कुछ कविताएँ : करमचंद साहू

कुछ कविताएँ : करमचंद साहू



अबूझ प्रश्न

 

पटरी पर ट्रेन

ट्रेन में खचाखच भरे हैं 'लोग'

लोगों में 'मैं'...

मेरे सामने आविर्भाव वह विशेष चेहरे वाली 'बुढ़िया'

जिसकी वेश- भूषा उसे सबसे अलग पहचान दे रही थी।

मैले कुचैले छिद्रांबरधारी

हाथ में सुशोभित फटी कटोरी

शुष्क कुंडल्याकार- श्वेत -कुंतल

पहनी थी वह -

अलग अलग नंबर और डिज़ाइन के

फटे चप्पल।

उम्र की थपेड़ खाया चेहरा

पेट पर साफ़ उकेरे गए प्रसव चिह्न

दिख रहे थे,

जिन्हें वह उस फटे कपड़े के नीचे

छिपाने के लिए भूल गई थी शायद।

 

कटोरों में धंसी बड़ी बड़ी आंखें

सूखा तन,

है अर्द्ध नग्न बदन ।

प्रतीत हुआ मुझे

जैसे उसकी गरीबी ने उसकी नारी सुलभ इज्ज़त को दमित कर लिया है।

एक अजीब सी दर्द भरी मुस्कान थी उसके चेहरे पर

समझ से परे

कल्पनातीत गंभीर

व्यंग्य पूर्ण

मानों वह कुछ कहना चाहती हो

उसकी अथक अकथ कहानी

लेकिन वह बेचारी करती भी क्या

वह शायद जानती थी

कि उस भीड़ भरी आवाज़ पूर्ण बग्गी में

अनगिनत लोगों में कोई भी ऐसा नहीं है

जो उसको सुन सके

वह शायद अपनी हदें पहचानती थीं

कि वह केवल एक गरीब याचक है

और सामने उसके बैठे हैं

वे लोग जिनमें नहीं है वह शक्ति और धेर्य

जो उसकी व्यथा जान सकें।

 

बहुत समय से मैं उसे देख रहा था

देखता जा रहा था

खोया जा रहा था

उसके उस शुष्क चेहरे पर

जिसपर लिखी थी

उसकी बीती सैकड़ों

दुख भारी

अनकही कहानियां

उसके बचपन

उसके यौवन

और उसके खुशी के दिन

और उसके यहां तक के  दुख के सफ़र

की कहानियां,

उन कहानियों को मैं सुनना चाहता था

पढ़ना चाहता था

लेकिन मैं पढ़ा लिखा हो कर भी

असमर्थ था।

मेरे वर्षों साधित ज्ञान

हार जा रहा था उन कहानियां को पढ़ने में।

 

कोई उसपर दया बरसा रहा था

एक दो रुपए उसके खुले हाथों पर ऊपर से लूटा जा रहा था।

कोई तिरछी नज़र से उसे देख रहा था,

और अपने आप को संभाल कर बैठ जाता था

अपने पैरों को शिट के नीचे सरका ले रहा था

ताकि उसका मैला गरीबी- गंध वाला

अछूत शरीर कहीं उसकी पवित्र देह को गन्दा न कर जाए।

कुछ ज्ञानी गुणी महाशय

उसे फटकार रहे थे

भिखारीपन पर दर्शन की वर्षा कर रहे थे।

बगल में बैठे अन्य लोग उसका मज़ा ले रहे थे।

 

धीरे धीरे वह मेरे पास आई

उसका झुर्रियों वाला चेहरा

और साफ़ दिखने लगा मुझे

वह पास आई तो पता चला

कि वह शायद गूंगी है

या फिर कई दिनों की भूख ने

उसकी वाणी को

उसके अंदर ही कहीं

बांध रखी है।

अब वह अपने सूखे रक्तहीन हाथों को

फैलाए मेरे सामने खड़ी है।

उसकी हथेली की रेखाएं गहरी थी

गूढ़ थीं

जैसे कोई खाई

जिसपर उसके भाग्य ने तांडव किया है फिर

कहीं उन गहरी अंधेरी रेखाओं की खाई में

उस भुलभुलैया में खो गया है।

 

मैंने सोचा

इस धरती पर

जहां लोग श्रीवान हैं

क्या इतनी भी बुरी दशा किसी की हो सकती है?

