सम्पादकीय : वर्तमान शिक्षा का अधूरा स्वरूप / विजय मीरचंदानी

                         वर्तमान शिक्षा का अधूरा स्वरूप

भारत की शिक्षा प्रणाली विश्व की सबसे जटिल शिक्षा प्रणालियों में से एक है। प्रारंभिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक, उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा तक विस्तृत, यह शिक्षा व्यवस्था अनेक नीतियों, संस्थाओं और नियमों के सहारे बच्चों को शिक्षितकरने का काम कर रही है। आज़ादी के बाद और पहले भी लगातार एक स्तर को बनाए हुए कई समस्याओं के साथ यह व्यवस्था अपना काम कर रही है। जब व्यवस्था के स्तर पर एक ठीक-ठाक ढाँचा भारतीय शिक्षा को संभाले हुए है, तो मूल प्रश्न यह सामने आता है कि जब समाज में साक्षरता दर उतरोत्तर बढ़ रही है, समाज के प्रत्येक तबके तक शिक्षा की पहुँच लगातार बढ़ रही है, विद्यालयों में नामाँकन बढ़ रहा है, स्कूली शिक्षा पूरी कर उच्च शिक्षा तक पहुँचने वाले बच्चों की दर भी बढ़ रही है, अकादमिक, तकनीकी, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में भी दाखिले बढ़े हैं फिर भी समाज में क्यों लगातार अपराध बढ़ रहे हैं?, क्यों बलात्कार की घटनाएँ आम हो चली हैं?, क्यों कानून व्यवस्था का संकट लगातार बना हुआ है?, क्यों समाज में साम्प्रदायिकता अपना पैर पसार पा रही है?, क्यों शासन में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है?, क्यों पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग का संकट लगातार बढ़ रहा है?, क्यों समाज में अलगाव अपने चरम स्तर पर है?, क्यों परिवार टूटना एक सामान्य घटना हो गयी है?, क्यों व्यक्ति का स्वयं से अलगाव हो गया है? ये सारे प्रश्न अधिभौतिक नही हैं बल्कि ऐसे प्रश्न हैं जिनका सामना हम सब दिन प्रतिदिन के जीवन में लगातार करते हैं। जब शिक्षा का लक्ष्य बच्चों को विवेकशील और सद्गुणी बनाना है तो आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी क्यों यह समस्या न केवल भारत बल्कि विश्व स्तर पर तेज़ी से बढ़ रही है? आज पूरा समाज इन सभी का हल कानूनों और नियमों में देखते हैं, पर यह सारी समस्याएँ समाज में कैसे आयीं और इनकी जड़ें कहाँ हैं? क्या हमारी शिक्षा देने की पद्धति में कोई कमी है? या हमारी शिक्षा की विषयवस्तु ही अपर्याप्त है? इस बारे में हम कभी एक स्पष्ट समझ नहीं बना पाए हैं।

