शोध आलेख : ‘कर्तव्‍यबोध एवं नैतिकता का पाठ पढ़ाती शिवनारायण सिंह की बोध कथाएँ’ / सुशील कुमार तिवारी एवं डॉ. हरिणी रानी आगर

‘कर्तव्‍यबोध एवं नैतिकता का पाठ पढ़ाती शिवनारायण सिंह की बोध कथाएँ’
– सुशील कुमार तिवारी एवं डॉ. हरिणी रानी आगर

शोध सार : सुप्रसिद्ध कथा-शिल्‍पी, महान् चिन्‍तक और मनीषी युगपुरूष श्री शिवनारायण सिंह का छात्रोपयोगी कथा साहित्‍य ‘विद्यार्थियों से...’ बहुमूल्‍य और विपुल सम्‍पदा है। वे एक आदर्श और कर्तव्‍यनिष्‍ठ शिक्षक हैं, प्रतिदिन अपने स्‍कूल की प्रार्थना-सभा में वे छात्रों से छोटी-छोटी बोधकथाओं के माध्‍यम से संवाद करते हैं और उन्‍हें संस्‍कार भी देते हैं। संस्‍कारहीनता के इस दौर में इन कथाओं के सहारे शिव नारायण सिंह महान् गुरु और उस काम-कथन को सार्थक कर रहे हैं कि धन, विद्या, कला, प्रेम और जो कुछ भी तुम्‍हें प्रिय है, उसे उदारता से बाँट दो और अपने कर्तव्‍य पथ पर अडिग रहो। विगत कई वर्षों से यह संस्‍कार यज्ञ अनवरत चलायमान है और अनगिनत छात्रों ने उनके इस अभिनव प्रभाव से मार्गदर्शन एवं जीवन की प्रेरणा प्राप्‍त की है। शिवनारायण सिंह जहाँ एक ओर बाल स्‍वभाव और बाल मनोविज्ञान पारखी हैं वहीं दूसरी ओर संवेदनशीलता, तार्किकता, कौतुहल, रोचकता और कल्‍पनाशीलता उनकी बोध कथाओं के आधार स्‍तम्‍भ हैं। अपनी इन बोधकथाओं के माध्‍यम से वे छात्रों के हृदय को स्‍पर्श करते हैं, उन्‍हें उद्बुद्ध करते हैं, उनमें आशाओं का संचार कर वर्तमान प्रतिस्‍पर्द्धा के लिए उन्‍हें तैयार करते हैं। कभी किसी ज़माने में पंचतंत्र आदि के माध्‍यम से सहज बुद्धि और आचार की शिक्षा देने की परम्‍परा को शिव नारायण जी नये सिरे से पुन‍र्जीवित कर रहे हैं। आज की पीढ़ी को संस्‍कारवान, गुणवान बनाने का उनका यह अभिनव प्रयास निश्चित ही आधुनिक शिक्षा-व्‍यवस्‍था के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है।

बीज शब्‍द : अभिनव, विपुल, संवेदनशीलता, श्रमसाध्‍य, बीजमंत्र, संस्‍कार, अंकुरण, मूल्‍यबोध, ज्ञानबोध, परदुखकातर, ज्ञान–पिपासु।

मूल आलेख : साहित्‍य का मूल उद्देश्‍य व्‍यक्ति में सचरित्रता एवं अच्‍छे संस्‍कारों का बीजारोपण कर उनका निरंतर विकास करना होता है। वैसे तो चरित्र एवं संस्‍कार निर्माण की यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है, किंतु जिस उम्र में व्‍यक्ति के चेतना बोध आरंभ होता है यदि उसी उम्र में साहित्‍य के प्रति रुचि पैदा कर दी जाए तो वह एक अत्‍यंत सुखद अनुभूति होती है। “कथाएँ लोक-साहित्‍य एवं साहित्‍य का एक अटूट हिस्‍सा होती हैं, वे प्रेरक होने के साथ-साथ किसी को स्‍वयं का साक्षात्‍कार कराने में भी सहायक होती हैं। जीवन के सर्वांगीण विकास का अमृत तत्त्व इनमें छलकता है। कथाओं के छोटे–छोटे रस-प्रसंग लघु होते हुए भी विराट् चेतना के बीजमंत्र हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री शिव नारायण सिंह भी अपनी छोटी–छोटी बोधकथाओं के माध्‍यम से इसी महत्त्वपूर्ण दिशा में समर्पण भाव से लगे हुए हैं। वे कथाओं के वास्‍तविक स्‍वरूप एवं अर्थ को चरितार्थ कर रहे हैं।”1