 

मैं खो गया था आपने प्रश्नों में

हठात उसने अपने हाथ हिला कर इशारा किया

उसके चेहरे पर वह गूढ़ करुण मुस्कान अब भी थी।

मैं जागा

अपनी पॉकेट में टटोला

उसके हाथों में एक दो लक्ष्मी को रख दिया।

वह अब भी नि:शब्द थी

 

लेकिन उसकी आंखों ने मुझे आशीर्वाद दिया,और कुछ कहा

जिसे मैं समझ नहीं पाया ,

शायद कोई प्रश्न था

किसकी अबूझ भाषा का प्रश्न

या फिर उसकी वह अनकही कहानी

जिसे वह एक पल में ही मेरे सामने कह डाली

लेकिन मुझेमें उसे समझने को सामर्थ्य नहीं था।

 

और धीरे धीरे वह आगे बढ़ी

और उस भीड़ में कहीं खो गई।

 

उन कुछ क्षणों का मेरा अनुभव

आज भी मुझे कचोटता है, टीस देता है।

मेरी स्मृति में छपी उसकी वे सारहीन आंखें आज भी मुझे पूछती हैं

 

वह अज्ञात भाषा का अबूझ प्रश्न

जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है

मैं खोज रहा हूं

न जाने मेरी ये खोज कब पूरी होगी?

 

 

पहाड़ और पहाड़ियों का इतिहास

 

हर एक पहाड़ का अपना इतिहास होता  है

लावाग्नि से ठंडी चट्टान बनने का इतिहास

उसपर बीज से अगम्य अरण्य  पनपने का इतिहास

पंच भूतों से तत्व बटोरकर

अपने अंदर सामने

और रत्नाकर बनने का इतिहास।

 

बादलों से बूंद समेटकर

निर्झरणी बहाने का इतिहास,

 

रसातल से बुलंदियों को छूने का

मृत जीवों- विटपों के अवशेष से

उपजाऊ मिट्टी बनने का इतिहास

जिससे दूसरे वृक्ष,वन कुसुमों के पौधे आदि

 जीवन सार ग्रहण करते हैं,

जिसको नदियां बहा ले जा कर समतल भूमियों पर बिछा देती हैं ताकि बीज से सोने की फसल तक का सफर पूरा हो सके।

 

इंसान युगों से पहाड़ों से जुड़ा हुआ है,

अपनी जरूरतों की पूर्ति करता है।

पहले वह उन पहाड़ों में रहता था

पहाड़ों से वह चूल्हा पानी जुटता था

मर्ज के लिए दवाई कूटता था

उसे पूजता था,आपनी कहानियों में वह

 उन पहाड़ों को हिस्सा देता था,

 

कि शिवजी कैलाश में रहते थे

कि हनुमान गंधमादान-अडिग को मृत संजीवनी, विशल्यकरणी,संधनी जैसी जीवन दाई बूटियों के संधान निम्मित हिमालय से श्रीलंका लाए थे

कि कृष्ण ने गोपियों को इन्द्र के कोप से बचने के लिए

गोवर्धन को अंगुली से उठाया था

कि विंध्य पहाड़ियों ने अगस्त्य मुनि को रास्ता देने के लिए आपने आपको झुका लिया था।

कि समुद्री पहाड़ ने हनुमान की थकान मिटाने के लिए अपना कद ऊंचा कर लिया था।

चित्रकूट, अरावली, मलय गिरि, महेंद्राचल, सह्याद्रि आदि नजने कितने पहाड़ों - पर्वतों का अपना अपना इतिहास है।

 

इंसान उन पहाड़ों की छाती पर विहार करता था

मृगया आखेटक खेलता था।

 

आज

जो उन पहाड़ों में रहते हैं या जो रहने के लिए विवश हैं,

या जिनको उसने जबरन जानबूझकर वहां उन पहाड़ों में

उन जंगलों में धकेल दिया है

जिनसे उसने सब कुछ छीन लिया है,

उनकी आबरू,पशु संपद, ईमान, भूमि,

उनका 'घन -विटप - समूह'

उन्हें वह पहाड़ी- जंगली कहता है और आपने आप को सभ्य।

वह नगरों में रहता है,

सुख सुविधाओं ऐशों आराम से

जहां ये नगर बसाए गए हैं

जहां उसने गगन स्पर्शी इमारतें बनाई हैं

कहा जाता है कि

उसके नज़दीक कई गगन से भी ऊंचे पहाड़ थे,

वहां आज खदान हैं,

और उन खदानों में

वे  लोग जो उन पहाड़ों में रह गए थे

या फिर उनको वहां रहने के लिए मजबुर किया गया था,

बेगार खटते हैं।

उनकी संख्या कम हो रही है

साथ ही उनकी संस्कृति,लोक परंपराएं, अलौकिक- लौकिक कहानियां, आदिम नृत्य उनका वजूद और सब कुछ खत्म हो रहे हैं

