आत्मकथ्य: शिक्षा, शिक्षा और शिक्षा/ अभिनव सरोवा

                                    शिक्षा, शिक्षा और शिक्षा
    
सबसे पहली बात शिक्षा एक अमूर्त अवधारणा है। इसका कोई भौतिक स्वरूप नहीं है। यह कंप्यूटर या मोबाइल के सॉफ्टवेयर की तरह एक प्रोग्राम माना जा सकता है। इसे छुआ नहीं जा सकता बस महसूस किया जा सकता है। जो कि इसे रखने वाला भी कर सकता है और देखने वाला भी। शिक्षा व्यक्ति के मन, बुद्धि और आत्मा के विकास का दूसरा नाम है। इसे बालक व्यक्तित्व विकास का अनिवार्य अंग माना जा सकता है। ये बालक की अंतर्निहित शक्तियों के प्रकटीकरण का आधार है। विभिन्न शिक्षाविदो और मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षा की अपनी अलग-अलग परिभाषाओं में इन्हीं बिंदुओं को रेखांकित किया है।

       चलिए लगे हाथ एक औपचारिकता और कर लेते हैं। वह है शिक्षा की उत्पत्ति। तो जनाब, शिक्षा की उत्पत्ति न किसी धातु से हुई है, न ठोस से, न गैस से और न ही द्रव से। यह पल-प्रतिपल उत्पन्न होती है और हर बीते पल से वर्तमान पल और अधिक शिक्षित होता है। शिक्षा वास्तव में सीखने और सीखकर व्यवहार में परिवर्तन का नाम है। पढ़-लिख कर व्यवहार में परिवर्तन नहीं आया तो इसे हम सिर्फ डिग्री हासिल करना कहें तो ज्यादा सही है। शिक्षा और व्यवहार में परिवर्तन का सकारात्मक संबंध है। शिक्षित व्यक्ति का विनयी, विनम्र होना अत्यंत आवश्यक है। शायद इसी कारण 'विद्या ददाति विनयम' की अवधारणा का जन्म हुआ था। हाँ, हमें अपने आत्मसम्मान को भी विस्मृत नहीं करना है। हम अपने आत्मसम्मान की रक्षा न कर सकें तो हमारा शिक्षित होना भी न होने जैसा ही है। यह विषयी की मानसिक परिपक्वता का सूचक भी है। शिक्षित व्यक्ति के विचारों में एक स्थायित्व होता है। उसे हर चीज एवं बात को तर्क की कसौटी पर कसना जरूरी होता है तथा उसी के अनुरूप अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करवाना भी।

       शिक्षा हमें किसी वस्तु, परिस्थिति या समस्या को समझने एवं उससे निपटने में मदद करती है। किसी भी परिस्थिति में समायोजन हौसला देती है। पढ़-लिखकर हम किसी विषय पर तर्क न कर पाएँ तो हमारी शिक्षा पर प्रश्नचिह्न लगता है। तब हम पढ़े-लिखे की बजाय लिखे-पढ़े की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं। ऐसे में हम अनायास ही शिक्षितों के समूह से हटकर साक्षरों के समूह में शामिल हो जाते हैं। शिक्षा से हम मानवीय मूल्यों को प्राप्त करते हैं एवं अपने जीवन में उतारते हैं। हमारा मन इससे पोषित होता है, मानसिक शांति एवं संतुष्टि प्राप्त करने का माध्यम भी यही है।

      यह सामाजिक व्यवहार को दिशा प्रदान करती है तथा हमारे लिए आवश्यक जिम्मेदारी भी तय करती है। एक शिक्षित एवं सामाजिक जिम्मेदार व्यक्ति से समाज लाभांवित होना चाहता है। तब वह अपनी शिक्षा, प्राप्त मूल्य एवं अनुभवों से समाज को नई दिशा प्रदान करता है एवं बुलंदी के शिखर की तरफ लेकर जाता है।