    शिवनारायण सिंह द्वारा विद्यार्थियों को समर्पित, उन्‍हें संबोधित करके कही गई कथाओं का संग्रह पूरे आठ खंडों में प्रकाशित हुआ है। खंड-खंड में प्रकाशित ये अखंड कथाएँ उनके श्रमसाध्‍य जीवन की गहरी पूँजी हैं, जो विद्यार्थियों के लिए अमूल्‍य धरोहर बन गई हैं। बोधकथा श्रृंखला इस बात का प्रमाण है कि कैसे एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों के अन्‍दर मूल्‍यबोध, जीवनबोध, ज्ञानबोध, विवेकबोध, नीतिबोध इत्यादि विविध विचार–भावों का अंकुरण बाल्‍यकाल में ही कर सकता है, जब तक यह जीवन पौध तैयार हो साथ ही साथ वह जीवन संघर्ष के लिए परिपक्‍व हो जाए। इन नीतिपरक संवादधर्मी कथाओं के माध्‍यम से शिव नारायण जी ने विद्यार्थियों के लिए एक सच्‍चे गुरु के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन किया है। सच्‍चा–गुरु जो शिष्‍यों को सही और ग़लत के भेद को समझाकर सही मार्ग की ओर जाने के लिए प्रेरित करता है। “छोटे-छोटे प्रेरणादायी कथनों, आदर्श एवं सूक्‍त वाक्‍यों से भरी इन कथाओं को पढ़कर सचमुच प्रेरणा मिलती है और कथाओं में कथाकार एक आदर्श अध्‍यापक के रूप में भी दिखाई देता है। अध्‍यापक का मतलब है- शिक्षण पद्धति और बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ रखनेवाला। शिव नारायण सिंह को बाल मनोविज्ञान की गहरी सूझ है। बालमन कच्‍ची मिट्टी की तरह होता है, जिसे एक अध्‍यापक उचित आकार और सही दिशा दे सकता है।”2

    वर्तमान पूँजीवादी युग में शिक्षा पूर्णत: व्‍यवसाय का रूप धारण कर चुकी है, शिक्षक की भूमिका संकुचित होकर ऐन-केन–प्रकारेण पाठ्यक्रम पूर्ण कराने तक सीमित हो गयी है तब ऐसी विषम स्थिति में शिव नारायण सिंह की बोधकथाएँ चाणक्‍य नीति, संस्‍कृत सुभाषितानि, हिन्‍दी के नीतिपरक दोहों का स्‍मरण कराकर नैतिक मूल्‍यों के संरक्षण के साथ-साथ कर्तव्‍य पथ का स्‍मरण भी कराते हैं। “मूल्‍यपरक शिक्षा की आज जितनी आवश्‍यकता अनुभव की जा रही है उतनी पहले कभी नहीं थी, क्‍योंकि आज हम एक गहन संक्रान्ति काल से गुजर रहे हैं। हमारे प्राचीन परंपरागत मूल्‍य कुछ तो पूर्णत: विघटित हो चुके हैं और कुछ बड़ी तीव्र गति से विघटित हो रहे हैं, किंतु नये मूल्‍य अभी प्रतिष्‍ठित अथवा स्‍थापित नहीं हो पाये हैं। आज सदाचरण, सत्‍य अहिंसा, प्रेम, शांति जैसे शाश्‍वत् परंपरागत मूल्‍यों की पुन: प्रतिष्‍ठा की महती आवश्‍यकता है।”3 वर्तमान भारत में संचालित अमरीकी प्रणाली के अंग्रेज़ी माध्‍यम स्‍कूलों मे नैतिक शिक्षा उपेक्षित हुई है, मूल्‍यों का भारी संकट है, तब ऐसे दौर में शिवनारायण सिंह जैसे कर्तव्‍यपरायण शिक्षक द्वारा प्रतिदिन प्रार्थना सभा में जीवनोपयोगी बोधकथाओं द्वारा विद्यार्थियों को नैतिक दृष्टि से शिक्षित कर उनमें कर्तव्‍य बोध जाग्रत करना एक सुखद आश्‍चर्य की तरह है।


