tag:blogger.com,1999:blog-5853620981665233836.post8989472210071359423..comments2024-03-25T11:26:27.348+05:30Comments on अपनी माटी: कविता: रवि कुमार स्वर्णकारGunwant http://www.blogger.com/profile/11902535333148574269noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-5853620981665233836.post-10727367907384807862013-04-03T19:59:51.349+05:302013-04-03T19:59:51.349+05:30सच में ये आभास हर चिन्तनशील इंसान को बीते कुछ सालो...सच में ये आभास हर चिन्तनशील इंसान को बीते कुछ सालों में होता रहा है कि आज का आदमी मशीन में तब्दील होता जा रहा है। गणित के सवालों में उलझता हुआ जीवन अब अधबीच के इन हिचकोलों से खुद परेशान है।आपकी पहली कविता एक उद्देश्य को पूरती हुई साफ़ तौर पर सार्थक हुयी है ।-माणिकAnonymoushttps://www.blogger.com/profile/00514434800240496727noreply@blogger.com