       वर्तमान में हमारी शिक्षा प्रणाली मूल्यों पर कम और नौकरी पर ज्यादा बल देती दिख रही है। हमारी शिक्षा प्रणाली, इसे दूसरे शब्दों में परिणाम प्रणाली भी कह सकते हैं बालक में मानवीय गुणों पर अच्छे अंकों या ग्रेड को तरजीह देती है। इससे बच्चों की सहजता, स्वच्छन्दता, नादानियाँ, किलकारियाँ, निश्छल हँसी और जिज्ञासाएँ इतिहास की बातें बनती जा रही है। इससे बच्चों में उम्र के मुताबिक समझ नहीं आ पाती। इसका एक अन्य कारण अनुशासन के नाम पर बच्चों को शिक्षा सहगामी क्रियाओं से वंचित रखना भी है। इससे वह दब्बू किस्म का बन जाता है जबकि उसे मुखर होना चाहिए था। इसी कड़ी में आज का बालक भविष्य का नागरिक बनकर अपने साथ होने वाले जोर-जुल्म, ज्यादतियों एवं अन्याय को अपनी नियति मानकर सहन करता चला जाता है। एक शिक्षित व्यक्ति से हम उम्मीद करते हैं कि वह किसी अव्यवस्था, विद्रूपता, अंधविश्वास या किसी कुरीति का विरोध करें या अपनी तरफ से तर्क सहित आपत्ति दर्ज करवाए। लेकिन देखने में आता है कि ऐसी परिस्थिति में गाँधी के तीनों बंदर हममें अपना घर कर लेते हैं और हम उन्हीं के अनुरूप व्यवहार करते हैं। न हमें कुछ गलत लगता है, न हम सुनते हैं और न ही उनके खिलाफ बोलते ही हैं।
         मेरा निजी विचार है कि हमारे विद्यालयों में शिक्षक एवं विद्यार्थियों की मध्य संवाद की बहुत कमी है। उनमें औपचारिक एवं अनौपचारिक संवाद होना अत्यंत आवश्यक है। देखने में आता है कि न केवल विद्यालय बल्कि महाविद्यालयों में भी परस्पर सवांद की बहुत कमी है। छात्रों और शिक्षकों में देश-दुनिया के समसामयिक विषयों पर संवाद रूपी स्वतंत्र बहस का आयोजन होना चाहिए। यह आयोजन शिक्षकों एवं वरिष्ठ छात्रों की देखरेख में होना चाहिए। इसमें खुला सत्र भी रखा जाना चाहिए। जिससे हर विद्यार्थी को अभिव्यक्ति का अवसर मिल सके। अंतर्मुखी बच्चों को मुखर बनाने हेतु विषय किया एक या दो दिन पूर्व दिया जाना चाहिए। ऐसे छात्रों के लिए दो या दो से अधिक शिक्षकों या छात्रों का एक परामर्श समूह भी होना आवश्यक है। जो समय-समय पर ऐसे बच्चों की मॉनिटरिंग करे और उन्हें अभिव्यक्ति के अवसर और उसके तरीके से अवगत करवाता रहे। इसे प्रशिक्षण क्लास के रूप में लिया जाना चाहिए। विद्यालय में इसके लिए अतिथि शिक्षक की क्लास करवाई जा सकती है जो एक महीने में कम से कम दो होनी चाहिए। जिसमें देश-दुनिया के समसामयिक मुद्दों, राजनीतिक परिदृश्य, वैज्ञानिक खोज, भाषा, पर्यावरण, भ्रष्टाचार और सामाजिक कुरीतियों पर चर्चा करवाई जा सकती है। सभी बच्चों को बोलने का समान अवसर दिया जाना आवश्यक है। ऐसे संवाद आजकल विश्वविद्यालयों में ही जिंदा हैं। हमें इस कार्यक्रम को वृहद् आकार देना है और इसे हर विद्यालय तक पहुँचाना है। यदि ऐसा होता है तो शिक्षक का उत्तरदायित्व बढ़ जाएगा। उसे संवाद को सुचारू और संजीदा बनाये रखने के लिए खुद की जानकारी बढ़ानी पड़ेगी जो उसके कक्षा-कक्ष शिक्षण में भी झलकेगी। इस प्रकार एक ही साथ एकाधिक शिक्षण उद्देश्य पूरे होते नजर आएंगे।