    शिवनारायण सिंह की बोधकथाएँ ‘गागर में सागर’ की भावना को चरितार्थ कर रही हैं। मानव जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जो इनसे अछूता हो, जहाँ श्री सिंह की अंर्तदृष्टि न पहुँची हो। इन कथाओं के माध्‍यम से वे अपने विद्यार्थियों को सतत् कर्तव्‍यनिष्‍ठ, मेहनती, साहसी, धैर्यवान, दयावान, परदुखकातर तथा ज्ञान–पिपासु बनाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि विद्यार्थी एकाग्रचित्त होकर अध्‍ययन करें, आत्‍मविश्‍वासी बनें तथा जीवन पथ पर निरंतर नई ऊॅंचाईयाॅं प्राप्‍त करें। उनकी कथाओं में पग–पग पर सामाजिक जीवन व्‍यवहार के संदेश दृष्‍टव्‍य हैं। ‘मदद’ शीर्षक से उद्धृत बोधकथा में मदद की महत्‍ता को निरूपित करते हुए वे लिखते हैं “मदद करना मैंने पहले भी कहा कि ईश्‍वरीय गुण है, इसका विकास हर किसी को अपने अन्‍दर करना चाहिए। लेकिन मदद करने से पहले आपके अन्‍दर थोड़ी सूझ-बूझ होनी चाहिए। मैं समझता हूँ, आप अपने अन्‍दर इस गुण का विकास करेंगे, आप कोशिश करेंगे कि आप किसी की मदद करें, लेकिन आँखें बन्‍द करके नहीं, आँखें खोलकर। इस दिशा में आप सोचेंगे, विचार करेंगे, कोशिश करेंगे और ऐसा ही आचरण करेंगे कि इस ईश्‍वरीय गुण को आप अपने में पूर्णरूपेण आत्‍मसात् कर सकें। अगर आप ऐसा कर पाते हैं तो निश्चित रूप से एक बड़ी उपलब्धि आपके हाथों में होगी।”4

    कथाओं के माध्‍यम से समाज को निरंतर सत्‍प्रेरणा प्रदान कर संवेदनशील बनाना तथा सत्‍य का अन्‍वेषण और सफलता के मार्ग का अवलंब दिखाना भारत की प्राचीन परम्‍परा रही है, जो आज मर रही है। प्रेमपूर्ण आचरण के अभाव में ही हमारे तथाकथित नेताओं, विभिन्‍न धर्म–सम्‍प्रदायों, विभिन्‍न इलेक्ट्रॉनिक माध्‍यमों के द्वारा बच्‍चों–बूढ़ों तक के मन में हिंसा, वैमनस्‍य, भ्रष्‍टाचार, आक्रामकता, सेक्‍स और घृणा इत्यादि के बीज बोकर वे अपने मज़हबी मंसूबों पर खरे उतर रहे हैं, ऐसे में श्री सिंह की वाणी अविराम रूप से प्रवाहित होकर वर्तमान पीढ़ी का अपने ज्ञान जल से सिंचन कर रही है। खंड दो से उद्धृत बोधकथा 'अभाव' में वे कहते हैं कि “प्रिय विद्यार्थियो, अभाव बुरी बात नहीं है, लेकिन अभाव में अपने स्‍वभाव को नहीं बदलना है, अपने उद्देश्‍य से विरत नहीं होना है, आपने जो लक्ष्‍य बनाया है उससे आपको हटना नहीं है। ऐसा किसी के साथ नहीं हो सकता कि सारी–की–सारी परिस्थितियाँ उसके अनुकूल हों और सफलता अपने आप उसके पास आ जाए, वह एकाएक सफल हो जाए। अगर ऐसा होता तो दुनिया में कोई असफल ही नहीं होता। बिना किये सभी सफल हो जाते, करने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती। तो यह तो स्‍वप्‍न में भी सम्‍भव नहीं है।”5 शिवनारायण सिंह की ये बोधकथाएँ साधारण से लगने वाले प्रसंग से प्रारंभ होते हैं और धीरे–धीरे असाधारण होते हुए चेतना एवं चिंतन को ऐसा झकझोरते हैं कि एक महत्त्वपूर्ण निष्‍कर्ष सामने होता है।

