कहानी :भूरी आँखे घुघुराले बाल – अनुपमा तिवाड़ी

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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कहानी :भूरी आँखे घुघुराले बाल – अनुपमा तिवाड़ी 

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
कस्बे के मौहल्ले में अधिकतर घरों पर ताले लटके थे। इक्के – दुक्के घरों के बाहर तार पर सूख रहे कपड़े कुछ लोगों के घरों में होने का पता दे रहे थे। कोई डेढ़ सौ घरों की बस्ती में कुछ – कुछ दूरी पर बीस – पच्चीस घरों में कुछ औरतें बीड़ी बनाती थीं, तो कुछ औरतें, बहुत कम रेट पर औरतों के पेटीकोट, ब्लाऊज सिलने का काम घर पर ही करती थी। आठवीं तक पढ़ने के बाद राजुल को माँ ने यह कह कर घर बिठा लिया कि तू घर का काम कर और मेरे फैक्ट्री से लाए कपड़ों पर तुरपन कर। मेरा तो दिन भर फैक्ट्री में ही बीत जाता है। तेरे बाप को तो होश नहीं है कमाने – धमाने का, इसको तो बस पीने को मिल जाए और जमाना भर, चौधराहट करने को! इसके सिवाय इसे और क्या चाहिए। गली के नुक्कड़ पर बड़े से बरगद के नीचे ऐसे ही चौधरियों का जमघट जमता। घंटों ताशपत्ती चलती। बस्ती की कितनी ही औरतें घर के काम निपटा कर आठ बजते – बजते रोटी कमाने निकल जाती।

जेठ की धूप में घरों के बाहर बस चबूतरे तपते रहते और कुछ गौरैयों के जोड़े चक – चक करते हुए छान की छत में घोंसला बनाने को आतुर दिखते। एक जोड़ा, राजुल के घर की दीवार पर लटकी तस्वीर के पीछे घोंसला बनाने का जतन करता दिखता। यह जोड़ा बहुत प्यार से फुदकते हुए एक-दूसरे के करीब आता और चोंच से चोंच मिलाकर चुहल करता रहता। राजुल देखती कि प्यार करना कैसा होता है, घर बनाना कैसा होता है। सच में मर्द और औरत पक्षी भी कैसे एक-दूसरे को प्यार करते हैं। उसके दिल में भी प्यार का अंकुर फूटने लगा। 
मौहल्ले के घर जानते थे कि किस–किस घर में दोपहर में कौन–कौन रहता है। कमरे में खिड़की के अन्दर सोलह बरस की राजुल देर तक बैठ कर माँ के फैक्ट्री से लाए कपड़ों को तुरपती रहती और तेज आवाज़ में उसके रेडियो पर प्रेमगीत बज रहे होते। वह उनके साथ–साथ गाती। उसका मन गीत के साथ ऐसे हो जाता जैसे वह गीत अपने प्रियतम के लिए ही गा रही हो। उसका मन कहता कि मैं तो बस गीत ही गाया करूँ। खाली गीत गाने की नौकरी नहीं होती क्या? होती भी होगी तो शायद बड़े आदमियों के लिए होती होगी। खैर रेडियो के साथ–साथ गीत गा–गाकर भी वह बहुत खुश होती।

पिछले कुछ दिनों से वो देख रही थी कि उसके घर की खिड़की से सटकर कोई भूरी आँखों, घुंघराले बालों का कोई सुन्दर-सा लड़का कई बार निकलता है। कौन हो सकता है? वह तो खुद इस मौह्हले में पैदा हुई है और उसने पहले इस लड़के को यहाँ कभी देखा भी नहीं। हो सकता है यह किसी के यहाँ रहने आया हो? पता नहीं! पर है बड़ा सुन्दर-सा, अच्छा-सा।

दोपहर भर में वह 4–5 बार वहाँ से निकलता। अब तो उसका वहाँ से निकलना घड़ी का समय बताने लगा। राजुल माँ के जाने के बाद जल्दी–जल्दी काम निबटा कर खिड़की में सूई, धागा और कपड़े ले कर बैठ जाती। कुछ दिनों के बाद हिम्मत करके एक दोपहर वह नीम के पेड़ के नीचे खाट डालकर कपड़े तुरपते हुए उस लड़के का इंतज़ार करने लगी। 

एक दिन उस पेड़ के नीचे खड़े हो कर उस लड़के ने ऐसे सांस ली जैसे बहुत दूर से धूप में चल कर आया हो। राजुल ने उससे पूछा –

क्या हुआ, बहुत धूप है न! लड़के ने मुस्कुराते हुए कहा ‘हाँ’ और फिर कुछ क्षण वहीं खड़ा रहा। राजुल उसके लिए अन्दर से पानी का लोटा ले कर आ गई और बोली धूप बहुत तेज है, पानी पी लो, थोड़ी देर  छाया में बैठ जाओ। लड़का बैठ गया। बातों का सिलसिला चला तो पता चला कि उसका नाम गोविन्द है। लम्बे कद और गौर-वर्ण के गोविन्द की भूरी आँखें और घुंघराले बाल थे जिनमें वह बात करते समय अपनी अंगुलियाँ फँसा कर पीछे करता रहता था। इस सुदर्शन से लड़के का ये आकर्षण राजुल जैसी लड़की को आकर्षित करने के लिए काफी था। बातों ही बातों में उसने बताया कि तालाब के पास वाला घर उसके मामा का है और वह उनकी दुकान पर उनके काम में हाथ बंटाने आया है।

