आलेख : तुलसीदास और आज का मीडिया/ डॉ. रजनी राठी

    तुलसीदास और आज का मीडिया/ डॉ. रजनी राठी 

सारांश: रामचरित मानस के रचईता तुलीसदास जी आज भी काफी चर्चित हैं। उनकी ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी वाली पंक्ति के तो न जाने कितने अर्थ निकाले गए हैं। हालात यह है कि आज भी इसका सही अर्थ निकलाने पर शोध जारी है। हम भी यही करेंगे और इसका सही अर्थ निकलाने का प्रयास करेंगे। इसके लिए हम देखेंगे कि यह पंक्तियां किस संदर्भ में कही गई, इसका सही अर्थ क्‍या है, गलत अर्थ क्‍यों निकाले गए। हमें क्‍या करना चाहिए। इसके लिए हमने विभिन्‍न ब्‍लॉग व पुस्‍तकों का अध्‍ययन किया है।
भूमिका:  
                प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
                   ढोल, गँवार, सूद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।
     रियो ओलंपिक में साक्षी मलिक और पीवी सिंधू की जीत ने जब पूरे देश को गौरान्वित किया तो तुलसीदास जी एक बार फिर चर्चा में आ गए। कुछ लोगों ने उन धर्मग्रंथों पर सवाल उठाए जिनमें महिलाओं को दोयम दर्जे की माना गया है। महिलाओं को ताड़न की अधिकारी और गुलाम से भी बदतर बताया गया है।  लेकिन वास्‍तव में बात करें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि तुलसीदास जी को कुछ लोगों ने या तो जानबुझकर या अनसमझी में नारी विराधी करार दे दिया है लेकिन वे हैं नहीं। क्‍योंकि तुलसीदास जी ने एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी। भी कहा है। उन्‍होंने पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर तुलसीदास ने दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। लेकिन विशेषाधिकार वालों ने ढोल गँवार आदि जैसी पंक्तियां तो गढ़ लीं और एक नारीव्रतरत होने की बात चुपचाप पी गए। दर-असल मनुष्य वृत्ति ही ऐसी है, धार्मिक ग्रंथो और काव्यों की व्याख्या अपने-अपने हिसाब से कर लेते हैं| रामायण की चौपाइयां एक लाइन में कहेंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जायेगा... उसको समझने के लिए पूरी चौपाई पढना ज़रूरी है | क्‍योकि तुलसी के रामराज्य की परिकल्प ना में विरोधी प्रकृति के शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीने के अधिकारी थे तो ऐसे में किसी जाति, व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति इस प्रकार का दृष्टि सटीक और उचित प्रतीत नहीं होती। इस आधुनिक युग बदलते परिदृश्यअ, परिस्थितियों के अनुसार विचार करें तो हम निम्नतलिखित तथ्यों पर भी ध्यायनाकर्षण करते हुए सकारात्मपकता का परिचय दे सकते हैं।
तुलसीदास जी ने यह पंक्तियां कब कही
- डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार रामचरित मानस की ये चौपाई सुंदरकांड से है जब श्रीराम को असहाय अवस्था में देख समुद्र को अपने ऊपर घमंड हो गया था और श्रीराम के विनय को ठुकरा कर रास्ता नहीं दे रहा था। तब तुलसीदास जी ने प्रसंगवश इस चौपाई को प्रस्तुत किया। इस चौपाई की द्वितीय पंक्ति भारत में पर्याप्त विवाद एवं शोध का केंद्र बिंदु रही है। ढोल गंवार वाली पंक्ति राम और समुद्र की बातचीत में आई है जहां समुद्र जल होने के नाते अपने को जड़ कहता है और इस नियम की तरफ इशारा करता है कि जड़-प्रकृति को चेतन ब्रह्म ही संचालित करता है। वहां एकदम अप्रासंगिक ढंग से यह ढोल गंवार शूद्र वाली पंक्ति आ जाती है। निस्संदेह यह उन लोगों की करामात है जो यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि नारी पराधीन है और उसे स्वप्न में भी सुख नहीं है।" वे आगे कहते हैं – “सामंती व्यवस्था में स्त्रियों के लिए एक धर्म है तो पुरुषों के लिए दूसरा है। तुलसी के रामराज्य में दोनों के लिए एक ही नियम है:
क्‍या है शाब्दिक अर्थ
आधुनिक दृष्टि से व्याख्या - पंक्तियों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ निम्नवत हैं।
ढोल बजाने का यंत्र । जिसका प्रयोग प्राचीन काल में मुनादी करते समय जनता के ध्यानाकर्षण के लिए किया जाता था। इसका प्रयोग राजा, बादशाह आदि के किसी स्थान पर आगमन के समय भी किया जाता था जिससे उनके मार्ग खड़े लोग अलग हट जाएं और वो आवागमन कर सकें। 
गंवार - ग्रामीण व्यक्ति जो सामान्यत: अशिक्षित, असभ्य, अज्ञानी होते थे। 
शुद्र - जाति सूचक शब्द जो उस समूह के लिए प्रयुक्त: है जो बहुत सी पीढि़यों से अशिक्षित एवं अविकसित रहा। जिसका प्रयोग दास एवं सेवक के रूप में किया जाता रहा।
पशु - जानवर 
नारी - अर्धाग्निी, सहचरी, पत्नीय, माता, बहन
ताड़ना- सचेत करना, चेतावनी देना 
अधिकारी - जिसे अधिकार प्राप्त हो