    मानव सभ्‍यता के विकास में कथा साहित्‍य का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इतिहास गवाह है कि किसी भी राष्‍ट्र या समाज में आज तक जितने भी परिवर्तन आये हैं वे सब साहित्‍य के माध्‍यम से ही आए। जब सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्‍यों का पतन होने लगता है तो कथा-साहित्‍य ही जनमानस का मार्गदर्शन करता है। कर्म की महत्‍ता को प्रदर्शित करते हुए श्री सिंह ने अपने ‘विद्यार्थियों से...’ के खंड-चार में कहा है, “जैसे सूर्य में प्रकाश, चाँद में चाँदनी, दीपक में लौ है, ठीक उसी प्रकार कर्म में फल भी निहित है। कोई भी महान् कार्य एक दिन में सम्‍पन्‍न नहीं हो सकता। उपलब्‍ध अवसरों का पूरा–पूरा उपयोग करो। कर्म का नियम अटल है, हजारों मील की यात्रा का प्रारंभ पहला कदम ही है। उस पहले क़दम को जानें, पहचानें और रखें। जब तक उस पहले क़दम को न‍हीं रखेंगे, तब तक आपको मंज़िल नहीं मिल सकती, लेकिन कर्म के सिद्धांत को भूलकर नहीं, कर्म के सिद्धांत का अनुकरण करके।”6 आगे ‘मौन की भाषा’ शीर्षक से उद्धृत बोधकथा में वे लिखते हैं “प्रत्‍येक व्‍यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब वह कुछ व्‍यक्‍त–अव्‍यक्‍त खोजता है। तब मौन ही उसका मार्गदर्शक होता है, मौन ही उसे रास्‍ता बताता है, मौन ही उसे उसके लक्ष्‍य तक पहुँचाता है। जीवन जीने का विषय है, यही सत्‍य है। सत्‍य को जानने के लिए उसे आचरण में उतारना पड़ता है और आचरण की कोई भाषा नहीं होती। आचरण मूक होता है, समर्पण मूक होता है, ध्‍यान मूक होता है, निष्‍ठा, भक्ति, उत्‍साह, आशा, विश्‍वास ये सभी मूक होते हैं।”7

    कर्तव्‍य बोध ही जीवन की धुरी है, वह हमारी मनुष्‍यता को प्रकट करके हमें सही अर्थ में मनुष्‍य बनने की राह पर ले जाता है। जिस परिवार, समाज और राष्‍ट्र में ऐसे कर्तव्‍य बोध से भरे मनुष्‍य होते हैं, वह परिवार, समाज और वह देश उतनी मात्रा में बलवान, सम्‍पन्‍न और सुदृढ़ होता है। “भगवान किसी को अलग से कुछ नहीं देता है, वह वही देता है जो आप करते हैं। जितना आप करेंगे निश्चित ही उतना आप पाएँगे, उससे अधिक की उम्‍मीद करते हैं, तो बेमानी है, उसका कोई मतलब नहीं है। भगवान् श्रीकृष्‍ण ने पूरी गीता में यही बात कही है। अब पूरी गीता पढ़ लीजिए या चाहे इस बात को मान लीजिए कि आप जितना करेंगे उतना ही रिटर्न मिलना है, तो क्‍यों न आप उतना कर डालें जितना आप चाहते हैं? जिस दिन आपका यह लक्ष्‍य हो जाएगा कि मुझे उतना कर डालना है जितना मुझे चाहिए तो निश्चित रूप से आप अपने लक्ष्‍य पर होंगे।”8    