ओह! तभी मैंने देखा कि यह तो कोई नए आदमी हैं, हमारे मौहल्ले के तो नहीं हैं. लड़के के होठों पर एक मुस्कुराहट फ़ैल गई। कुछ देर बाद वह चला गया। गली के पर नुक्कड़ पर जाते–जाते उसने मुड़ कर देखा राजुल उसके गली से मुड़ जाने तक उसे देख रही है। दोनों के दिल में कोमल-सा प्यार अपनी जगह बनाने लगा। अब गोविन्द का पेड़ के नीचे रुकने का क्रम बढ़ने लगा। चार महीने के बाद गोविन्द के मामा ने अपनी दुकान दूसरे शहर में जमा ली तो गोविन्द को भी मामा के साथ दूसरे शहर जाना पड़ा।

आख़िरी दिन राजुल, गोविन्द के कंधे पर सर रख कर रोने लगी। “तुम यहाँ आए ही क्यों थे, तुम नहीं आते तो ही अच्छा था, किसी का नहीं आना ही अच्छा होता है न! बजाय उसके आ के, जाने से. बताओ अब कैसे रहूँगी मैं, तुम्हारे बिना? गोविन्द उसके आंसू पोंछता हुआ बोला “पागल, चुप हो, मैं फिर आऊँगा, तुझसे मिलने, अपन हमेशा साथ रहेंगे.....”

कुछ दिन बाद माँ को राजुल बदली–बदली नज़र आने लगी। लेकिन माँ की नज़र से भला कहीं कुछ छुप पाता है? पूछताछ में पता चला कि वो पांच महीने से, महीने से नहीं हुई है। माँ का मुँह खुला का खुला रह गया। अब तो उसने उठाई लकड़ी और जमकर सूंत दिया बेटी को।

रंडी, हम कहाँ मुँह दिखाएंगे? तू मर क्यों नहीं गई? कलमुंही! भगवान, काला नाग डस जाए इसे! उसके गालों और पीठ पर नील उभर आई, जिनमें खून चमक रहा था।

कहाँ है वो कमीना? अभी दिख जाए तो अभी उसकी जूते – चप्पल से पूजा कर दूं! मेरे माँ–बाप ढेर सारी औलाद पैदा नहीं करते तो इस शराबी–कबाबी के पल्ले थोड़े ही बंधती। अब यह तो मेरे लिए मरे बराबर है। यहाँ तो रोज कुआँ खोदो और रोज पानी पीयो और पीयो ही नहीं, इस निखट्टू और इसकी औलाद को भी पिलाओ। घंटे भर माँ की बडबडाहट चली।

शाम को नशे में धुत्त बाप आया तो वह उस पर बिफर पड़ी।

“तू तो मस्त रह पी के, बेटी चांदना कर रही है तेरे नाम का। मैं कहती थी न कि इसके लिए कोई छोरा देख दे, पर तुझे तो पीने से फुर्सत मिले तब न! अब देख ये पेट में लाला के आए लड़के का पाप ले कर घूम रही है” बाप वैसे ही गालियाँ बकता रहा जैसे हमेशा घर में घुसते हुए बकता था उसके लिए सब दिन एकसमान थे।”

उस रात राजुल और उसकी माँ अलग–अलग बिस्तर पर पड़ी जागती रहीं। जब राजुल को लगा कि अब माँ सो रही है तब वह चुपके से उठी, गुसलखाने में गई और फिनायल की शीशी खोल कर नाक से उसकी तीखी गंध लेते हुए बुदबुदाने लगी इसी से मर जाऊं तो अच्छा है। सूंघने से ज्यादा वो उसे पीने का साहस नहीं कर पाई। अगली सुबह माँ ने फैक्ट्री की मालकिन से बोली मैडम जी, थारा सूं एक बात पूछूं? हाँ पूछो।

अजी अकेला में पूछणी छै।
चलो मेरे कमरे में। 
मैडम जी, काई है कि आपणी लाली पेट सू छै।
तो क्या हुआ ? ये तो अच्छी बात है आप तो नानी बन जाओगी।
अजी मैडम जी पण ऊ को ब्याव कोण हुओ हाल। 
ओह! कितने महीने से है?
पांच महीने से।
ओह! फिर तुम क्या कर रही थीं अभी तक?
म्हेणे काईं ठीक, इशी आग को।
अब की बात करो, अब क्या किया तुमने?
मैडम जी, ऊँने अजवैन और गुड़ को काढो दे दियो पर बच्चो गिरो ही कोण।
तुम्हारे गाँव में बच्चा गिराने का और क्या तरीका काम में लेते हैं?
मैडम जी पेट पे धमक भी मारें, पर ऊँ सो छोरी मरगी तो?