तीर धनुष की जगह उनको बंदूक पकड़नी पड़ रही है।

सरकारें उन तक पहुंचने के लिए रास्ते बना रही हैं

लेकिन सरकारी सुविधाएं उन तक पहुंच नहीं पा रही हैं।

बिजली की तारों बिछाई जा रही हैं,

लेकिन वे अंधेरे में हैं

उन पहाड़ी लोगों की स्थिति उन पहाड़ों जैसी है

दोनों जो कभी समृद्ध थे

आज वजूद हीन हो गए हैं।

एक खदान बन गया है तो दूसरा उस खदान में काम करने वाला सामान्य श्रमण।

दोनों अपनी ऐतिहासिक गाथाएं

अपनी मौजूदा व्यथाएं

ऊंची आवाज में गा रहे हैं,लेकिन

उन्हें कोई सुन नहीं पा रहा है,

उन नगरों की मोटरों, मशीनों,

उन खदानों के विस्फोट आदि की आवाज़ें

इनकी आवाज़ को कहीं कोने में दफना दे रही हैं।

 

 

बेवक्त

 

आज कल

बेवक्त आसमान में घन छा जाते हैं

बेवक्त आ जाती है बारिश

बेवक्त गुजर जाते हैं लोग बेशरम मौत आ जाती है

बेवक्त पहुन आते हैं घर

बेवक्त तरुओं में किसलय आते हैं

बेवक्त ही उसमें कुसुम खिलते हैं और भ्रमर बेवाक गूंज कर फूलों को चूम जाते हैं।

बेवक्त ही वृक्षों में फल आ जाते हैं।

बेवक्त कभी कभी आम खाने को दिल करता है।

जीवन भर वक्त के पाबंद मेरे पापा

बेवक्त बूढ़े हो गए हैं।

 

बेवक्त मुर्गा आवाज़ देता है

बेवक्त ही बिल्ली रास्ता काट जाती है अक्सर

रात में बेवक्त अक्सर आजकल कुत्ते, सियार, उल्लू बोल उठते हैं।

बेवक्त

बेवक्त गुजर जाते हैं वक्त

आज कल बेवक्त बहुत कुछ हो रहा है

मेरे दादाजी कहते हैं ये पहले  ऐसे या इतनी मात्रा में बेवक्त कुछ नहीं होता था।

मैं ने सोचा

तब भी तो बिल्ली बेवक्त रास्ता काट लेती होंगी,जैसे आज

आज तो फिर भी स्थिति ठीक है कुछ बातों के मामले में कि

पहले बेवक्त ही लड़की का ब्याह हो जाता था

तब भी शायद आज की तरह बेवक्त कभी कभी बादल गरजते होंगे,बारिश होती होगी,मुर्गे आवाज़ देते होंगे,मौत भी होती होगी किसी की बेवक्त।

हां ये बात सच है कि आज कल बेवक्त घटित होने वाली कुछ घटनाएं नई हैं।

बेवक्त पहले भी बला था आज भी बला है,

हुज़ूर इसलिए मुझे बेवक्त से काफी डर लगता है।

 

कवि की तड़प

 

आसमान में काले बादलों को देख कर,

उनके प्रचंड गर्जन को सुन कर,

कवि तड़प उठता है,

 

तूफ़ान के आगमन के संदेश पाकर

सिहर जाता है उसका मन,चिंतित हो जाता है।

           

उसे चिंता होने लगती है

उन अपरिचित पक्षी युगलों की,

जिनका घोंसला उसके घर को लगे उस विशाल वृक्ष पर है,

जिन्हें वह रोज देखता है,

लेकिन पहचान नहीं पाया है अभी तक ।

फिर भी उसे वे बहुत भाते हैं।

जिसमें से एक पक्षी शावक के चीं चीं  की ध्वनि अक्सर निकलती रहती है।

उस घोंसले में दो चार अंडे और पड़े हैं।

हाय उस पक्षी युगल का क्या होगा?

क्या उनकी घास- फुस  का घोंसला इस घोर बेदर्दी झंझावत की मार को सह सकेगा?

 

कवि उस कृषक के बारे में सोचता है

अरे...

 अभी कल ही तो बारिश रुकी थी जो पिछले

चार दिनों से लगातार बरस रही थी।

उसकी फसल और उसके खेत का क्या होगा?

 

वह यह सोच कर व्यथित हो जाता है

कि उसके मकान के सामने वाली झोपड़ी की उस बूढ़ी काकी का क्या होगा?