    बहुधा उनके कथा-संवाद के केन्‍द्र में रामायण, महाभारत, पंचतंत्र या कथा सरित्‍सागर आदि की कोई कहानी होती है और सामान्‍य पाठक को लगता है– इस कथा से वह पूर्व परिचित है। परंतु वास्‍तविकता इससे हटकर होती है, जबकि वे प्राचीन और प्रचलित कथाओं को नवीन संदर्भों से जोड़कर वर्तमान समस्‍याओं का समाधान प्रस्‍तुत कर रहे होते हैं। यहीं उनकी किस्‍सागोई की नवीनता व मौलिकता उभरकर सामने आती है और कथा संवाद की कौतूहलता के पीछे का असल कारण भी समझ में आता है। यदि हम यह कहना चाहें कि इन कथा–संवादों के माध्‍यम से उन्‍होंने प्राचीन भारतीय परंपराओं और आधुनिकता के बीच सेतु निर्माण का काम किया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। “ये उद्बोधन कथाएँ ऋषि कुल की परंपरा को मानो जीवंत करती हैं। श्री शिवनारायण सिंह ने वाचिक संवाद द्वारा प्राचीन भारतीय गुरुकुल की परम्‍परा को मानो प्रार्थना–सभा के रूप में पुनर्रचना की है। ये उद्बोधन कथाएँ विद्यार्थियों को कुछ सोचने-समझने और कुछ करने के लिए अभिप्रेरित करती है। उन्‍हें उनके दायित्‍वबोध का ज्ञान कराती हैं। अपने दोषों को यथासंभव दूर कर उन्‍हें ऐसा सुनागरिक बनाना चाहती हैं, जिसमें मनुष्‍यता की सभी संभावनाएँ पुष्पित और पल्‍लवित हों।”9व्‍यक्ति के अन्‍दर जो भाव होता है, वही भाव उसकी सोच में बदल जाता है और उसकी सोच ही विचारों को जन्‍म देती है, जो विचार उत्‍पन्‍न होते हैं, वही विचार आदमी के संस्‍कार बनते हैं और जो संस्‍कार होता है हमारा, वही हमें कार्य करने की प्रेरणा देता है। “गुरु हर क्षण आपको देखता रहता है, समझता रहता है, कभी टोकता है, कभी रोकता है, कभी उकसाता है, कभी दबाता है, कभी चढ़ाता है, कभी गिराता है, कभी सँभालता है और कभी छोड़ देता है। आखिर ऐसा क्‍यों है़? आपको कुछ और भी लगता हो, आपको लगता है कि हमारे साथ यह जबरदस्‍ती हो रही है, हमारे साथ अन्‍याय हो रहा है, हमारे साथ ही ऐसा क्‍यों हुआ है, लेकिन ऐसा नहीं है, यही प्रोसेस है आपको परिपक्‍व बनाने का, आपको परफेक्‍ट करने का, आपको परिस्थितिजन्‍य परेशानियों पर विजय दिलाने का। वास्‍तव में यह जीवन बहुत कठिन है, आज जितना महसूस करते हैं, जितना जानते हैं, जितना समझते हैं, उससे कहीं ज्‍यादा कठिन है। लेकिन साथ-ही-साथ इन कठिनाइयों का समाधान भी है, लेकिन उन्‍हीं के लिए जो समाधान चाहते हैं।”10

    भारत का साहित्‍य अत्‍यन्‍त प्राचीन एवं समृद्ध है, विश्‍व साहित्‍य में इसका विशिष्‍ट स्‍थान है। यहाँ के साहित्‍य को समृद्ध बनाने में ऋषि–मुनियों, संतों, भक्‍तों, दार्शनिकों, समीक्षकों, विचारकों, गुरुओं आदि का स्‍मरणीय योगदान रहा है। वाल्‍मीकि, व्‍यास, भवभूति, कालिदास, बाणभट्ट, पातंजलि, स्‍वयंभू, पुष्‍पदंत, तुलसीदास, कबीर, नानक, रैदास, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद,‍ निराला, नागार्जुन आदि ऐसे महान् कवि–लेखक हैं जिन्‍होंने भारतीय साहित्‍य को सतत् जीवन्‍तता प्रदान करके इसके मूल्‍यों को उजागर किया है। इसी परम्‍परा में हिन्‍दी साहित्‍य के मानवतावादी मूल्‍यों की रक्षा के लिए वर्तमान में शिवनारायण सिंह जैसी विभूति अवतरित हुए। उनका मुख्‍य उद्देश्‍य भारतीय साहित्‍य में जीवन मूल्‍यों का संरक्षण और प्राचीन आदर्शों की प्रतिस्‍थापना है। “देश और समाज के लिए नैतिकता एक प्रश्‍नचिह्न बना हुआ है, क्‍योंकि हमारे देश का अतीत रत्‍नों से भी अधिक जाज्‍वल्‍यमान रहा है। इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था, पर बड़े दु:ख की बात है कि ऐसा विश्‍व शिरोमणि भारत देश आज पतन की ओर जा रहा है। इसका प्रमुख कारण पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता के अनुकरण ने हमारे घर, परिवार व छात्र, शिक्षक, विद्यालय, अभिभावकों, आम जनमानस को और समाज के वातावरण को बहुत दूषित बना दिया है, जिससे भौतिकवादी प्रवृत्तियाँ आध्‍यात्मिक जीवन के ऊपर हावी हो रही हैं। जिससे राष्‍ट्र का नैतिक चरित्र ह्रासोन्‍मुख होता जा रहा है।”11 मानव और मानवीय मूल्‍य सर्वोपरि हैं। मानव मूल्‍यों का संबंध नैतिक विचार से है और नीति का घनिष्‍ठ संबंध साहित्‍य से है। जीवन क्‍या है? इसका लक्ष्‍य क्‍या है? अच्‍छा क्‍या है? बुरा क्‍या है? अच्‍छा ही क्‍यों बनना चाहिए? इन विविध प्रश्‍नों का उत्‍तर एवं विविध मूल्‍यों का समाधान संस्‍कृति एवं साहित्‍य के द्वारा ही होता है।