क्‍या है असली अर्थ
- अधिकांश लोगों द्वारा की गई व्याख्याओं में शाब्दिक अर्थ लेकर तुलसीदास जी को नारी विरोधी करार दिया है जबकि तुलसीदास जी तो पूरे रामचरित में नारी का गुणगान करते रहे हैं। यहाँ ताड़ना का अर्थ है पहचानना या परखना, तुलसीदास कहते हैं अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचाते तो उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी। अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है। इसी तरह गवार का अर्थ किसी का मजाक उड़ना नहीं बल्कि उनसे है जो अज्ञानी हैं कि प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता । इसी तरह पशु के लिए भी अर्थ है, ठीक यही अर्थ नारी के परिप्रेक्ष में भी है, जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पचानाते, उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह से नहीं हो सकता। इतनी सुन्दर और ज्ञान रूपी इस रचना को विवादित बनना कितना बड़ा दिवालियापन है यह आसानी से समझा जा सकता है। यहां जो ताड़ना का अर्थ पीटने या मारने का लगाया जाता है वह नितांत ही गलत है और सबसे बड़ी बात तुलसीदास जैसे रचनाकार को समझे बिना उनपर अनाप सनाप टिप्पणी देना कितना उचित है यह समझ से परे है। इस महाकाव्य कि रचना में उनके जीवन भर कि तपस्या लगी होगी जिसका हम बिना समय लगाये कुछ बेवकूफ बुद्धिजीवियों का हवाला देकर आलोचना कर देते हैं। हम पढ़े लिखे लोगों में खोजने कि प्रवृत्ति कम और बिना सोचे समझे नक़ल करने कि प्रवृत्ति ने ही अर्थ को अनर्थ किया हुआ है। जिसका खामियाजा हमारी सनातन संस्कृति को भुगतना पड़ रहा है।

