गरीब और विभिन्न नस्लों, मजहबों व भाषाओं के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं। वहाँ निजी स्कूल तो नाममात्र के है। बिना समान स्कूल प्रणाली अपनाए दुनिया का कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता है। जितना निजीकरण आज भारत में हो रहा है, उतना दुनिया के किसी भीसंपंन विकसित देश में नहीं हुआ है।यदि दुनिया के बड़े पूँजीवादी देशों में काफी हद तक समान स्कूल प्रणाली लागू हो सकती है, तो भारत में क्यों नहीं हो सकती है?
यदि देश के सारे बच्चों को अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध व विशेष रूप से सीमान्त वर्ग तक की पहुँच बनानी है तो ‘समान स्कूल प्रणाली’ के अलावा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है। इसका मतलब है कि सरकार देश के सारे बच्चों को सारी सुविधायुक्त शिक्षा की जिम्मेदारी लेगी। एक गाँव या एक मोहल्ले के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेंगे और इसके लिए कानून बनेगा। सेठ हो या मजदूर, कलेक्टर हो या चपरासी, व्यापारी हो या किसान सबके बच्चे एक साथ पढ़ेगें। उनमें कोई भेदभाव नहीं होगा। पैसे वालों को अपने बच्चे महंगे निजी स्कूलों में भेजने की इजाजत नहीं होगी। जब सारे बच्चे एक साथ पढ़ेगें तो उन स्कूलों की हालत अपने आप सुधरेगी।

जब पहले निजी स्कूल बहुत कम थे, तब बहुत हद तक ऐसी ही स्थिति थी। बड़े, प्रतिभाशाली एवं संपंन लोगों के बच्चे ज्यादात्तर सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते थे। तब इन स्कूलों पर सबकी नजर रहती थी। किन्तु अब सरकारी स्कूलों में सिर्फ एकदम गरीबों के बच्चे ही जाते है। इसलिए वहाँ क्या हो रहा है, समाज के प्रभावशाली लोगों को इसका पता ही नहीं चल पाता है और न उनको कोई परवाह रहती है। इससे ये स्कूल और ज्यादा उपेक्षित, वंचित और बुरी हालत में हो गए है।

साठ के दशक में भारत सरकार द्वारा शिक्षा के बारे में बनाए गए कोठारी आयोग ने भी ऐसी ही सिफारिश की थी। इस आयोग ने इसे ‘पड़ोसी स्कूल प्रणाली’कहा था, जिसमें सारे बच्चे अनिवार्य रूप से अपने पड़ोस के ही स्कूल में पढ़ने जाएंगे। भारत सरकार के शिक्षा अधिकार कानून में भी पड़ोस के स्कूल में शिक्षा के अधिकार की बात है। क्या वह यही चीज है? नहीं! इस कानून की धारा 3;1 में प्रत्येक बच्चे के पड़ोस या आसपास के विद्यालय में निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार की जो बात है, उसमें बच्चे के पड़ोस की बात कही गई है, न कि स्कूल के पड़ोस की। इसमें निजी और विशिष्ट स्कूलों को अपने पड़ोस के सारे बच्चों को शिक्षा देने की जिम्मेदारी से बरी कर दिया गया है। उन्हें मात्रा अपनी संस्था के 25 प्रतिशत तक गरीब बच्चों को प्रवेश देना है। बाकि गरीब बच्चे सरकारी स्कूलों में जाएंगे। इससे शिक्षा में भेदभाव और गैर-बराबरी कायम रहेगी तथा सरकारी स्कूल उपेक्षित व पतनशील रह जाएंगे।

इसके विपरीत, समान स्कूल प्रणाली में हर स्कूल का एक भौगोलिक दायरा या क्षेत्र होगा, जिसके अन्दर के सारे बच्चों को शिक्षित करना सरकार की जिम्मेदारी होगी। उस क्षेत्र में दूसरा स्कूल नहीं होगा। इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए आवश्यकतानुसार संसाधन उपलब्ध कराएगी।जो निजी स्कूल फीस लेते हैं, वे इस व्यवस्था में नहीं चल सकते, क्योंकि फीस लेने का मतलब है, उस क्षेत्र के गरीब बच्चे उस स्कूल में नहीं पढ़ पाएंगे। लेकिन कुछ निजी शिक्षण संस्थाएँ जो मुनोफे से प्रेरित नहीं है और परोपकार के उद्देश्य से चलती है, बच्चों से किसी प्रकार की फीस नहीं लेती हैं तथा उन्हें सारी जरूरी सुविधाएँ उपलब्ध कराती हैं, वे इस प्रणाली का हिस्सा हो सकती हैं। फीस के बजाय वे सामाजिक दान से अपने खर्च जुटा सकती हैं और सरकार भी ऐसी संस्थाओं को अनुदान दे सकती है। किन्तु इन निजी शिक्षण संस्थाओं को भी सरकार द्वारा निर्धरित पाठ्यक्रम पढ़ाना होगा और सरकार के द्वारा तय मानदंडों ;शिक्षक-छात्र अनुपात, भवन, प्रयोगशालाएँ, पुस्तकालय, खेल सामग्री, अन्य सुविधाएँ पर खरा उतरना होगा।

लेकिन आज कमाई करने के लिए कुकुरमुत्ते की तरह उग आई शिक्षा की निजी दुकानों की इस व्यवस्था में कोई जगह नहीं होगी, यह तय है। निजी स्कूलों में भी कई समानताएँ है। वे मनमान फीस एवं अन्य शुल्क वसूलते हैं और चाहे जब बढ़ा देते है। शिक्षकों को भी बहुत कम वेतन देकर उनका शोषण करते हैं। इन स्कूलों की पढ़ाई भी अक्सर काफी घटिया और अधकचरी होती है। छोटे-छोटे कस्बों के अनेक स्कूल ‘इंग्लिश मीडियम’ का बोर्ड लगाकर लोगों को बेवकूपफ भी बनाते हैं। आप यह समझ ले कि भारत जैसे विशाल देश में यदि सारे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उपलब्धता व बच्चों तक पहुँच बनानी हैं तो केवल पैसों वालों के बच्चों और ‘प्रतिभाशाली’ गरीब बच्चों को शिक्षा देकर बाकी के प्रति लापरवाह नहीं बनना है। तो उनकी समुचित शिक्षा की व्यवस्था की जिम्मेदारी मोटे तौर पर सरकार को ही लेनी होगी। 

इस गरीब देश में निजी संसाधानों से यह काम नहीं हो सकता। इसके लिए मुफ्रत, बिना भेदभाव की शिक्षा का ढाँचा सार्वजनिक संस्थानों को बनाना ही पड़ेगा। जहाँ पफीस लगाई, वहां गरीब वंचित हो जाएंगे। जहाँ भेदभाव और अलग-अलग शिक्षण की गुंजाइश बनी, वहाँ साधारण गरीब बच्चों की शिक्षा उपेक्षित, वंचित और कम स्तरीय हो जाएगी। अतः इस भारतीय शिक्षा को सुधारने के लिये समान स्कूल प्रणाली एक बेहतर विकल्प के रूप में संजीवनी की तरह कारगर सिद्ध होगी।

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संदीप,शोधार्थी,दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
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