    सुखमय जीवन व्‍यतीत करने के लिए सेवा, समर्पण, सहिष्‍णुता, सह-अस्तित्‍व आदि गुणों की अत्‍यंत आवश्‍यकता पड़ती है। उपभोक्‍तावादी और बाजारवादी संस्‍कृति में पलते–बढ़ते विद्यार्थियों में ये मानवीय मूल्‍य निरंतर कम होते जा रहे हैं। ‘टर्निंग प्‍वाइंट’ शीर्षक से उद्धृत बोधकथा में वे लिखते हैं- “प्रिय विद्यार्थियों, तो भाग्‍यशाली कौन है? भाग्‍यशाली वह है जिसके अन्‍दर ‘सर्वेभवन्‍तु सुखिन:, सर्वे सन्‍तु निरामया’ का मंत्र हर क्षण गूँजता रहता है और वह इस दिशा में लगा रहता है। हाँ, भाग्‍यशाली वह भी है जो सृजन का कार्य करता है क्‍योंकि सृजन से श्रेष्‍ठ कार्य इस पृथ्‍वी पर दूसरा कोई नहीं है। हाँ, भाग्‍यशाली वह भी है जो अकारण ही इस सृष्टि एवं इस जगत के लिए कुछ–न–कुछ करता रहता है क्‍योंकि वही परमात्‍मा का प्रतिनिधि होता है, वही परमात्‍मा के करीब होता है और भाग्‍यशाली वह भी है जो मनुष्‍य को मनुष्‍य बनने की शिक्षा देता है, उसका निर्माण करता है।”12 सद्भावना, सहिष्‍णुता को जीवन में उतारना अपनी संस्‍कृति और संस्‍कारों से जुड़े रहना यही समय की पुकार है, इसे शिव नारायण सिंह जी ने देखा और समझा है। इन्‍हीं संस्‍कारों को सुदृढ़ करने हेतु समाज को आदर्श शक्‍ल देने के लिए उन्‍होंने लुप्‍त होते मानव–मूल्‍यों की प्रतिष्‍ठा हेतु अपने प्रिय विद्यार्थियों को जो सद्गुणों की विरासत दी है, वह मात्र उनके विद्यार्थियों की न होकर देश के हर विद्यार्थी की संपत्त्ति बन गई है। “मानव–मूल्‍य एक ऐसी आचरण–संहिता या सद्गुण–समूह है, जिसे अपने संस्‍कारों एवं पर्यावरण के माध्‍यम से अपनाकर मनुष्‍य अपने निश्चित लक्ष्‍यों की प्राप्ति हेतु अपनी जीवन–पद्धति का निर्माण करता है, अपने व्‍यक्तित्‍व का विकास करता है। इसमें मनुष्‍य की धारणाएँ, विचार, विश्‍वास, मनोवृत्ति, आस्‍था आदि समेकित होते हैं। ये मानव मूल्‍य एक ओर व्‍यक्ति के अन्‍त:करण द्वारा नियंत्रित होते हैं तो दूसरी ओर उसकी संस्‍कृति एवं परंपरा द्वारा क्रमश: निस्‍सृत एवं परिपोषित होते हैं।13