 

जिसकी झोंपड़ी छन्नी को भी चुनौती देती है।

बेटा परदेश गया था लौटा नहीं,

पिछले साल एक अनजान बीमारी

के कारण उसका पति गुज़र गया है।

उसकी इकलौती बेटी कुछ कमाने गई है अभी तक लौटी नहीं है।

 

सामान्य बारिश में भी उसका छप्पर टपकने लगता है।

कैसे सहेगी वह आने वाले इस भीषण तूफ़ान और मूसलाधार बौछार को।

 

कवि की उद्विग्नता बढ़ जाती है,

उसका हिय विह्वल हो उठता है।

उसकी तड़प तेज़ हो जाती है,

वह इन बेचारों के लिए कुछ करना चाहता है,

 कलम उठता है

कागज़ों पर उसकी संवेदनाओं को शब्द - रेखाओं के जरिए चित्रित कर चलता है,

 

अब उसको बादलों का घोर गड़गड़ाहट सुनाई नहीं देता।

 वह उन लाचार पक्षिओं,उनके शावक,उस बदकिस्मत कृषक

 और बूढ़ी काकी की तकलीफों को अपने अंदर महसूस करता है, उसके वर्षों से  साधित शब्द रो पड़ते हैं,

उसकी पीड़ा, स्याही के आंसुओं से कविता बन जाती है।

 

तभी अकस्मात बेदर्द बदल बरस पड़ते हैं जैसे

मानो रत्नाकर को आज वे उन गरीबों पर लूटा कर रहेंगे।

 

कवि अब भी सोच में है,

उसकी लेखनी अबाध गति से चल रही है

 कि अचानक उसके गाल पर कुछ बूंदें टपकने लगती हैं।

 

वह हठात् जाग जाता है,

ऊपर देखता है,उसकी छत टपक रही है।

कुछ और बूंदें उसके उस काग़ज़ पर पड़ती हैं,

जिसपर वह  अपनी सहानुभूति और पीड़ा को

शब्दों के द्वारा संजो रहा था।

उसकी सहानुभूति अब स्वानुभूत हो जाती है,

और शनै: शनै: बारिश की धाराएं आसमान से उतर कर उसकी छत चीर कर उसके घर को अधिकृत करने लगती हैं।

 

अंदर से पत्नी आवाज़ देती है,

अजि सुनते हो,

यहां छत  फिर से टपकने लगी  है......

 

 

मेरी कविता हो तुम

 

जब रजनी

 रजनीगंधा की तरह महकने लगती है,

और हृदय को सराबोर कर जाती है,

जब जगत बेजान होकर अंधकार की कोख में सो जाता है,

तब तुम आती हो ।

 

तुम आती हो उस पल

जब स्मृति और अनुभूति के  तूफान आ कर थम जाते हैं

और मेरी चेतना को प्रचंड आघात से तोड़ जाते हैं,

तब तुम आती हो।

 

तुम आती हो

मेरी सदियों से शांत हृदयाग्नि को अपनी स्नेह सुधा उंडेलकर

फिर दहका जाती हो।

 

तुम आती हो उस  बादलों से घिरी पूर्णिमा की रात में

जुगनुओं की पालकी पर सवार हो कर

सोम की स्निग्ध किरणों के परिधान पहन कर

मतवाली बन तुम मेरे अंतर्मन में छा जाती हो।

 

निचोड़ती हो मेरे हृदय को,

स्पंदनों की गति को बढ़ा जाती हो।

 

तुम आती हो

एकांत में बैठे रहता हूं जब सन्नाटे की आबद्ध कोठरी के अंदर

मेरा चंचल मन तब मेरे वश में नहीं होता,

अचानक तुम बिजली की तरह कौंध जाती हो,

शब्दों की माला बन जाती हो,

कलम से उतर जाती हो पृष्ठों पर

मुझे मुक्त कर देती हो

युगों से बंधे उस बंधन से

मेरी कूंठाओं और एषणाओं से

मेरी तड़प और विषाद से

मेरी वेदना, पीड़ा

 और अनंत निद्रा से ,

तुम मुझे स्वतंत्र कर जाती हो ।

 

मेरे एकांत क्षणों की सखी

मेरी कविता हो तुम।

 

करमचंद साहू

शोधार्थी, ओड़िशा

संपर्क- iamkaramcs@gmail.com

                                  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

5 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही उम्दा भाई दिल को छू लेने वाली कविता एक बार के लिए मुझे ऐसा लगा जैसे में उस जगह पर हूं और मेरे सामने सब कुछ हो रहा हो......

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  2. धन्यवाद्....🙏 संपादक महाशय और 'अपनी माटी' पत्रिका।🙏🙏

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