समीक्षायन:शिक्षा व्यवस्था ने ही अमीर और गरीब की खाई को और गहरा कर दिया है / दुर्गा सीरवी

             पुस्तक समीक्षा: राज समाज और शिक्षा लेखक - प्रो. कृष्ण कुमार

प्रोफेसर कृष्ण कुमार द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘राज समाज और शिक्षा’’ को पढ़ने के बाद और अधिक जानकारी मिलती है कि देश में शिक्षा व्यवस्था और प्रशासन का क्या हाल है। इस शिक्षा व्यवस्था ने ही अमीर और गरीब के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है क्योंकि बच्चों को ऐसी ही शिक्षा दी जा रही है जिससे गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर होता जा रहा है।

प्रोफेसर कृष्ण कुमार जी ने बताया है कि जिस तरह जीवन को शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था आदि आयु वर्गों में बांटा गया है, उसी प्रकार शिक्षा को भी कक्षाओं के माध्यम से बांट दिया गया है। इन कक्षाओं में यह बात सामने आती है कि छोटी कक्षाओं के बच्चों का, बड़ी कक्षाओं के बच्चों के साथ कोई सम्पर्क नहीं रहता। छोटे बच्चे अपने से बड़े या अन्य कक्षाओं के बच्चों से बात करने में हिचकिचाते है और अन्य कक्षाओं के अध्यापकों के साथ भी उनकी कोई बातचीत नहीं हो पाती है। समाज में बच्चों को अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि बड़े होकर क्या बनोगे? यह प्रश्न छोटे बच्चों पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा देता है। बालक जिज्ञासावश कक्षा में अध्यापक से कुछ ऐसे सवाल पूछ लेता है जो अध्यापक की समझ से बाहर हो तो अध्यापक यह कहकर टाल देता है कि अभी तुम छोटे हो या यह आपके पाठ्यक्रम में नहीं है।

लेखक ने सरकारी विद्यालयों और निजी विद्यालयों के बारे में बताया है कि इन पब्लिक स्कूलों में केवल पूंजीपति वर्ग का ही आधिपत्य है यह केवल नाम से पब्लिक है पब्लिक स्कूलों की शुल्क और शहरीकरण का भार केवल पूंजीपति वर्ग ही उठा सकते हैं और बाकी गरीब बच्चे सरकारी विद्यालयों में प्रवेश लेते हैं और सरकारी स्कूलों के हालात बहुत खराब है। पाठ्यक्रम की बात करे तो वातानुकूलित कमरों में बैठकर अधिकारियों द्वारा बनाए जाते हैं व शिक्षक की इसमें कोई भागीदारी नहीं होती है। यह पाठ्यक्रम भी शहरी मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर ही बनाए जाते हैं गरीब परिवारों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। बड़े बड़े अफसर केवल अपने बच्चों के हितों के अनुसार ही पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार करते हैं। अध्यापक से इस मामले में कोई सलाह नहीं ली जाती है। यह इस देश की विडंबना है कि पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था को एक बंद कमरे में बैठकर संचालित किया जाता है। कक्षाओं के हालात भी कुछ ऐसे ही है। कक्षा में अध्यापक की स्थिति उस क्लर्क के समान है जो पूरे दिन फाइलों के साथ अधिकारियों के अधीन कार्य करता है। अध्यापक भी उन अधिकारियों के अधीन कार्य करता है जिनका शिक्षा से कोई संबंध नहीं होता। कक्षाओं में पाठ्यपुस्तकों को ही शिक्षण का माध्यम मान लिया जाता है, इससे शिक्षक के वाणी का कोई महत्व नहीं रह जाता है। जो शिक्षक पाठ्यपुस्तकों में से पढ़ाता है वह अपने विद्यार्थियों को स्वतंत्र और मौलिक विचार करने की शक्ति नहीं देता। इससे शिक्षक स्वयं पाठ्यपुस्तकों का गुलाम बन जाता है। कक्षाओं में अध्यापक को मनमानी करने पर या डर रहता है कि अधिकारी उसका स्थानांतरण कर देंगे। विद्यालय में कक्षा और पाठ्यक्रम ही नहीं ऐसे कई कार्यक्रम होते हैं जो बच्चों की भावनाओं और विचारों को बाधित करते हैं जैसे की प्रार्थनाओं का अलग-अलग गान करवाया जाता है जो अलग-अलग विचारों की पक्षधर होती है।

खिलौनों के बारे में इस पुस्तक में उल्लेख किया गया है कि पुराने खिलौनों और अब के खिलौनों में काफी अंतर आ गया है। छोटे बच्चे के लिए एक सामान्य डिब्बा भी खिलौने के समान ही होता है उस डिब्बे में से अगर कुछ गिर जाए तो बच्चे के लिए स्वतः ही दो खिलौने बन जाते हैं। छोटे बच्चे अपनी खेल सामग्री का निर्माण स्वयं करते हैं वह किसी चीज को देखकर चिंतन करने लगते है कि यह कैसे बनी है? या क्या है? इससे बालक की सोचने समझने की शक्ति बढ़ती है और मानस पटल खुलते हैं।

लेकिन समस्या यह है कि जैसा कि कृष्ण कुमार जी ने बताया है कि अब इन खिलौनों की बनावट पहले जैसी नहीं रही है। पुराने समय के खिलौने लकड़ी के बने होते थे और आज के खिलौने प्लास्टिक और लोहे के बने होते हैं। इन खिलौनों की बनावट सुंदर होती है तथा यह रंगीन होते हैं और बच्चे देखते ही इनकी ओर आकर्षित होते हैं लेकिन लेकिन यह बने-बनाए होते हैं इसलिए बच्चे उनके बारे में कुछ समझ नहीं पाते हैं। उनके सोचने विचारने की शक्ति शुन्य हो जाती  है।
भारत में 0-6 वर्ष तक की आयु के मरने वाले बच्चों की संख्या सर्वाधिक है और ज्यादातर बच्चे इस छोटी उम्र में ही कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। इसकी केवल रोकथाम तक उपाय किए गए हैं, जड़ से खत्म करने हेतु कोई प्रयास नहीं किया जाता है। इससे बच्चे मरने से तो बच जाते हैं किंतु कुपोषण का शिकार हो जाते है

कक्षाओं में बच्चों को बोलने के लिए पूर्ण प्रोत्साहन दे, उनकी जिज्ञासा को शांत ना करें। विद्यालयों में ऐसे नियम ना बनाएं जिससे बच्चे अपने आप को विद्यालय के प्रति समर्पित समझे, और उनकी अधीनता को अनुशासन का नाम ना दिया जाए। प्रोफेसर कृष्ण कुमार की यह पुस्तक अपने आप में शिक्षक प्रशिक्षण का कार्य करती हैं और प्रत्येक शिक्षक को अपने दिशा दिखाती है।

दुर्गा सीरवी
बी.ए. बी.एड. प्रथम वर्ष
लीलादेवी पारसमल संचेती कन्या महाविद्यालय,
खीमेलरानीजिला-पाली (राज)

              अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

4 टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा प्रयास उज्जवल भविष्य की बहुत
    बहुत शुभकामनाएं

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  2. बहुत अच्छा प्रयास उज्जवल भविष्य की बहुत
    बहुत शुभकामनाएं

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  3. अच्छा आलेख। अशेष शुभकामनाएं। आगे बढ़ते रहो

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