निष्‍कर्ष : पुरातन भारतीय परम्‍परा में संस्‍कारवान, गुणवान बनने की सीख देने में किस्‍से–कहानियों का अमूल्‍य योगदान होता था। पंचतंत्र की कथाओं ने अपने सामाजिक दायित्‍व को बहुत अच्‍छी तरह से निभाया है। इस परम्‍परा के सिमट जाने का कारण ही आधुनिकता के दौर में मूल्‍य आधारित शिक्षा की ज़रूरत महसूस की जा रही है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि श्री शिवनारायण सिंह आसाधारण व्‍यक्तित्‍व के धनी, किस्‍सागो और चिंतक हैं, उनकी दूरदृष्टि सक्षम, सशक्‍त राष्‍ट्र निर्माण का स्‍वप्‍न संजो रही है। आज की पीढ़ी को संस्‍कारवान, गुणवान बनाने का यह प्रयास इसी कारण आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है। विद्यार्थियों के मन में पठन-पाठन के प्रति अभिरुचि जगाना और उन्‍हें ऊर्जस्वि‍त कर उनके व्‍यक्तित्‍व निर्माण में शिव नारायण सिंह को निश्चित ही सफलता प्राप्‍त हुई होगी। उनके विद्यालय से निकलने वाले छात्र निश्‍चय ही देश और समाज का भला कर रहे होंगे।

सन्‍दर्भ

  1. डॉअरुणेश नीरनडॉदिनेश कुशवाहउद्भव मिश्रअर्चना तिवारीशिवेश सिंह –मूल्‍यों के निर्माण कलश’, प्रभात प्रकाशन नई दिल्‍ली, 2013, पृष्‍ठ 163
  2. वहीपृष्‍ठ 218
  3. डॉराजूप्रसाद अहरवालसंस्‍कृत साहित्‍य में सामाजिक मूल्‍यसाहित्‍य संस्‍थान गाजियाबाद, 2019, प्रस्‍तावना
  4. शिवनारायण सिंहविद्यार्थियों से.....खंड-एकप्रेस्‍टिज प्रकाशन देवरिया.प्र. 2005,पृष्‍ठ 169
  5. शिवनारायण सिंहविद्यार्थियों से.....खंड-दोप्रेस्‍टिज प्रकाशन देवरिया.प्र. 2005,पृष्‍ठ 208
  6. शिवनारायण सिंहविद्यार्थियों से.....खंड-चारप्रेस्‍टिज प्रकाशन देवरिया.प्र.2008,पृष्‍ठ 32
  7. शिवनारायण सिंहविद्यार्थियों से.....खंड-तीनप्रेस्‍टिज प्रकाशन देवरिया.प्र.2007,पृष्‍ठ 207
  8. शिवनारायण सिंहविद्यार्थियों से.....खंड-पाँचप्रेस्‍टिज प्रकाशन देवरियाउ.प्र. 2008, पृष्‍ठ 235
  9. डॉअरुणेश नीरनडॉदिनेश कुशवाहउद्भव मिश्रअर्चना तिवारीशिवेश सिंह –मूल्‍यों के निर्माण कलश’, प्रभात प्रकाशन नई दिल्‍ली, 2013, पृष्‍ठ 133
  10. शिवनारायण सिंहविद्यार्थियों से.....खंड-पाँचप्रेस्‍टिज प्रकाशन देवरियाउ.प्र. 2008, पृष्‍ठ 458
  11. डॉअरुणेश नीरनडॉदिनेश कुशवाहउद्भव मिश्रअर्चना तिवारीशिवेश सिंह –मूल्‍यों के निर्माण कलश’, प्रभात प्रकाशन नई दिल्‍ली, 2013, पृष्‍ठ 44
  12. शिवनारायण सिंहविद्यार्थियों से.....खंड-सातप्रेस्‍टिज प्रकाशन देवरियाउ.प्र.2012, पृष्ठ 197
  13. डॉनत्‍थूलाल गुप्‍त-मूल्‍यपरक शिक्षा और समाज (सिद्धांतप्रयोग एवं प्रविधि)नमन प्रकाशन, 2010, पृष्‍ठ 01

सुशील कुमार तिवारी

सहायक प्राध्‍यापक– हिन्‍दीशासविवेकानंद स्‍नातकोत्‍तर महामनेन्‍द्रगढ़

tsushil1978@gmail.com8349659988

 

डॉहरिणी रानी आगर

सहायक प्राध्‍यापक– हिन्‍दीशासबिलासा कन्‍या स्‍नातकोत्‍तर महाबिलासपुर

8839171068


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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