हकीकत में एक शिक्षक के नैतिक, सामाजिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व बहुत ज्यादा हैं। उस पर शिक्षण के साथ-साथ अन्य राजकीय कार्यों का भी दबाव रहता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है शिक्षा स्वतःस्फूर्त और अर्जित होती है। लेकिन उसे समुचित मार्गदर्शन और देखरेख के द्वारा एक दिशा दी जा सकती है। ये काम एक शिक्षक कर सकता है। इस मार्गदर्शन और देखरेख में कुशलता लाने हेतु उसे चाहिए कि वह बालक की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों से परिचित हो। यदि वो ऐसा करते हैं तो उनकी कार्यकुशलता तो बढ़ेगी ही साथ ही आने वाले परिणाम भी उत्साहवर्द्धक होंगे।
      इन सबके साथ-साथ स्कूल में भी कुछ कार्य हैं जो किए जाने चाहिए। अक्सर बच्चों को इनसे महरूम ही रखा जाता है। ज्यादा भी नहीं तो कम से कम दो काम तो अवश्य किए जाने चाहिए। पहला- पुस्तकालय का प्रयोग कागजों से बाहर निकलकर धरातल भी किया जाना समय, बच्चे, हमारे व्यवसाय की माँग है। देश दुनिया के साहित्य से रूबरू होना बच्चे का अधिकार भी है तो हमारा उससे परिचित करवाना हमारा कर्तव्य भी। बालक को अपने देश के साथ-साथ विदेशों के इतिहास, भूगोल, वैज्ञानिक खोज, राजनीति, न्याय पद्धति, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक स्थिति, वेशभूषा, खानपान, उत्सव-पर्व, आज़ादी के संघर्ष, महापुरुषों, महान नारियों इत्यादि से परिचित होना चाहिए। ये कार्य कक्षा-कक्ष शिक्षण से इतर पुस्तकालय की मदद से किया जा सकता है। लिहाजा हमें ये करना चाहिए। जिस विद्यालय के बच्चे खाली कालांश में पुस्तकालय या वाचनालय में पाए जाते हैं, उसके बच्चे अन्य विद्यालयों के बच्चों से मुखर और प्रतिभावान, जानकारियों से भरे हुए और आत्मविश्वास से लबरेज मिलेंगे।

दूसरा- शिक्षा के उद्देश्यों की बात करें तो उनमें एक शब्द आता है- बालक का सर्वांगीण विकास। इसमें बालक के शारीरिक विकास को भी शामिल किया जाता है। शारीरिक विकास और मजबूती बहुत कुछ शारीरिक श्रम और अभ्यास पर निर्भर करते हैं। इस कड़ी में विद्यालय की समय-सारणी में तय किए गए खेलकूद के कालांश को धरातल पर अमलीजामा पहनाने की आवश्यकता है। इस कड़ी में विद्यालय में उपलब्ध खेल सामग्री और सुविधाओं को मद्देनजर रखते हुए खेलों का चयन किया जा सकता है। यदि खेल सामग्री का टोटा है या खेल मैदान की कमी है तो आउटडोर की बजाय इंडोर खेलों को चुना जाना चाहिए। मसलन- कबड्डी, खो-खो,  दौड़लंबी कूद,  ऊँची कूद इत्यादि। खेल सामग्री और मैदान की उपलब्धता की स्थिति में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी जैसे खेल भी खिलवाए जा सकते हैं। मानसिक अभिव्यक्ति को बढ़ाने में भी खेल बहुत आवश्यक और मददगार साबित हो सकते हैं। इनमें स्थानीय और प्रतिष्ठित खेलों को शामिल किया जाना चाहिए। स्थानीय खेलों में चरभर और प्रतिष्ठित खेलों में शतरंज,  ब्लॉक भरना, पहेली, अंत्याक्षरी इत्यादि को शामिल किया जाना चाहिए। ये काम स्कूल प्रशासक होने की दृष्टि से प्रधानाध्यापक और प्रधानाचार्य पर निर्भर करता है।