क्‍यों हुई गलत व्‍याख्‍याएं
- यह पंक्ति शोधकर्ता के मन में बहुत समय से थी तथा विचार करने पर पाया कि जिन तुलसीदास जी ने रामचरितमानस का पांरभ ही ‘‘बंदउं संत असज्जन चरना’’ किया हो वे कैसे समस्त शूद्रतथा स्त्रीको पिटाई का पात्र मान सकते हैं।
ढोल :- अधिकांश विचारकों ने ढोल को मात्र वाद्ययंत्र के अर्थ तक रखा है। ढोल बजाने के पीछे के उददेश्यप को छोड़ दिया है। भक्ति काल तक भारतीय जनमानस राजा, महाराजाओं और मुगल बादशाहों के शासन को देख चुकी था। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो मुनादी करते समय ढोल, दुदुम्भी् इत्या दि वाद्ययंत्रों का प्रयोग जनता एवं अधिकारी, कर्मचारियों को सचेत करने के लिए किया जाता था । मनोरंजन में भी इसका प्रयोग होता था परंतु उस समय इन यंत्रों को बजाने की शैली और ध्वयनि प्रभाव प्रृथक होता था । तात्पर्य यही है कि जो व्यक्ति इन यंत्रों को बजाने के लिए पात्र थे वे शासक द्वारा विशेष रूप से आदेश व अधिकार प्राप्त थे और उसी के अनुरूप वे इनका प्रयोग करते थे। वर्तमान में भी आपातकाल या जनहित में एक से अधिक लोगों को सामूहिक रूप से सूचना देने के लिए लाउड स्पीकर  का प्रयोग किया जाता है । इस यंत्र को प्राचीन यंत्र ढोल का पर्याय मानना अतिश्यो्क्ति नहीं होगी। उस समय ढोल और वर्तमान में लाउड स्पीकर अधिकार का बोध कराता है।
गंवार, शूद्र और पशु – सर्वविदित है कि गंवार, शूद्र और पशु प्राचीन काल से ही अपने अपरिपक्व व्यवहार, अज्ञान और असंतुलित व्यवहार करने के रूप में जाने जाते हैं। जब कोई प्राणी व्यंवहार की दृष्टि से परिपक्व ही नहीं है तो उसे द्वारा कहे गए या उसके द्वारा किए आचरण का बुरा मानने का कोई लाभ नहीं है। ऐसे में गंवार व्यतक्ति अज्ञानवश किसी को ताड़ने का अधिकारी बन जाता है क्यों कि उसकी बात का कोई बुरा नहीं मानता है। इसलिए तुलसीदास जी ने कहा है कि –
                      तुलसी बुरा न मानिए जो गंवार कहि जाए।
                        चौमासे का लादमा पानी में बहि जाए।।

अत: यदि हम प्रस्तुत चौपाई को नवीन अर्थों में ग्रहण करते हैं तो यह हमारे देश, समाज और एक महान साहित्यकार के न्याय हो सकता है साथ इससे धर्म, जाति आदि के आधार पर वैमनस्यश के एक कारण का निराकरण होगा। अंत में कुछ नया सोचने व करने के लिए हिंदी कवि एवं गीतकार स्व. दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों से प्रेरणा लेते हुए सकारात्मक सोच की ओर बढ़ा जा सकता है। 
                       हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
                     इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
                      सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
                      मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
                       मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
                     हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।


संदर्भ -
1.
रामचरित मानस (उत्तीरकांड), भारतीय साहित्य् संग्रह,दिल्ली, 1982
2. डॉ. रामविलास शर्मा:परंपरा का मूल्यांकन, राजकमल‍ प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004
3.
विद्यानिवास मिश्र: तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष,ग्रंथ अकादमी,दिल्ली, 2008
4.
श्रीरामकिंकर जी महाराज: तुलसीदास मेरी दृष्टि में,रामयाण ट्रस्ट,2000)
5.
हिंदी कुंज, हिंदी साहित्य वेब पत्रिका

6.
http://hi.bharatdiscovery.org/india
7.
http://www.bharatdarshan.co.nz/hindi/index.php?page=tulsidas
8.
http://www.khabarwala.com/…/826-tulsidas-is-proud-of-his-ge…
9.
http://days.jagranjunction.com/…/goswami-tulsidass-biography
10.
http://aajtak-patrika.blogspot.in/…/sant-tulsidas-ke-dohe-k…
11.
http://vimisahitya.wordpress.com/…/02/tulsidas_jeewan_paric…


(लेखक पूर्व सहायक प्रोफेसर, पत्रकारिता एवं जन संचार विभाग, बीएलएस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्‍नालॉजी मैनेजमेंट, बहादुरगढ़, हरियाणा )
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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