      एक शिक्षा व्यवस्था किसी बच्चे के जीवन को निर्मित करने में दो प्रकार से ये योगदान देती है। पहला, शिक्षा का काम कौशल प्रदान करना है और दूसरा हिस्सा दृष्टिकोण या मानसिकता तैयार करने का है। कौशल देने के स्तर पर हमारी शिक्षा व्यवस्था ठीक-ठाक आउटपुट दे पायी है। इस व्यवस्था से निकलकर समाज को बेहतरीन डॉक्टर मिले, विश्व स्तर के इंजीनियर मिले, काबिल और मेहनती सिविल सेवक भी मिले। इसी शिक्षा व्यवस्था ने अर्थव्यवस्था को बेहतरीन उद्यमी भी दिए और सूचना-तकनीक के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन करने वाले व्यक्ति भी दिए। परन्तु मानसकिता के स्तर पर हमारी शिक्षा व्यवस्था न व्यक्ति को कुछ दे पायी न समाज को कुछ दे पायी। मानसिकता को हम इस रूप में देख सकते हैं कि एक व्यक्ति का धन के प्रति क्या दृष्टिकोण है?, एक व्यक्ति का प्रकृति के प्रति क्या दृष्टिकोण है? और एक व्यक्ति का स्त्री-पुरुष संबंधों के प्रति क्या दृष्टिकोण है? एक बच्चा जो कि जन्म से जिज्ञासु होता हैसत्य वक्ता होता है, न्याय का वाचक होता है, बराबरी और संबंधों में जीना चाहता है, अपने जीवन के बीस वर्ष और कई लाख रुपए लगाकर जब इस शिक्षा व्यवस्था से बाहर निकलता है तब वो न तो सत्य वक्ता होता है, न ही न्याय का वाचक होता है और न ही उसके मन में किसी प्रकार की जिज्ञासा शेष होती है बल्कि इसके स्थान पर जो मानसकिता होती है वो यही होती है कि पैसा ही सबकुछ होता है। सुविधा ही जीवन शैली होती है। इन्द्रियों में ही सारा सुख होता है। शिक्षा व्यवस्था में अपने जीवन के बीस वर्ष लगाकर अब वो युवा पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है समाज और प्रकृति के साथ अन्याय और शोषण करता है, व्यावहारिकता के नाम पर भी झूठ बोलना सीखता है। उसके लिए अधिक से अधिक सुविधा संग्रह ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। सुविधा और इन्द्रियों में उसे सम्पूर्ण सुख नज़र आता है। अब वो व्यक्तियों और सम्बन्धों को काम में लेना सीख जाता है और प्रकृति का शोषण कर सुविधा संग्रह में अपना जीवन लगा लेता है। इस मानसिकता को देने में न केवल शासन बल्कि शिक्षक, परिवार, शिक्षा की विषयवस्तु, समाज और अन्य समाजीकरण की संस्थाएँ बराबर अपना योगदान देती हैं।

       इससे यह समझ आता है कि शिक्षा व्यवस्था को यदि इस रूप में देखा जाये तो इसके आउटपुट के रूप में समाज के युवा के लिये संबंध महत्वपूर्ण होगा या साधन महत्वपूर्ण होगा? तो निष्कर्ष रूप में यह कहा ही जा सकता है कि व्यक्ति के लिये साधन महत्वपूर्ण होगा और संबंध की उसके जीवन में कोई उपयोगिता शेष नहीं रहेगी। अब इस बात पर विचार किया ही जा सकता है कि ऐसी मानसिकता वाला व्यक्ति यदि डॉक्टर बनेगा तो किस प्रकार का डॉक्टर बनेगा और यदि इंजीनियर बनेगा किस प्रकार का इंजीनियर बनेगा। इसे हम अपने आस-पास बढ़ते सामाजिक, पारिवारिक और वैयक्तिक अलगाव के माध्यम से महसूस कर ही सकते हैं। अब कौशल के रूप में यह व्यक्ति डॉक्टर हो सकता है, इंजीनियर हो सकता है, सिविल सेवक और शिक्षक हो सकता है पर इस मानसकिता का व्यक्ति जो भी हो जाए वह स्वयं के साथ, परिवार के साथ, समाज के साथ और प्रकृति के साथ केवल अन्यायपूर्वक शोषण के माध्यम से केवल सफलता की अंधी दौड़ में दौड़ता ही नज़र आएगा। एक युवा चाहे एक अच्छा इंजीनियर हो जाये, एक अच्छा डॉक्टर हो जाये या फिर एक अच्छा मैनेजर हो जाये परन्तु उसे जीना तो परिवार और समाज में ही है, जीना तो सबके साथ ही है, ऐसी समझ विकसित करने में पूरा तंत्र असफल रहा। हमारी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा का पूरा ढाँचा, शैक्षिक विषयवस्तु, शिक्षक, समाज और परिवार उपदेशात्मक शिक्षा और कैरियर लक्षित शिक्षा देने में तो सफल रहा परन्तु व्यक्ति पर काम करने और मनुष्य में व्यक्तित्व का विकास हो जाए एक बच्चा समाज, परिवार संबध में ख़ुशी से और स्वयं में आत्मविश्वास के साथ जी पाए, प्रकृति के साथ अपने संबंध को पहचान कर समृद्धि के साथ जी पाए, ऐसी मानसिकता को देने में पूर्ण रूप में में असफल ही रही है।