नहीं–नहीं ऐसे तो मत करो, मैं बताती हूँ “एक संस्था है जहाँ तुम अपनी लड़की को भेज सकती हो, अच्छी संस्था है. वहां जब बच्चा पैदा हो जाता है तब एक समिति के कहने पर बच्चा उनको गोद दे देते हैं जिनके बच्चा नहीं होता है या सरकार के कुछ होम होते हैं उसमें बच्चे पलने के लिए भेज देते हैं”

माँ ने ठंडी सांस ली जैसे उसे कोई नया रास्ता मिल गया हो और फिर जल्दी–जल्दी घर की ओर कदम बढ़ा दिए।

अगली रात की गाड़ी से राजुल माँ के साथ संस्था में पहुँची। माँ ने नाम, पता सब एक फॉर्म में भरवाया और फिर अगले दिन उसे वहां छोड़ कर घर आ गई। बेटी को वहां छोड़ कर माँ ने मुक्ति पाई लेकिन फाटक से निकलते हुए उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली। उधर राजुल की रुलाई रुकने का नाम नहीं ले रही थी। उस शाम दोनों ने रोटी नहीं खाई। अगले 2 -3 दिनों के बाद ही राजुल की माँ ने अपनी बहन सरोज को फोन खड़काया। 

हल्लो सरोज, किशी छै ?
चोखी छू।
और कंवर साहब, बच्चा?
वा भी चोखा छै।
सरोज देख, राजुल का ताईं छोरो बता?
अरे जीजी, हाल तो वा छोटी छै।
काईं छोटी छै, सत्रह बरस की होगी म्हणे छह महीना में ही ब्याहणी छै।
चल जीजी देखूं।
पांच – सात दिन के बाद सरोज का फोन आया।

जीजी, एक छोरो छै, चोखो कमावै, छोरी सुख पावेली पणऊ की फ़हलाँ वाली लुगाई कुआ में कूद र मरगी, ऊ कीनौ बरस की एक छोरी छै। बाकी घर में कोई कोण, बस बूढो सुसरो छै।

उधर संस्था में उसे सब ज्ञान देते अरी बेटा तू तो समझती। ये मर्द जात तो होती ही ऐसी है, औरत को तो अपनी इज्ज़त का ख़याल रखना पड़ता है न! राजुल की आँखों से आंसू हररात उसकी बांह को भिगोते रहते। उसका मन कहता वो नहीं जानती इज्ज़त–विज्जत, उसने तो बस उससे प्यार किया था, जी भर के प्यार किया था। उधर माँ से पड़ोसिनें राजुल के लिए पूछतीं तो माँ यही कहती कि “म्हारो भाई बीमार छै, जो सू मामा के गई है, हाल दो – चार महीना पाछै आवेली। 

बेटा गोद में दे दिया गया और अकेली राजुल बेहद कमजोर-सी अपने घर लौट आई। सात महीने के बाद राजुल विनोद को ब्याह दी गई।

अब माँ, बेटी को पीहर बुलाने से कतराती और जब साल – दो – साल में वह विनोद के साथ आती तो माँ या बेटी उसके साथ साये की तरह साथ रहतीं। कहीं बात खुल गई तो बहुत बुरा होगा। अब राजुल के पास छह साल की बेटी थी। उस दिन पीहर से ससुराल जाते समय तीनों स्टेशन पर बैठे थे। कुछ दूर एक बेंच पर बारह साल का लड़का अपने माँ–बाप के साथ हँस–हँस कर आइसक्रीम खा रहा था, जिसकी भूरी आँखें और घुंघराले बाल थे। राजुल की आँखें उस लड़के पर अटक गईं। अरे! उसकी आंखें भी तो भूरी और बाल घुंघराले होंगे न! कहीं ये वो ही तो नहीं! क्या पता वो बिलकुल अपने बाप को गया हो, मुझे तो उसे जन्म देते ही उससे दूर कर दिया था।

स्टेशन पर गाड़ी आ गई, राजुल की आँखें उसके चेहरे से नहीं हठ रही थीं और हाथ उसे छूने को जैसे कांपते हुए आगे बढ़ रहे थे। गाड़ी ने सीटी मारी, राजुल के पैर जैसे स्टेशन से सरकने का नाम नहीं ले रहे थे। विनोद चिल्लाया “जल्दी भाग, गाड़ी छूट जाएगी”. गाड़ी में बैठते ही राजुल की रुलाई फूट पड़ी। विनोद बोला पागल है, क्यों रो रही है?

तुम क्या जानो, माँ के घर से बेटी का जाना। माँ का घर छोड़ते कितना दुःख होता है। खूब रो लेने के बाद वह बेटी को ले कर ऊपर की सीट पर चढ़ गई। बेटी,माँ को लगातार रोते देख बोली “मम्मीचुप हो जाओ, अपन थोड़े दिन बाद फिर आ जाएंगे नानी के” माँ ने कोमल और प्यारी बेटी को आँख भर कर देखा और लरजते हाथों से अपने सीने से कस के चिपका लिया।

अनुपमा तिवाड़ी 
संदर्भ व्यक्ति, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, टाँक
सम्पर्क:anupamatiwari91@gmail.com,9413337759

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