     हमारा काम बच्चों के विकास के साथ-साथ उन्हें सही मार्गदर्शन भी करना होता है। इस कड़ी में बच्चों की रुचियों की पहचान करके उन्हें भविष्य में उसी दिशा में बढ़ने की सलाह और सहयोग देने की जरूरत है। कई दफा देखा जाता है कि अभिभावक गण बच्चों पर अपनी रुचि थोपते हैं। ऐसे में एक शिक्षक को उनसे मिलकर बात भी करनी चाहिए। बेशक उसे स्कूल समय के अलावा भी समय देना पड़े तो दें। क्योंकि हम केवल स्कूल समय मे ही नहीं बल्कि इसके अलावा भी एक शिक्षक ही होते हैं।

       एक शिक्षक के लिए खुद के बच्चों की सफलता से भी खुशी और गर्व का पल वो होता है जब उसके द्वारा पढ़ाए गए बच्चे विभिन्न स्थानों पर अपनी काबिलियत के जलवे बिखेरते हैं। सरकारी नौकरी ही सब कुछ नहीं है इससे अलग भी वे अपनी योग्यता का लोहा मनवा सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो ये पल एक शिक्षक के लिए बहुत ही गर्व भरे और सुकून देने वाले होते हैं। मेरे निजी रूप से मानना है कि यदि हमारा कक्षा-कक्ष शिक्षण के अलावा बच्चों से संपर्क हो और उन्हें गाइड करते हैं तो स्कूल से निकलकर वे बच्चे अपनी सफलता की इबारत गढ़ेंगे और संभव है कि अर्जित उपलब्धि की सूचनार्थ पहला फोन आपको ही आए। यकीन मानिए उस समय आँखें नम होंगी पर उन आँसुओं की नमकीनपने में कभी न खत्म होने वाली मिठास होगी।

माना कि कुछ मामलों में हमारे हाथ बँधे होते हैं। हम वही कर सकते हैं जो सरकार या विभाग ने हमारे पाठ्यक्रम में तय कर दिया है। लेकिन यकीन मानिए हम इसी शिक्षा प्रणाली में रहते हुए भी बेहतर कर सकते हैं। जरूरत है लीक से हटकर सोचने और उसे क्रियान्वित करने की। लीक से हटाकर सोचना हर अध्यापक के लिए अलग-अलग हो सकता है। उसे अपनी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की लैंगिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक परिस्थितियों का अध्ययन करने के उपरांत उसी हिसाब से सोचना और क्रियान्वित करना होगा। स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा भी वही जानकारी बाहर भी बिखरी पड़ी है जो हमें बच्चों को देनी होती है। इसलिए हमें अपनी जानकारी को बच्चों संग शेयर करना होगा। अपने सीखने-सिखाने के तरीके बदलने होंगे। बच्चों को ऐसे ढंग से पढ़ाना होगा जो रुचिपूर्ण लगे, शिक्षण से जोड़े। ये सब हम अपनी काबिलियत, अनुभव और योग्यता से कर सकते हैं। जिसके लिए न अतिरिक्त संसाधन की जरूरत है न प्रणाली बदलने की। बस जरूरत है इच्छाशक्ति की और वो मेरे साथियों में भरपूर है।

अभिनव सरोवा,
व्याख्याता(हिंदी साहित्य), स्कूल शिक्षा, राजस्थान सरकार
सम्पर्क: 9314911782

          अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

8 टिप्पणियाँ

  1. शिक्षा और शिक्षक पर आप के विचार प्रशंसनीय है, आपके विचार हम जैसे विद्यार्थियों के लिए मार्गदर्शन है। धन्यवाद सर।

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  2. शिक्षा का सही मायनो मे यही अर्थ है वर्तमान सन्दर्भ मे

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  3. एक अच्छे शिक्षक की यही पूंजी होती है।

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