परिवार, समाज, राष्ट्र,  और विश्व की ज्वलंत समस्याओं का हल शासन और समाज ने केवल नियमों, कानूनों, समझौतों और अदालतों के फैसलों में ही देखा है और फिर भी ये समस्याएँ घटती हुई कम और बढ़ती हुई ज्यादा दिखाई दी। इसका मूल कारण यही है कि वर्तमान शिक्षा का स्वरूप ही ऐसा है कि जिस तरह की मानसिकता वो आने वाली पीढ़ी को दे रही है उससे निकलने वाले परिणाम आज सभी के सामने हैं। औपचारिक शिक्षा पूरी होने के बाद व्यक्ति न प्रकृति के साथ अपने संबध को पहचान पाता है न समाज में स्वयं की उपयोगिता को खोज पाता है और न ही उसे स्वयं में ख़ुशीपूर्वक जीने का आत्मविश्वास होता है। इस तरह शिक्षा के बाद व्यक्ति समाज का शोषण करता है, प्रकृति का शोषण करता है और इस नासमझी की कीमत पूरा समाज चुकाता है पूरी मानव जाति चुकाती है। अब इस बात में सहमति बनती दिखाई पड़ती है कि चूँकि शिक्षा में प्रकृति सम्मत मानवीय मानसिकता देने काम नहीं हुआ इसलिए पूरी मानव जाति पर आज स्वयं के ही अस्तित्व को बचाने का खतरा मंडरा रहा है।

हमारी शिक्षा की विषयवस्तु किसी हद तक मानवीय शिक्षा परम्परा को बढ़ावा देने वाली थी। चाहे साहित्य हो या समाज विज्ञान लेकिन विद्यार्थियों तक विषयवस्तु तो पहुँचीं पर जिन कारणों और उद्देश्यों के साथ, वह विषयवस्तु पाठ्यचर्या में शामिल की गयी थी, वह मूल बात विद्यार्थियों तक नहीं पहुँच पाई। नतीजतन अंकों की दौड़ में विषयवस्तु और शिक्षण के उद्देश्य पीछे छूट गए और एक दूसरे को पीछे छोड़ने वाली दौड़ हमेशा चलती रही

इस तरह पैसे, पद, सुविधा संग्रह, अपनों और प्रकृति के शोषण की दौड़ में एक व्यक्ति के पूरे जीवन को खपा देने वाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में एक बहुत बड़ी कमी साफ़ नज़र आ ही जाती है। जहाँ शिक्षा का मानवीकरण होने की बजाय मशीनीकरण हो गया है। कक्षा-कक्ष में बच्चों को गणित, विज्ञान, भाषा, समाज और संस्कृति की तो शिक्षा दी गई पर नौकरी/व्यापार के साथ-साथ परिवार में खुश और संबंध में विश्वास के साथ कैसे जीया जाता है? न तो इसकी कोई विषयवस्तु उपलब्ध हुई और न ही कोई मॉडल उपलब्ध हो पाया। मानव जीवन में एक तरफ तो आदर्शवाद हावी रहा और दूसरी तरफ भौतिकतावाद। दोनों तरफ की जीवन जीने की पद्धतियाँ मनुष्य को पूर्ण करने में असफल ही सिद्ध हुई। इसी क्रम में एक सुखद अनुभूति दिल्ली में हैप्पीनेस करिकुलम के माध्यम से होती है। जहाँ शिक्षा के स्वरूप को मानवीयकृत कर, विषयवस्तु के माध्यम से, प्रारंभिक शिक्षा से ही बच्चों में ऐसे दृष्टिकोण को विकसित किया जा रहा है जहाँ वह प्रकृति, समाज, और परिवार के साथ शोषणमुक्त, अभावमुक्त और सम्बन्धों में विश्वासपूर्वक जीने की योग्यता हासिल कर सके, परिवार में समृद्धि के साथ जी सके, व्यवस्था में अपनी उपयोगिता से पूर्ण भागीदारी के साथ जी सके और इन्हीं अर्थों में शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य पूरा हो सके। 

बीते दिनों जानेमाने कथाकार स्वयं प्रकाश जी हमारे बीच नहीं रहे, उन्हें हार्दिक नमन अंत में इस 'विशेषांक' में विशेषांक सरीखा कितना आ पाया? पता नहीं, हाँ अंक ज़रूर देरी से आया है, इसके लिए माफी चाहता हूँ। उन सभी का शुक्रिया जिन्होंने अंक के लिए मन लगाकर लिखा। हमें अंदाजा है कि अंक में कमियाँ तो रही हैं मगर हमारा सीखना लगातार जारी है

विजय मीरचंदानी

          अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

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